Monday, 3 November 2025

कांग्रेस के पिछलग्गू मुसलमानों और राहुल गांधी से कुछ कड़वी बातें




सबसे पहले बतादूं कि मैं इमरान नियाज़ी किसी भी राजनैतिक दल या नेता का सपोर्टर नहीं हूं। और ना ही हर खद्दर धारी का व्यक्तिगत विरोधी हूं। हां कुछेक नाम हैं जिनका में हर तरह से विरोधी हूं। मैं केवल पार्टियों और नेताओं की करतूतों के खिलाफ़ हूं। हांलाकि मुझसे हमेशा ही सवाल पूछा जाता है कि मुसलमान होकर भी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के मुखालफ़त क्यों करता हूं तो जनाब मैं मुसलमान हूं इसीलिये तो इन दोनों की खुली मुखालफ़त करता हूं। खैर फिलहाल मैं बात कर रहा हूं कांग्रेस की। मुसलमानों ने 1947 से ही कांग्रेस पर भरोसा किया। लेकिन कांग्रेस ने 1947 में ही मुसलमानों की पीठ में छुरा घोंपा। ब्रिटिश के जाने के बाद ही देश में सरकार बनाने की जोड़गांठ शुरू हो गई थी। उस वक्त दो बड़े चेहरे प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए सामने थे, जवाहर लाल नेहरू और मो0 अली जिन्ना। जवाहरलाल नेहरू खुद बड़े बेरिस्टर थे। सरकार बनाने के लिए कांग्रेस कमेटी की मीटिंग हुई, मीटिंग में सभी गेर मुस्लिम कांग्रेसियों ने प्रस्ताव पास किया कि ‘‘देश के प्रधान मंत्री, रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री की कुर्सी किसी मुसलमान को नहीं दी जायेगी।’’ हालांकि महात्मा गांधी चाहते थे कि मुसलमान को प्रधानमंत्राी बनाया जाये। महात्मा गांधी के कत्ल की वजह भी यही थी। साथ ही देश के बंटवारे की असल वजह भी कांग्रेस कमेटी का यह फैसला ही था। देश बंट गया और बंटवारे का ठीकरा मो0 अली जिन्ना के सिर फोड़ दिया गया। जवाहर लाल की कोशिश कामयाब हुई कांग्रेस की सरकार बना ली गई उस वक्त भी करोड़ों मुसलमानों ने मो0 अली जिन्ना के मुकाबले नेहरू का साथ दिया। कांग्रेस ने मुसलमानों का ब्रेन वॉश करके मुसलमानों को मानसिक गुलाम बना लिया। सरकार बनते ही कांग्रेस ने अपना असल रूप दिखाना शुरू कर दिया। सितम्बर 1948 में नेहरू ने निज़ाम हैदराबाद पर फौज से हमला कराकर हज़ारों बेकसूर मुसलमानों का क़त्लेआम कराया। मुसलमान मानसिक गुलामी की जंजीरों में ऐसा जकड़ा हुआ था कि इतने बड़े क़त्लेआम के बाद भी कांग्रेस की दरी बिछाने से बाज़ नहीं आया। कांग्रेस ने शुरू से ही मुसलमानों को वोट के लिए इस्तेमाल किया। कभी लीडर शिप या बराबरी देने या मुसलमानों की शैक्षिक या माली तरक़्क़ी के लिए कुछ नहीं किया। कहीं ना आरक्षण ना कोई विंग ही बनाई। आर्मी में गोरखा रेजीमेन्ट बनाई, सिख रेजीमेन्ट बनाई, जाट रेजीमेन्ट, अहीर रेजीमेन्ट आदि बनाई। लेकिन कभी खान रेजीमेन्ट, पठान रेजीमेन्ट या कोई भी मुस्लिम रेजीमेन्ट बनाने की भूल नहीं की क्योंकि कांग्रेस मुसलमानों को सिर्फ दरी बिछवाने और वोट के लिए इस्तेमाल करती हैं। कांग्रेस से सीख लेकर समाजवादी पार्टी, बीएसपी, जनता दल, सरीखे फ़र्ज़ी सैकूलरों ने भी मुसलमानों को दरी बिछाने के काम में इस्तेमाल किया। खैर दूसरे दलों की बात बाद में करेंगे फिलहाल कांग्रेस की करतूतों पर ही बात करते हैं।


1948-49 में हैदराबाद क़त्लेआम कराये जाने के लिए ना तो ब्रिटिश भारत आये ना ही यह क़त्लेआम आम जनमानस ने किया बल्कि नेहरू सरकार की आर्मी ने किया था,  26 से 40  हज़ार मुसलमानों का क़त्लेआम किया गया। मानसिक गुलामी में जकड़े मुसलमान की आंखें नहीं खुलीं और ज्यों का त्यों कांग्रेस की पिछलग्गू बनकर दरी बिछाता रहा।

1957 में तमिल नाडू के रामनाड में 50 से ज़्यादा मुसलमानों को मारा काटा गया। इस दौरान तमिलनाडू में के कामाराज की कांग्रेसी सरकार और केन्द्र में नेहरू की सरकार थी।

1964 में कलकत्ता में मुस्लिम क़त्लेआम किया गया इस वक्त पश्चिमी बंगाल में बिधन चन्द्र राय की कांग्रेसी सरकार और केन्द्र में गुलज़ारी लाल नन्दा और फिर लाल बहादुर शास्त्री की सरकार थी। मुसलमानों को सरकार से कोई राहत या मदद नहीं मिली, उल्टे जेलों में ठूंसा गया।

1964 में ही महाराष्ट्र के भिवंडी में मुसलमानों का क़त्लेआम किया गया। जब भी महाराष्ट्र में बसन्तराव नाइक और केन्द्र में इन्दिरा गांधी प्रधान मंत्री थीं।

1967 में रांची में 150 से ज़्यादा में मुसलमानों को मारा गयाए सैकड़ों दुकानों घरों को लूटकर आग लगाई गई। इस दौरान राज्य में जनता क्रान्ति दल (वर्तमान में बीजेपी) की सरकार ओर केन्द्र में मुसलमानों की मसीहा इन्दिरा गांधी की क़ब्ज़ा था।

1969 में गुजरात में 512 मुस्लिमों को काटा गया। इस दौरान गुजरात में हितेन्द्र कन्हैया लाल देसाई की कांग्रेसी सरकार और केन्द्र में मुसलमानों की मसीहाई का ढोल पीटने वाली इन्दिरा गांधी की सरकार थी।

1970 में महाराष्ट्र के भिवंडी में कई हज़ार मुसलमानों को मारा काटा गया। इस दोरान भी महाराष्ट्र में बसन्तराव नाइक की कांग्रेसी सरकार और केन्द्र में इन्दिरा गांधी की सरकार थी।

1980 में उ0प्र0 के मुरादाबाद में एक बड़ी साजिश के तहत ईदगाह में सुअर छोड़े गये, विरोध करने पर नमाज़ पढ़ रहे मुसलमानों पर पीएसी ने अंधाधुन गोलिया बरसाईं, लगभग 500 बूढ़े बच्चों जवानों का क़त्लेआम किया। इसके बाद पुलिस पीएसी ने मुसलमानों के घरों में लूटपाट आगज़नी, कत्लेआम और बलात्कार किये। इस दौरान उ0प्र0 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और केन्द्र में इन्दिरागांधी की सरकार थी।

1981 में बिहार में 50 से ज़्यादा मुस्लिमों को काटा गया। इस दौरान बिहार में कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगननाथ मिश्रा और केन्द्र में इन्दिरा गांधी का कब्ज़ा था।

1983 में आसाम में मुसलमानों पर हमले किये गये और मार काट की गई, 3 हज़ार से ज़्यादा बेकसूर निहत्थे मुसलमानों का क़तलेआम किया गया। आसाम में भी कांग्रेसी मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया और केन्द्र में इन्दिरा  गांधी की सरकार थी।

1984 में फिर महाराष्ट्र के भिवन्डी में मुस्लिमों को मारने काटने लूटने का खुला आंतक कराया गया, 300 से ज़्यादा मुसलमानों को क़त्ल किया। इस बार महाराष्ट्र में वसन्त दाद पाटिल की कांग्रेसी सरकार और केन्द्र में राजीव गांधी की सरकार थी।

1984 में इन्दिरा गांधी के क़त्ल के बाद पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश दिल्ली और बिहार आदि में सिखों के साथ कांग्रेसियों ने दर्जनों मुसलमानों को भी निशाना बनाया।

1985 की फरवरी, अप्रैल और मई में गुजरात में 300 से ज़्यादा मुसलमानों को क़त्ल किया गया। इस बार भी गुजरात में माधव सिंह सोलंकी की कांग्रेसी सरकार और केन्द्र में राजीव गांधी की सरकार थी।

1986 फरवरी की 01 तारीख को राजीव गांधी (तत्कालीन प्रधानमंत्री) ने बाबरी मस्जिद शहीद कराने की नींव रखते हुए मस्जिद के ताले खोलकर मस्जिद में मूर्तियां रखवा दीं

1986 में कश्मीर में मुसलमानों के खिलाफ सरकारी और गैर सरकारी बवाल किया गया, दर्जनों बेकसूर मुसलमानों को सरकारी हाथों के ज़रिये मौत के घाट उतारा गया। इस दौरान राजीव गांधी की सरकार थी।

1987 में उ0प्र0 के मेरठ में लगभग 200 मुसलमानों पर आतंक बरपाया गया, 40 मुस्लिम नौजवानों को घरों से ले जाकर पुलिस ने नहर पर गोलियों से भून कर मार दिया था। इस समय उ0प्र0 में वीर बहादुर सिंह की कांग्रेसी सरकार थी और केन्द्र में मुस्लिमों के आक़ा राजीव गांधी का कब्ज़ा था।

1987 में ही दिल्ली में दर्जनों मुसलमानों पर आफत ढाई गई। इस दौरान दिल्ली पुलिस राजीव गांधी के ही कमान में थी।

1988 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में दर्जनों मुसलमानों की मार काट की गई। इस दौरान महाराष्ट्र में कांग्रेसी शरद पवार की और केन्द्र में राजीव गांधी की सरकार थी।

1988 में ही उ0प्र0 के मुज़फफरनगर में कई दर्जन मुसलमानों की मार काट, आगज़नी, लूटपाट की गई। हज़ारों मुसलमों को लूटपाट करके उनके ज़मीनें घर छीने गये। तब भी उ0प्र0 में कांग्रेस की वीर बहादुर सिंह सरकार और केन्द्र में राजीव गांधी पावर में थे।

1989 में बम्बई में एक बार फिर मुसलमानों पर हमले किये गये और दर्जन भर से ज़्यादा मुसलमानों को क़त्ल किया गया। इस बार भी शरद पवार की ही पुलिस थी, राजीव गांधी सैन्ट्रल गर्वंमेन्ट चला रहे थे।

1989 में ही राजस्थान के कोटा में मुसलमानों की मार काट लूटपाट की गई, दो दर्जन से अधिक मुसलमानों को क़त्ल किया गया। उस वक्त राजस्थान में भी कांग्रेस की हरिदेव जोशी की और केन्द्र में राजीव सरकार थी।

1989 में ही उ0प्र0 के बदायूं में मुसलमानों पर हमले किये गये जाने ली गई मारकूट और लूटपाट की गई, दो दर्जन से अधिक मुसलमानों को कत्ल किया गया। उ0प्र0 में नारायण दत्त तिवारी और सैन्टर में राजीव गांधी की कांग्रेसी सरकार थी।

1989 में मध्य प्रदेश के इंदौर में मुसलमानों पर हमले किये गये, दो दर्जन मुसलमानों को मार दिया गया। इस दौरान मध्य प्रदेश में मोतीलाल वोरा की कांग्रेसी सरकार और केन्द्र में राजीव गांधी की कब्ज़ा था।

1989 में बिहार के भागलपुर में मुसलमानों पर आतंक बरपाया गया, 1000 से ज़्यादा मुसलमानों का क़त्लेआम किया गया। इन दिनों बिहार कांग्रेसी मुख्यमंत्री सत्यनरायण सिन्हा और केन्द्र में राजीव गांधी का कब्ज़ा था।

1989 में कश्मीर में 1200 मुसलमानों को साजिशी कत्लेआम किया गया।

1990 में उत्तर प्रदेश के कर्नल गंज में मुसलमानों पर हमले किये गये, 100 से ज़्यादा बेकसूर निहत्थे मुसलमानों को कत्ल किया गया। इस दौरान उत्तर प्रदेश की सत्ता कथित मुस्लिम हिमायती मुलायम सिंह यादव की और केन्द्र में वीपी सिंह की सरकार थी।

1990 में हैदराबाद में मुसलमानों पर हमले किये गये, 200 से ज़्यादा मुसलमान कत्ल किये गये। इस दौरान आंध्र प्रदेश में मैरी चन्ना रेड्डी की कांग्रेसी सरकार थी।

1990 में मुलायम सिंह सरकार के रहते हुए उ0प्र0 के कानपुर, आगरा, खुरजा, अलीगढ़, गोण्डा में प्लानिंग के साथ मुसलमानों पर हमले करके 200 से ज़्यादा मुसलमानों को क़त्ल किया गया। लूट पाट आगज़नी की गई।

1990 में कर्नाटक के रामनगरम, चन्नापटना, कोलार, देवानागर, टुमकेर आदि में 50 से ज़्यादा मुसलमानों की मार  दिया गया। इस दौरान कर्नाटक में देवेन्द्र पाटिल कांग्रेसी मुख्य मंत्री की सरकार थी।

1991 में सहारनपुर में कम से कम 40, कानपुर में लगभग 20, मेरठ में 3 दर्जन, मुसलमानों को एक साथ कत्ल किया गया। सहारनपुर, कानपुर और मेरठ में क़त्लेआम के दौरान उ0प्र0 में मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्राी थे। जबकि केन्द्र में तथा कथित कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव का खेल चल रहा था।

1992 में बिहार के सीतामढ़ी में अचानक मुसलमानों पर हमले करके लगभग 65 मुसलमानों का क़त्लेआम किया गया। इस दौरान बिहार में लालूप्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे और वही नरसिम्हाराव राव का खेल चल रहा था।

1992 में एक बार फिर गुजरात के सूरत में आतंक मचाकर 200 से ज़्यादा निहत्थे बूढ़े बच्चे जवान मुसलमानों का क़त्लेआम कराया गया। हालांकि इन दिनों गुजरात में मोदी का कब्जा था। हालांकि लालू यादव ने अपनी इस गल्ती का प्रायचित रेलमंत्री बनाये जाने पर कर लिया। लेकिन केन्द्र में नरसिम्हाराव की साजिश थी।

1992 में ही बम्बई में मुसलमानों पर आतंक बरपाकर 250 से अधिक मुसलमानों को क़त्ल किया गया। इस दौरान महाराष्ट्र में कांग्रेस की ही सरकार थी और केन्द्र में नरसिम्हाराव की साजिशें चल रही थीं।

1992 में ही दोबारा गुजरात के सूरत में मुसलमानों पर आतंक वरपाकर 200 से ज्यादा मुसलमनों को कत्ल करके लूटपाट आगज़नी आबरू ज़नी कराई गई। अस बार भी केन्द्र में साजिशों का दौर था।

1992 में कर्नाटक के हुबली, बैंगलौर, गुलबर्गा, धारवाद में मुसलमानों पर हमले करके कम से कम 32 मुसलमानों को क़त्ल करा गया। कर्नाटक में भी कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीरप्पा मोईली और केन्द्र में साजिश का प्रतीक नरसिम्हाराव का खेल चल रहा था।

1992 में उ0प्र0 के कानपुर में फिर मुसलमानों पर हमले करके कत्लेआम करने की छूट देकर कम से कम 260 मुसलमानों को कत्ल कराया गया। इस बार भी मुसलमानों के खिलाफ नरसिम्हाराव का ही खेल था कयोंकि इस दौरान उ0प्र0 में राष्ट्रपति शासन था।

1992 में आसाम में फिर मुसलमानों पर कमले कराकर कम से कम 95 बेकसूर मुसलमानों को कत्ल कराया गया। इस दौरान आसाम में हितेश्वर सैकिया की कांग्रेसी सरकार थी साथ ही नरसिम्हाराव का खेल भी चल रहा था।

1992 में राजस्थान में भी मुसलमानों को काटने के लाईसेंस देकर लगभग 65 मुसलमानों को कत्ल कराया गया। इस दौरान राजस्थान में बीजेपी का कब्ज़ा था लेकिन केन्द्र में नरसिम्हाराव की कार गुजारी भी थी।

1992 में बंगाल के कलकत्ता में कम से कम 35 बेकसूर मुसलमानों का कत्ल किया गया। इन दिनों बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योति बसु मुख्यमंत्री थे लेकिन केन्द्र में कांग्रेस का ही कब्ज़ा था।

1992 में मध्य प्रदेश के भोपाल में मुसलमानों का क़त्लेआम करने की खुली छूट देकर 180 से ज़्यादा मुसलमानों के क़त्ल कराये गये। इन दिनो मध्य प्रदेश नरसिम्हाराव के हाथ में ही था।

1992 में दिल्ली में भी लगभग 55 मुसलमानों को मार दिया गया। इस दौरान दिल्ली सीधे नरसिम्हाराव की कमाण्ड में थी।

1993 में बम्बई में कांग्रेसी मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाईक ने मुसलमानों को थोक में क़त्ल करने का लाईसेंस देकर कम से कम 4500 मुसलमानों को क़त्ल कराया, सुधाकर राव को दिल्ली से नरसिम्हाराव की फुल सपोर्ट मिली थी।

1994 में कर्नाटक के हुबली में 7-8 बेकसूर मुसलमानों को मार दिया गया। इस दौरान कर्नाटक में वीरप्पा मोईली और केन्द्र में नरसिम्हाराव कांग्रेसियों का क़ब्ज़ा था।

1994 में ही कर्नाअक के बेंगलूर में दोनो कांग्रेसियों की कारगुजत्रारी से लगभग 25 मुसलमानों को क़त्ल किया गया।

2005 में उ0प्र0 के मऊ में मुलायम सिंह यादव की सरकार के दौरान 15 मुसलमान मौत के घाट उतारे गये। इस दौरान भी केन्द्र में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार थी।

2005 में ही यूपी के लखनऊ में 5 मुसलमानों को कत्ल किया गया। इस दौरान भी यूपी में मुसलमानों के मसीहा मुलायम सिंह यादव की सरकार थी और सैन्टर में सोनिया गांधी रिमोट से चलने वाली मनमोहन सिंह सरकार थी।

2006 में गुजरात के बड़ौदा में फिर मुसलमानों को मारने काटने लूटने आगज़नी करने की छूट देकर 10 कत्ल कराये गये। इस समय अगर गुजरात में सरकारी तौर पर मुसलमानों के कत्ल कराये जाने का प्रावधान था लेकिन केन्द्र में तो कांग्रेस का ही कब्ज़ा था।

2008 में मध्य प्रदेश के इंदौर में शिवराज सरकार के सरपरस्ती में मुसलमानों पर आतंक बरपाया गया। इसपर भी सोनिया गांधी नामक रिमोट से चलने वाली मनमोहन सिंह सरकार ने चुपी साधे रखी।

2012 में आसाम में मुसलमानों पर आतंकी हमले करके कम से कम 80 निहत्थे मुसलमानों का कत्लेआम कराया गया। इस दौरान आसाम में तरून गोगोई और सैन्अर में मनमोहन सिंह की कांग्रेसी सरकार थी।

2013 पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार को बदनाम करने और कमज़ोर करने के लिए मुसलमानों पर हमले कराये गये, कई लोग मार दिये गये। सैन्टर में कांग्रेसियों का कब्ज़ा था।

2013 में उ0प्र0 के मुज़फ़्फरनगर में मुसलमानों के क़त्ल, रेप, लूटपाट, आगज़नी, सम्पत्ति कबज़ाने की छूट देकर लगभग 600 बेकसूर मुसलमानों को क़त्ल, आगज़नी, बलात्कार, लूटपाट, कराकर मुसलमनों की ज़मीनों मकानों पर कब्जे करके 60 हज़ार से अधिक मुसलमानों को घर ज़मीन जायदादें छोड़कर भागने पर मजबूर कराया गया। चौंकाने वाला पहलू यह है कि इस दौरान उ0प्र0 में मुसलमानों के मसीहा अखिलेश भैया की सरकार और दूसरे नाखुदा राहुल गांधी का केन्द्र में कब्ज़ा था।


इनके अलावा अगर बात करें फ़र्ज़ी एंकाऊण्टरों के ज़रिये मुसलमानों को क़त्ल कराये जाने की तो कांग्रेस ने अपने दौर में थोक में बेकसूर मुसलमानों के एंकाउटर कराये गये। हम सिर्फ कुछ सरकारी कत्लों की बात करें तो 26 नवम्बर 2005 को गुजरात में सोहराब उददीन और उनकी पत्नी को मार दिया गया इन हत्याओं के चश्मदीद प्रजापति को भी 26 दिसम्बर 2006 को मार दिया गया। 15 जून 2004 को इशरत जहां और उसके दोस्तों को कत्ल किया गया। 19 सितम्बर 2008 को बाटला हाऊस कत्लों से भी सब वाकिफ हैं। और इन सब क़त्लों के दौरान केन्द्र में सोनिया गांधी नाम के रिमोट से चलने वाली कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार थी। मनमोहन सिंह सरकार को कोई कार्यवाही करने की इजाज़त नहीं दी गई। आज देश जो कुछ भुगत रहा है ये सब कांग्रेस की ही देन है। कांग्रेस बोये और सींचे पेड़ के ही फल देश को मिल रहे हैं। बीजेपी तो बेवजह ही बदनाम है। कांग्रेस ने जो फसल बोई औरं सींची थी उसी पकी फसल को बीजेपी काट रही है।

        कांग्रेस फिर मुसलमान के सहारे सरकार में पहुंचने की कोशिशों में लगी है। मुसलमान फिर पिछलग्गू बना दिख रहा है। कैसे बार बार भूल जाता है मुसलमान कांग्रेस की करतूतों को ? क्या मुसलमान का ज़मीर पूरी तरह मर चुका है ?

मुसलमानों को आंखे खोलनी होंगी, दिमागी गुलामी से बाहर आकर सोचना होगा, और यह देखना समझना होगा कि आज तक कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बीएसपी, समेत सभी सैक्यूलर का ढोंग करने वाली पार्टियों ने आपको दिया क्या ?

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Monday, 4 December 2023

 


2004-05 के कर्मो का सज़ा भुगत रही है कांग्रेस -इमरान नियाज़ी



1948 से 2014 के बीच लगातार 59 साल 07 दिन तक देश की सरकारों पर कब्ज़ा जमाये रखने वाली कांग्रेस। 1048 से ही मुसलमानों के बल बूते सरकारों में कांग्रेस का कब्जा जमा रहा। लेकिन कांग्रेस ने मुसलमानों को सिर्फ और सिर्फ धोका ही दिया। 1947 से ही देश का मुसलमान कांग्रेस का पटटा पहनकर पालतू बना रहा। 1948 से 1978 तक कांग्रेस ने अपने पालतुओं को सिर्फ दरी बिछवाने और नारे लगवाने के काम में लिया। कभी सरकार में हिस्सेदारी देने या सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन देने की भूल नहीं की। 1948 से कांग्रेस ने कई रेजीमेन्ट का गठन किया, लेकिन भूलकर भी मुस्लिम रेजीमेन्ट जैसी इकाई का गठन नहीं किया। 70 के दशक में इन्दिरा गांधी ने मुसलमानों की आबादी कन्ट्रौल करने के लिए जबरन नसबन्दी का खेल शुरू किया। इसके जवाब में 1978 के आम चुनाव में खुद इन्दिरा गांधी की जमानत भी ज़ब्त हो गई। इन्दिरा गांधी ने घड़ियाली आंसू बहाये और बरेली के एक दाढ़ी वाले को एमएलसी की कुर्सी और मोटी रक़म के बदल कांग्रेस का पटटा पहनाकर मुस्लिम को बड़गलाने के काम पर लगा दिया, साथ ही खुद भी मुसलमानों के सामने घड़ियाली आंसू बहाये। अमन पसन्द कौम ने इन्दिरा गांधी पर एक बार फिर यकीन कर लिया और इन्दिरा गांधी को वापिस सत्ता तक पहुंचा दिया। सत्ता में वापिस आते ही कांग्रेस ने भस्मासुर बनने में वक्त नहीं लगाया और 1980 में यूपी के मुरादाबाद में पीएसी /पुलिस के हाथों मुसलमानों का ना सिर्फ कत्लेआम कराया बल्कि मुसलमानों के घरों को और आबरूओं तक को लुटवाया। इन्दिरा गांधी के कत्ल के बाद राजीव गांधी को कब्जा मिलते ही राजीव गांधी ने बाबरी मस्जिद में मूर्ती रखवाई पुजा शुरू करादी। नतीजा यह कि राजीव गांधी को भी सड़क पर पहुंचा दिया। इस दौरान राजीव गांधी की दर्दनाक मोत के चलते एक बार फिर मुसलमानों को कांग्रेस पर दया आ गई और लगभग 15 साल बाइ 2004 में एक बार फिर कांग्रेस को सत्ता में पहुंचा दिया, मुसलमानों को लगा कि पन्द्रह साल तक बेरोज़गार फिरने से शायद सोनिया राहुल प्रियंका में कुछ सुधार आया होगा। लेकिन यह मुसलमानों की सबसे बड़ी भूल थी। लेकिन इस बार सोनिया गांधी के रिमाट से चलने वाली कांग्रेस सरकार ने अहसान फरामोशी की सारी हदें तोड़ दी। गुजरात आतंक से गदगद हुई कांग्रेस ने सरकार में पहुंचते ही एक साल के अन्दर ही गुजरात आतंक के मास्टर माइण्ड को ना सिर्फ सम्मानित किया पुरूस्कार दिये बल्कि ‘‘नानावटी आयोग’’ की रिपोर्ट को ही दफना दिया।

यह और बात है कि कुछ मुर्दा ज़मीर मुसलमान आज भी राहुल के ही उपासक बने हुए हैं, लेकिन इनकी हेसियत नहीं कि राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनवा सकें। क्योंकि बेकसूरों का खून रंग तो लाता ही रहेगा।

Tuesday, 18 July 2023

पूरी तरह प्री प्लान्टेड है ‘‘सीमा सचिन तमाशे की स्क्रिप्ट’’ - इमरान नियाज़ी



 

देश की पालतू मीडिया के साथ ही मोबाइल मीडिया भी पाकिस्तानी बताई जा रही सीमा नामक महिला और उसके आशिक की प्रेम गाथा में लीन नज़र आ रही है। इन नफरत जिहादियों की गुलाटियां मारने की दो खास वजह हैं। पहली यह कि महिला को मुसलमान बताया जाना और दूसरा पाकिस्तानी बताया जाना,। नफरत जिहादियों का मानसिक सन्तुलन बिगड़ने के लिए इतना ही काफी है। तमाम पालतू चैनलों पर मुजरे शुरू हो गये। सब इस तरह से उसकी वीर गाथा सुनाकर देश को किसी दलदल में ढकेलने की कोशिश की जा रही है कि मानो वह अपने परिवार देश से गददारी करके भाग कर नहीं आई बल्कि वीरता का कोई बड़ा एवार्ड जीत कर लाई हो। हमे शक ही नहीं बल्कि यक़ीन है कि ‘‘यह सब ड्रामा रचा जा रहा है 2024 लोकसभा चुनाव सिर पर है। यह बात हम इस लिए कह रहे हैं कि ‘‘यह महिला खास तौर से पाकिस्तान के खिलाफ बोलने के साथ ही यह भी बोल रही है कि उसे पाकिस्तान से धमकियां मिल रही हैं। 

दरअसल सारा मामला अच्छे से सोच समझकर तैयार किया गया लगता है। हो सकता है 2024 लोकसभा चुनावों की बुनियाद रखी गई हो। हमारा यह शक इसलिए मजबूती पर है कि क्योकि पालतू मीडिया यानी अफवाह जिहादियों के गैंग ने अपना काम शुरू कर दिया है। पालतू मीडिया का नफरत जिहादी गैंग पुरी ताकत के साथ इस भगोड़ी महिला के नाम के सहारे देश के हिन्दू समाज को भड़काने में लगा गया है। देश को बताया जा रहा है कि सीमा की वजह से पाकिस्तान में मन्दिारों पर हमले किये जा रहे है। दरअसल  अफवाह जिहादियों का ये गेंग ना सिर्फ पुलिस की आईटी सेल का पालतू है बल्कि प्रेस कौंसिल का भी पालतू है। अफवाह जिहादियों की इस अफवाह को देख कर हमने इन्टरनेट खंगाला। तब पाया कि अगस्त 2021 के बाद से आजतक पाकिस्तान में इस तरह की कोई घटना नहीं घटी।

महिला जो स्क्रिप्टेड कहानी सुना रही है वो किसी भी तरह गले नहीं ऊतर रही। महिला कहानी में कहती है कि ‘‘वह चार बच्चों के साथ पहले पाकिस्तान से शारजाह गई फिर शारजाह से नेपाल पहुंची, फिर नेपाल से भारत में घुस आई।’’ हालांकि यह बच्चों को अपना बता रही है, कोई गारन्टी नहीं कि बच्चे इसी के हैं। 

यह अपना नाम ‘‘सीमा हैदर’’ और उम्र 27 साल बता रही है। सिर्फ पांचवी पास बता रही है, लेकिन फर्राटे के साथ इंग्लिश और हिन्दी बोल रही है। इसको कम्पूटर की भी खासी जानकारी है। इसकी बात चीत में बिलकुल भी पाकिस्तानी अंदाज़ नहीं आता। अजीब बात है कि जहां पली बड़ी, आधी उम्र गुज़ारी वहां की भाषा और अन्दाज़ अचानक ही कैसे बदल गया ? सबसे चैंकाने वाली बात यह है कि ‘‘ जो महिला पाकिस्तान के मुस्लिम परिवार में जन्मी, पली बड़ी, उम्र के 27 साल वहीं गुज़ारे और आज उसे ना इस्लाम का कलमा याद है और ना ही नमाज़ों की गिनती याद है’’। क्या यह बात किसी को हजम हो सकती है जबकि नमाज़ों की गिनती, कलमा तो आज के दौर में गैर मुस्लिमों तक को याद हो चुका है। यह कह रही है कि इसके परिवार की माली हालत खस्ता था। चार चार मोबाइल फोन होने के सवाल पर यह कहती है कि तीन मोबाइल बच्चों के हैं। इश्क बाज़ी करना और हर रोज़ नये आशिक पकड़ना इसका शौक है यानी सचिन नामक व्यक्ति पहला शिकार नहीं है इससे पहले भी शिकार बनने वालों में अभी तक 6 नाम सामने आ चुके हैं।

इसके पास फर्ज़ी आईडी, पांच पासपोर्ट हैं। चार मोबाईल फोन हैं। कई सिम कार्ड हैं। इसका एक भाई पाकिस्तानी आर्मी में है।

अब सवाल ये पैदा होते हैं कि ‘‘यह चारों बच्चों के साथ घर से भागी, तब इसके परिवार ने गुमशुदगी दर्ज कराई होगी। चार बच्चों के साथ किसी महिला के गायब होने पर किसी भी देश की पुलिस में हड़कम्प मचना लाज़मी है। पाकिस्तान पुलिस में भी उथल पुथल हुई होगी। उसके परिवार ने पुलिस और मीडिया को ये भी बताया होगा, कि महिला और बच्चों के पासपोर्ट (अगर होंगे तो) लेकर गई है। पासपोर्ट के साथ भागने की खबर पर पुलिस ने सभी एम्बेसियों से सम्पर्क किया होगा। शारजाह गई तो वीज़ा लिया होगा। एम्बेसी ने पुलिस को बता ही दिया होगा कि शारजाह गई है। ऐसी हालात में किसी भी देश की पुलिस तत्काल उस देश से सम्पर्क करती है, तो पाकिस्तान पुलिस ने भी शारजाह सरकार से सम्पर्क जरूर किया होगा। क्योंकि बात सिर्फ भगोड़ी महिला तक की नहीं चार बच्चों की है। शारजाह पहुंचने पर कस्टम टीम ने इसके सामान की तलाशी भी गई होगी, तब फर्ज़ी आईडी, पांच पासपार्ट, कई सिम कार्ड, देखकर शारजाह पुलिस कैसे अनदेखा कर सकती है। साथ ही ऐसा तो सग्भव ही नहीं कि शारजाह एअरपोर्ट पर एक हवाई जहाज़ से ऊतर कर नेपाल जाने वाले जहाज़ में सवार हो गई होगी,। ज़ाहिर है हफता दस दिन शारजाह में रही होगी।

इसपर सवाल यह भी शाहजाह सरकार ने उसे हिरासत में लेकर वापिस क्यों नहीं भेजा ? जबकि शारजाह और पाकिस्तान के सम्बन्ध भी काफी बेहतर हैं।

नेपाल से भी वीज़ा लिया होगा। नेपाल पैदल तो पहुंची नहीं, जहाज से गई होगी। क्या बिना वीज़ा ही नेपाल पहुंची ? नेपाल पहुंची तो नेपाल एअरपोर्ट पर उसके पास पांच पासपोर्ट, कई सारे सिम कार्ड, आदि देखकर नेपाल कस्टम और पुलिस उसे हिरासत में क्यों नहीं लिया गया ? नेपाल के रास्ते भारत में घुसी, कई महीने से नोयडा में रह रही है। यहां सबसे अहम पहलू यह है कि ‘‘इसके मामले भारत की खुफिया एजेंसियां का भनक कैसे नहीं लगी। महीनों बाद पुलिस ने उसका दरवाज़ा खटखटाया और दो दिन दावत खिलाकर बिदा कर दिया। वह खुद बता रही है कि जेल स्टाफ और पुलिस बहुत अच्छी है, बहुत ध्यान रखा उसका। अवैध तरीक़े से देश में घुसकर महीनों से रहने वाली घुसपैठिया को इतनी आसानी और जल्दी ज़मानत केसे मिली ? जककि उसके पास से फर्ज़ी आईडी, पांच पासपोर्ट, आधा दर्जन सिम कार्ड, चार मोबाइल के साथ और भी बहुत कुछ बरामद हुआ तो उसको दो दिन में ही ज़मानत कैसे दी गई ? उसकी ज़मानत लेने वालों से कड़ी पूछताछ क्यों नहीं की गई ? इसकी वकालत करने वकील भी खड़े हो गये जबकि बहुत से मामलों में पूरी बार कौंसिल को हाथ खड़े करते देखा गया है।’’

जबकि हज़ारों पाकिस्तानियों को सालों साल जेल में ही सड़ाने के साथ ही उनको बुरी तरह टाॅर्चर भी किया जाता है, ‘‘गौर तलब बात यह है कि आखिर इसपर इतनी महरबानी क्यों ?’’

यहां याद दिलाते चलें कि लगभग बीस साल पहले भारत सरकार ने उन दर्जनों पाकिस्तानी महिलाओं को देश से निकाला था, जो पिछले 25 - 30 साल से यहां शादियां करके सकुन से रह रही थीं उनके कई कई बच्चे थे, उन्हें उनके नन्हें नन्हें बच्चों को भी छोड़कर जाने पर मजबूर किया गया था। दूसरा तरफ 2004 -05 के दौरान लगभग 130 पाकिस्तानी घुसपैठिये गुजरात आए, उन्हें हिरासत में लेने निकाले जाने की बजाए आजतक सरकारी दामाद की तरह पाला जा रहा है, इन घुसपैठियों में पाकिस्तान सरकार का एक मंत्री भी था। ठीक वही मामला इस महिला के साथ भी किया जा रहा है। इसे भी सरकारी मेहमान बनाकर रखा जा रहा है। ताज़ा मामला ही देखें कि गुज़रे हफ्ते ही यूपी के बरेली के कस्बा आंवला के पेन्टर तौहीद की गेम ओर सोशल मीडिया के जरिये पाकिस्तानी युवक से दोस्ती हुई। ये लोग दोस्ती के नाते अकसर बातचीत कर लेते। मुस्लिम निगरानी सेल यानी सरकारी आईटी सेल को हज़म नहीं हुई जुलाई के शुरू में ही एनआईए ने ताहीद के घर छापा माराकर उसे हिरासत में लिया माबाईल जब्त किया तलाशी ली, बेंक अकाउन्ट खंगाले जाने लगे ओर आजतक यही सब चल रहा है। जबकि तथाकथित सचिन पिछले तीन साल से लगातार रोजाना कई कई बार घण्टों तक इस महिला से चिपका रहता था तब आईटी सेल को दिक्कत क्यों नहीं हुई ?

आप इस बात को सेव करके रख लीजिये कि अभी कुछ दिनों तक सीमा के नाम के मुजरे किये जाते रहेंगे। 2024 शुरू होते ही इस महिला का पर्दा फाश किया जायेगा। तरह तरह के आरोप लगाये जायेंगे फिर नफरत जिकादियों को काम पर लगाकर मुसलमान पाकिस्तान के खिलाफ हिन्दू समाज को भड़काकर 2024 चुनाव पर हाथ साफ किया जायेगा।


Saturday, 1 July 2023

‘‘हमारी क़ौम तो मुर्दा है एक ज़माने से, जो मर चुका है वो दोबारा मर नहीं सकता।’’ - इमरान नियाज़ी

 


‘‘फ़ुज़ूल आप पे इल्ज़ामे क़त्ल है  साहिब, मरे हुवों को कोई क़त्ल कर नहीं सकता।’’

‘‘हमारी क़ौम तो मुर्दा है एक ज़माने से, जो मर चुका है वो दोबारा मर नहीं सकता।’’


आज से लगभग तीस साल पहले लखनऊ यूनीवर्सिटी के मुशायरे में मशहूर शायर ‘‘मन्ज़र भोपाली’’ के पढ़े हुए ये शेर आज सौ फीसदी नक्शा हैं आज के उन लोगों के हालत का जो खुद को मुसलमान कहते फिरते है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि ये हकीकत काफी लोगों को बुरी लगेगी, कुछेक दुश्मन बन जायेंगे, लेकिन वक्त और हालात का तक़ाज़ा है कि ‘‘मुरदा बन चुकी क़ौम को आइना दिखाया जाए। दरअसल सच्चाई ये है कि मेरी क़ौम भैंसा खाती है तो उसकी खोपड़ी भी भैंसे की ही हो चुकी हैं। और इसी भैंसा खोपड़ी ने पूरी क़ौम को मुरदार बना दिया है। साथ ही साथ दुनिया की दूसरी बड़ी क़ौम को हिजड़ा बनाने में मुल्लाओं ओर मियाओं का बहुत बड़ा हाथ है। इन मुल्लाओं ओर मियाओं ने क़ौम को शिया और सुन्नी में बांटा। फिर बरेलवी, सुन्नी ग्रुप को वहाबी, देवबन्दी, अहले हदीस नाम के टुकड़ों में बांटा। इतने से भी इनको सकून नहीं मिला तब इन्होंने सकलैनी, मदारी, चिश्ती, नियाज़ी वगैराह को अलग कर दिया। कुल मिलाकर अपनी दुकाने चलाने और मालामाल बने रहने के साथ ही साथ भरपूर दबदबा बनाने के लिए दुनिया की दूसरी बड़ी कौम के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। मशहूर शायर हाशिम फिरोज़ाबादी ने सच ही कहा था, कि 

‘‘सैकड़ों खुदा हैं जिनके वो एक जगह खड़े हैं’’  

‘‘एक  खुदा  वाले  सारे  बिखरे  हुए  पड़े हैं’’ 

मुल्ला और मियां तो अपने ऐश के लिए क़ौम की बलि दे रहे हैं, इन मुल्लाओं और मियांओं ने क़ौम का इस हद तक ब्रेन वाॅश कर दिया है कि क़ौम अपना अच्छा बुरा खुद सोचने समझने की सलाहियत पूरी तरह खो चुकी है। 35 करोड़ से ज़्यादा आबादी वाली कौम का ना तो अपना कोई खबरया चैनल है और ना ही मेन स्ट्रीम में कोई अखबार। और जो कुछ वीकली या पन्द्रह रोज़ा अखबार, पोर्टल वगैराह हैं तो उनमें 99 फीसदी तो दलाली करके कमाई में लगे हैं। इक्का दुक्का अखबार, पोर्टल हिम्मत करके क़ौम के मुद्दों को उठाते हैं तो क़ौम इनको सपोर्ट नहीं करती। कौम के व्यापारी, नेता, मुल्ला, मियां, विज्ञापन आरएसएस लाॅबी के अखबारों को देते हैं। मुस्लिम अखबारों को विज्ञापन नहीं देते, क्योंकि इन छोटे अखबारों में इनकी रंग बिरंगी फोटो नहीं छपती। जब जब मामला इस्लाम का होता है, तब ना कोई मुल्ला मुंह खोलने की जुर्रत करता है ना कोई मियां ही दम भरता है। हां अगर अपने खानदान या खुद की किसी कारगुज़ारी पर उंगली उठती है, तब ये लोग अपने गुर्गो को उंगली उठाने वाले के घरों पर हमले मारपीट तोड़फोड़ कराने में देर नहीं करते। हद तो ये है कि इनके अपने परिवार के खिलाफ मुंह खोलने वाले पर फौरन फतवे लगाकर उसके खिलाफ समाज को भड़काने में देरी नहीं की जाती लेकिन जिन मामलों में फतवे लगाना ज़रूरी होता हे वहां सांप सूंघा रहता है। हर रोज़ उर्स चादर जलसों मदरसों के नाम पर क़ौम के पैसे को हड़पना ही इनका पेशा है। कभी किसी मुल्ला या मियां ने कोशिश नहीं की कि कब्रों पर पचासों करोड़ कीमत के पत्थर लगाने से बेहतर है कि क़ौम के बच्चों के लिए अच्छे स्कूल कालेज खोलें कौम के बच्चों को आईएएस, आईपीएस, डाक्टर, इंजीनियर, वकील बनाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि स्कूल कालेज जहालत को मिटा देंगे और जहालत खत्म होगी तो मियांओं मुल्लाओं के परिवारों को मस्ती, ऐशों आराम करने के लिए मिलने वाले माल में रूकावट आ जायेगी।

अब सवाल ये पैदा होता है कि मुल्ला या मियां तो अपनी दुकाने चलाने ओर क़ौम के माल पर ऐश करने के लिए सब करते हैं लेकिन इतनी बड़ी कौम जहालत की दलदल से क्यों बाहर नहीं आना चाहती। मान लिया कि बीस साल पहले तक पढ़ाई लिखाई कम थी इसलिए किसी की समझमें में इनकी करतूतें नहीं आती थीं, लेकिन अब तो पढ़े लिखे तबक़े की बड़ी तादाद बनकर खड़ी हो चुकी है, फिर भी क़ौम अपने हालात को बदलना नहीं चाहती। काफ़ी तादाद में लोग पढ़ लिखकर डाक्टर, इंजीनियर, वकील बन गये, लेकिन इनसे क़ौम को कोई फ़ायदा पहुंचने की बजाए ये सिर्फ और सिर्फ अपने भले में लगे हैं, ये लोग अपनी दुकानों के नाम मज़हबी रखकर क़ौम को ही नोचने में लगे दिखते हैं। इनका मक़सद सिर्फ माल कमाना ही होता है। जबकि दूसरी तरफ़ नज़र डालिये, खुले आम धर्मवाद फैलाते मिलते हैं, चाहे वे डाक्टर हों या वकील, जमकर धर्मवाद फैला रहे हैं। लेकिन हमारे वाले खुद कुछ करने की जगह उलटे दूसरों के हौसले भी कुचलने में लग जाते हैं। डाक्टर, इंजीनियर को छोड़िये, कम से कम वकील तो होते ही हैं कानून के जानकार, कभी किसी मामले में क़ौम के लिए नहीं खड़े होते। देश में एक दो बड़े मामले ऐसे भी हुए जिनमें मुस्लिम समझे जाने वाले वकीलों ने आरएसएस के वकीलों का साथ दिया, खुलेआम बेइंसाफी का नंगा नाच देखा, इनकी जुर्रत नहीं हुई कि इंसाफ कीे लिए कानूनी लड़ाई लड़ें। यही हालात मुस्लिम नाम वाले डाक्टरों के भी है। डा0 कफील पर हुए जुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के नाम पर मुस्लिम नामों वाले डाक्टरों को सांप सूंघ गया, लेकिन आरएसएस की मेडीकल ब्रांच यानी आईएमए के हर तमाशे में ये आगे आगे कूदते दिखते हैं। चलिये ये बात तो थी पढ़े लिखे तबक़े की बुज़दिली और फ़र्ज़ी मुसलमानियत। अब बात करते हैं, उन लोगों की जो बड़ी ही शान से पत्रकार बनकर घूमते हैं। ये फौज तो क़ौम के सिर पर सिर्फ एक बोझ के सिवा कुछ नहीं। केवल उगाही तक ही है इनकी पत्रकारिता। सबसे बड़ी बात तो यह हे कि मुस्लिम नामों वाले स्वंयभू पत्रकारों की ये फौज भी मीडिया के चोले में छिपे दलालों और पालतुओं की ही राह पर चलती दिखती है। इनकी भी बड़ी मजबूरी है, मजबूरी ये है कि बेचारे आठवीं के बाद कभी स्कूल गये नहीं, लिख पढ़ नहीं सकते, तो हालात की जानकारी नहीं रख सकते। अफग़ानिस्तान लुटा मुसलमान मस्त रहा, गुजरात में मुसलमानों पर आतंक बरपाया गया मुसलमान अपनी मस्ती में मस्त रहा, कश्मीर, सीरिया, इराक, फिलिस्तीन में लगातार क़ौम को मिटाने की कोशिशें की जा रही हैं, मुसलमान को उर्स, चादर, जलसो,ं मज़ारों से फुर्सत नहीं। इतना ही नहीं बल्कि इस्लाम को मिटाने और मुस्लिम औरतों को इस्लामी कायदे क़ानून के खिलाफ़ खड़ा करने की साजिश के तहत कुछ पालतू चैनलों पर इस तरह के सीरियल दिन भर दिखाये जा रहे हैं। किसी मुसलमान ने ना विरोघ किया और ना ही अपने घरों में इन आतंकी चैनलों के चलाने पर रोक लगाई। हद तो ये है कि सीएए मामले में रिलायंस/जियों की मालिक नीता अम्बानी ने खुलकर ज़हरीली उल्टियां की, करोड़ों की तादाद में जियो सिम चलाने वाली जाहिल क़ौम में सिर्फ चार पांच ने ही जियो का बहिष्कार किया बाकी करोड़ों ज्यों के त्यों मस्त हैं। ‘‘आजतक, जी न्यूज़, एबीपी जैसे नफरती चैनलों में सैकड़ो की तादाद में मुस्लिम ग़ुलाम हैं किसी ने अपने ज़मीर को नहीं जगाया। ‘‘ज़ी’’ का इंटरटेंमेंन्ट चैनल मुस्लिम औरतों में इस्लाम के खिलाफ खुलकर ज़हर भर रहा है किसी को हरारत नहीं आई। अब अगर बात करें जन्नत के ठेकेदारों की तो ये फिल्म अदाकारों, नेकर पहनकर मज़दूरी करने वाले ग़रीबों पर, इनके परिवारों की किसी हरकत के खिलाफ़ मुंह खोलने वालों के खिलाफ़ फतवे लगाने में देरी नहीं करते लेकिन अपने खून से बन्दे मातरम लिखने, आसिफ़ा ओर बिलकीस के गुनाहगारों, नबी के खताकारों के मुस्लिम नाम वाले मददगारों के खिलाफ़ फतवे देने की हिम्मत नहीं है।

खुद अपनी बुज़दिली, जहालत, मुफत खोरी की वजह से क़ौम के गिरते हुए हालात का इलज़ाम आरएसएस/बीजेपी समेत दूसरे दुश्मनों पर थोपे जाते हैं। जब तुम खुद ही मुर्दा बन चुके हो तो अपने कुचले जाने का इलज़ाम किसी पर मत थोपो।

Thursday, 8 June 2023

पत्रकार कहलाने या पत्रकार बनकर फिरने और पत्रकार होने में ज़मीन आसमान का फ़र्क होता है - इमरान नियाज़ी





पत्रकार शब्द का अर्थ क्या है ? पत्रकारिता क्या होती है ? किसी पत्रकार कहा या माना जाता है ? क्या कैमरे या माईक आईडी लेकर घूमने वाला हर शख्स पत्रकार होता है ? ऐसे ही कई बड़े सवाल हैं जिनका जवाब शायद कुकुरमुतों की तरह गली गली दिखने वाले मोबाईल मेडेड स्वंयभू पत्रकारों ने सुने तक नहीं होंगे। आईये सबसे पहले बात करते हैं कैमरे और माइक लेकर खबरें कवर करने वालों की। क्या ये पत्रकार हैं ? जी नहीं, ये पत्रकार नहीं बल्कि रिपोर्टर या संवाददाता होते हैं। संवाददाता और पत्रकार में बहुत बड़ा फर्क होता है। आईये एक पत्रकार से आपको मिलवाते हैं। 1973-74 के दौरान उ0प्र0 के मुज़फ्फ़रनगर में ‘‘भ्रष्ट लोगों की दुनिया’’ नाम से एक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित होता था। इसके प्रकाशक ओर सम्पादक थे ‘‘राजपाल सिंह राणा’’, सिर्फ दो पेज का यह अखबार भ्रष्टाचारियों के लिए ही नहीं बल्कि सूबाई और केन्द्र सरकार के सिरों पर मण्डराता एक खतरा था। आदरणीय ‘‘राणा’’ जी मेरे पिता जी के परम मित्र थे। 6 फिट से ज्यादा लम्बी और सुडौल कठकाटी वाले इस शख्स का ऐसा मान सम्मान था कि किसी सांसद मंत्री का नहीं था। राणा जी जिस सरकारी आफिस में क़दम रखते तो उस आफिस में सन्नाटा छा जाता था। क्योंकि वे असल, निष्पक्ष, और ईमानदार पत्रकार थे। हम यह नहीं कह रहे कि आज निष्पक्ष या ईमानदार पत्रकार नहीं हैं। हैं, लेकिन पूरे देश में 10-15 ही होंगे। बाकी तो मेन स्ट्रीम से मोबाइल मेडेड तक पालतू और दलालों की भीड़ ही रह गई है। आज वे पत्रकार बने फिरते मिल रहे हैं जिन्होंने ज़्यादा से ज़्यादा आठवीं या दसवीं तक ही स्कुल देखे, उसके बाद कुछ काम धंधे में लगने की कोशिश की। लेकिन आज के पढ़े लिखे दौर में आठवीं दसवीं तक पढ़ा वह व्यक्ति जिसे हिन्दी तक सही से लिखना या बोलना नहीं आती वह डिजिटल दौर में कुछ कर नही सके, तो सबसे आसान और सस्ते में शुरू हो जाने वाली मीडिया की लाईन पकड़कर घर चलाने में लग जाते हैं। और बड़ी ही दबंगई के साथ खुद को पत्रकार कहने लगते हैं। ऐसा भी नहीं कि ऐसे सब ही महामुनि अपने ही बल पर कूदते हों, बल्कि इनमें बड़ी तादाद पाक्षिक, साप्ताहिक समाचार पत्र चलाने वालों की भी ह,ै जिनके लिए अखबार सिर्फ़ कमाई का ज़रिया भर है, इनके अलावा कुछेक ने दस पन्द्रह हज़ार रूपये खर्च करके वेबसाईटें बनवाकर कमाई शुरू करदी है, और कहलाने लगे ‘‘सम्पादक जी’’, 15 सौ से चार हज़ार रूपये के दामों पर बेचने लगे परिचय पत्र (प्रेस कार्ड)। दरअसल एण्ड्रायड फोन के अविष्कारक ने शायद कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ‘‘वह जो स्मार्ट मोबाइल लोगों को आपस में जुड़े रहने के लिए बना रहा है, वो पत्रकार बनाने की मशीन है। इसी मशीन का कमाल यह हुआ कि जो काम लोग 10-15 साल में पूरी तरह नहीं सीख सके वह काम यह मशीन सिर्फ कुछ ही मिनटों में कर देगी, यानी हम जैसे बेवकूफ लोग 25-30 साल में भी पूरी तरह से पत्रकार नहीं बन सके, और मोबाइल ने चन्द दिनों में ही पत्रकारों की बाढ़ लाकर रख दी। इस बाढ़ ने पत्रकारिता के नाम को ही कलंकित कर दिया। मेन स्ट्रीम का तो पहले ही दलाली करण हो चुका है। पूरी की पूरी फौज आज पालतू बन चुकी है, इसलिए इस पालतू फौज से सच्ची पत्रकारिता की उम्मीद करना ही बेकार है, ये पालतू फौज सिर्फ सरकार की दलाली और इस्लाम, मुसलमान, मस्जिद, मदरसों के खिलाफ़ नफरती माहौल तैयार करने के काम पर लगी है। कम से कम यह तो सकून है कि पालतू मीडिया के गुर्गे हर वक्त गली गली नहीं फिरते मिलते और ना ही सौ सौ रूपये की उगाहियां करते दिखते। 

फिलहाल हम बात करते हैं मोबाइल मेडेड स्वंयभू महामुनियों की। जिनका पूरा मीडिया हाऊस उनकी जेब में रहता है और पूरी टीम खुद उनमें ही निहित है। ना किसी घटना स्थल पर जाने की आवश्यक्ता ना खबरें कवर करने की भागम भाग। आराम से घर में लेट, बैठकर ‘‘सबसे पहले, सटीक और सच्ची खबर’’ पेलते रहते हैं। बैठे यूपी के किसी गांव में होते हैं, और सटीक व सच्ची खबर बताते हैं कश्मीर, पंजाब, बंगलादेश, पाकिस्तान की। यहां यह बतादें कि ये वरिष्ठ, योग्य, अनुभवी और सच्चे स्वंयभू पत्रकार देसी या विदेशी किसी भी न्यूज़ एजेंसी के सदस्य भी नहीं होते, फिर भी देश विदेश की सटीक सच्ची खबरें सबसे पहले इनके पास आती है। जी हां, हम उन्हीं की बात कर रहे हैं जिन्हें  हिन्दी भी सही से लिखना या बोलना नहीं आती। बात करते हैं तो ऐसा लगता है इन्टर नेशनल पत्रकार है। 

खैर, हम कहना यह चाहते हैं कि पत्रकारिता के पेशे पूरी तरह लज्जित और कलंकित किया जा चुका है। आज समाज में पत्रकार की कोई वैल्यू नहीं रह गई आप चाहे कितने ही काबिल अनुभवी या निष्पक्ष पत्रकारिता क्यों ना करते हों। लोग आपको देखते सौ दो सौ रूपये उगाही करने वालों की ही गिनती में।

वैसे तो मोदी सरकार ने सवाल पूछने वाले अखबारों को बन्द करके अपनी जान बचाई लेकिन इन मोबाइल मेडेड को अभयदान इसलिए दिया क्योंकि सरकार जानती है कि इनमें ना सवाल करने की हिम्मत है और ना ही योग्यता। बल्कि मोबाइल मेडेड स्वंयभू पत्रकारों की ये फौज सरकार की ही मक्खन मालिश में लगी है।

इन्हीं महामुनियों की हरकतों के चलते हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी सख्त रूख दिखाते हुए गम्भीर टिप्पणी की है।


Tuesday, 30 May 2023

कुकुरमुतो की तरह फैले मोबाइल मेडेड स्वंयभू पत्रकारों का सच

 

आपको याद होगा कि लगभग दस साल पहले घुमन्तु भिकारियों की टोलियां बाज़ारों में दुकानों पर मांगती थी। जब दुकानदार "चवन्नी" (25 पैसे का सिक्का) देता तब टोली का मुखिया कहता कि  "4 लोग है" - "5 लोग हैं"  मतलब टोली के  "बन्दों की गिनती बताता"  तब दुकानदार 25 पैसे प्रति बन्दे के हिसाब से दे देते।

दिन ग़ुज़रते गये। इण्डिया डिजीटल होने लगा। मज़दूरों की जगह मशीनों ने लेली। कार्बन और टाईप राईटर की जगह कम्पूटर ने लेली। जब सब का डिजीटली करण हुआ तब उन घुमन्तू भिकारियों का भी डिजीटली करण हुआ।  "मेरा भारत बदल रहा है"  की चपेट में घुमन्तुओं की टोली भी आ गई।
घुमन्तुओं की टोलियों का आधूनिकी करण होकर नाम हो गया  "पत्रकार",  जी हां पत्रकार। हम बात कर रहे हैं उन घुमन्तुओं की जो  "पत्रकार बनाने वाली मशीन"  यानी  "एण्ड्रायड फोन"  से पत्रकार बन गये हैं।
दूसरी तरफ़ घुमन्तुओं की झोली और कटोरे का आधूनिकी करण होकर "पिट्ठू बैग और माईक आई डी"  का रुप ले लिया। ये सारे महाज्ञानी वैल एजूकेटेड स्वंभू पत्रकार वे हैं जिन्हें "पत्रकार" शब्द की ना परिभाषा ही मालूम है ना ही पत्रकार शब्द का अर्थ ही पता है। योग्यता का स्तर यह है कि किसी भी घटना को  "खबरिया भाषा"  में लिख नहीं सकते। खैर - परिभाषा या अर्थ पता होना इनके लिए ज़रुरी भी नहीं है क्योंकि इन्हें घटनाओं या हालात से कोई सरोकार भी नहीं होता। इनको तो सुबह से शाम तक किसी भी तरह 500 - 1000/ रुपये कमाने होते है। 
घुमन्तू बाज़ारों में दुकानदारों से अपनी टोली की गिनती के हिसाब से मांगते थे आधुनिकिकरण होने पर ये दुकानदारों की जगह चुनावी उम्मीदवारों के दरवाज़ों पर पहुंचने लगे। घुमन्तुओं की तरह  "टोली के सदस्यों की तादाद" की जगह "आईडी की तादाद" बताई जाने लगी यानी  "सर 4 आईडी हैं - 6 आईडी हैं"। इनकी अभूतपूर्व पत्रकारिता की योग्यता को बताता है इनकी लेखनी जैसे :- ख़बर में खद्दरधारियों/अफ़सरान यहां तक कि प्रधान व सभासद प्रत्याशियों के लिए "माननीय / महोदय / जी / श्रीमान" जैसे शब्दों का प्रयोग साथ ही किसी अफ़सर या पुलिस की तैयार की हुई स्क्रिप्ट को ही सम्पूर्ण मानकर फेसबुक / WhatsApp पर दौड़ाने लगना। इन महामुनियों ने तो Twitter जैसे प्लेटफार्म को भी चैनल या अख़बार समझ लिया है।
हमारी बात लगभग सभी को बुरी लगी है लेकिन सच तो सच है।


Sunday, 28 May 2023

राजतन्त्र और सामन्तवाद की तरफ घसीटा जा रहा है देश - इमरान नियाज़ी

‘‘सुप्रीम कोर्ट के आर्डर को पलटना एक करारा तमाचा है उन जजों के मुंह पर जिन्होंने महाराज अधिराज को खुश करके न्याय शब्द का मुंह काला करते हुए मनमानी थोपी और बेकसूरों को मौत के घाट उतरवा दिया’’

दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के नाम से जाना जाने वाला भारत 2014 से लगातार राजतन्त्र की तरफ घसीटा जा रहा है। हमने 2016 में ही कहा था कि भारत से लोकतन्त्र को खत्म करके सामन्तवाद में दाखिल किये जाने की कोशिशें की जा रही हैं। उस वक्त किसी ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। लेकिन तिगड़ी अपनी कोशिशों में लगी रही और लगभग 50 फीसदी कामयाब भी हो गई। मकसद में कामयाबी के लिए तिगड़ी ने किराये के भांडों को परमानेन्टली खरीदकर वीरगाथा शुरू कराई साथ ही विदेशी मालिकों की नीति पर चलकर ‘‘फूट डालो राज करो’’ का फार्मूला अपनाया, देश को बांट दिया जिससे बगावत के हालात ही ना पैदा हो सकें। फिर नोटबन्दी, लाॅकडाऊन, खेती बिल, देश की धरोहरों का बेचा जाना, दान में मिली आक्सीजन पर अपना नाम चिपकाकर बेचा जाना, गांव से गांव को मिलाने वाले लिंक रास्तों तक पर गुलामी टैक्स वसूला जाना, विरोधियों को सरकारी शूटरों के हाथों मौत के घाट उतरवाना, संविधान को खत्म किया जाना,  अदालतों को गुलाम बनाकर रखना, वगैरा ये सब राजतन्त्र और सामन्तवाद की सीढ़ियां है जो तिगड़ी आसानी से चढ़ती चली गई।

खेती बिल को छोड़कर बाकी सभी सीढ़ियां बिना ही किसी विरोध के आसानी से इतनी सीढ़ियां चढ़ लेने से तिगड़ी के होसले बुलन्द हुए। अगर बात करें अदालत नाम के उन कमरों की जिसकी कुर्सी को भगवान की कुर्सी माना जाता है तो तिगड़ी और उसके कारिन्दों ने उन भगवानों को ही खरीदकर और डराकर जेब में डाल लिया, जिनपर लोग अटूट भरोसा करके उन्हें निष्पक्ष मानते थे। वे छोटे से बड़े भगवान तक बिककर या डरकर तिगड़ी की मंशा के मुताबिक न्याय का मुंह काला करने लगे। ‘‘जिस देश में निचली अदालतें कानून और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को ठुकराकर मालिकों के इशारे पर किसी धर्म स्थल की खुदाई कराये, या उसको छीनकर एक पक्ष को देने के काम करती हो’’,

जिस देश की सुप्रीम कोर्ट ये कहते हुए किसी को मौत दे कि ‘‘आरोपी के आतंक होने या किसी आतंकी संगठन से जुड़े होने का कोई सबूत नहीं पाया गया’’, ‘‘जिस देश की सुप्रीम कोर्ट देश के सबसे बड़े कत्लेआम से जुड़े सभी मामलों को बन्द करा दे’’, ‘‘जिस देश की सबसे बड़ी अदालत 5 सौ साल के इतिहास को ही किनारे करके मनमानी थोपती हो।’’ ‘‘जिस देश में किसी गैंगस्टर के सत्तारूढ़ दल का नेता बनने उसपर चल रहे तमाम केसों को बन्द कर देती हों।’’ ‘‘जिस देश की अदालतें देश में बम धमाके करने वालों को देश की सबसे बड़ी विधायिका में बैठाने की इजाज़त देती हों।’’ उस देश में लोकतन्त्र की मोजूदगी मान लेना खुली आंखों से देखा जाने वाला सपना ही है। भारत में लोकतन्त्र से निकालकर राजतन्त्र या सामन्तवाद में दाखिल करने की कोशिशें गुज़रे नो साल से चल ही रही हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटना है। यानी अगर देश की सबसे बड़ी अदालत लोकतन्त्र के संविधान के मुताबिक सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ़ फैसला देगी तो उसको सरकार नहीं मानेगी। मतलब साफ है कि सरकार खुद को सर्वोपरि मानती है और सुपर पावर बनाये रखना चाहती है। ऐसा लगने लगा है कि सुप्रीम कोर्ट ना होकर कोई छोटा अफसर है जिसे सिर्फ सरकार की ही तरफ दारी करनी है चाहे वो संविधान की भावना और प्रावधानों के खिलाफ़ ही क्यों ना हो। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बैंच के फैसले को पलटकर सरकार ने उन जजों के मुंहों पर ज़ोर दार तमाचा जड़ा है, जो सरकार को खुश रखने के लिए बेकसूरों को मौत देने, इतिहास को मिटाने, और हज़ारों पीड़ितों को न्याय की जगह ठेंगा दिखाते रहे। हम ये बिल्कुल भी नहीं कह रहे कि सभी जजों ने किसी फायदे के लिए इंसाफ का मुंह काला किया, हो सकता है कि कुछ ने लालच में किये, तो कुछ ने खौफ़ से किये। आज उन्हीं तमाम कारगुज़ारियों का अन्जाम सबके सामने हैं। दरअसल तिगड़ी शुरू से ही देश में राजतन्त्र और सामन्तवाद लाने की कोशिशों में लगी है। इसके लिए तिगड़ी ने सबसे पहले चुनाव आयोग को जेब में डाला, फिर मेन स्ट्रीम की मीडिया को पालतू बनाया, इसके बाद जांच एजेंसियों का विलय कराया, धर्मवाद के हथियार से एक बड़ी तादाद में आम जन मानस का ब्रेनवाॅश करके उनके दिमाग़ों में भरा कि ‘‘धर्म की रक्षा इन्हीं के हाथों में है।’’ फिर धीरे धीरे अपने मिशन की तरफ बढ़ने लगी तिगड़ी। देश की धरोहरें बेची, कोई विरोध नहीं हुआ, चुपके चुपके मनमाने बिल पास किये कोई विरोध नहीं, चीन को देश में कब्ज़े कराये गये देश सोता रहा, कश्मीर हिमांचल में सेब सन्तरे आदि की खेती पर मुंह चढ़ों को कब्ज़े कराये गये इसपर भी सन्नाटा रहा, अगर बदकिस्मती से देश की खेती का 90 फीसद किसान सिख और जाट ना होते तो देश के अन्नदाताओं को भी लाला का गुलाम बना दिया गया होता। सलाम है सिखों की हिम्मत और देश प्रेम को जिन्होंने दुम सीधी करके ही मैदान छोड़ा। निचली अदालतों से सुप्रीम कोर्ट तक को इशारों पर नचा लेने से गदगद होकर तिगड़ी ने सुप्रीम कोर्ट जैसी संवैधानिक लोकतान्त्रिक संस्था को भी खत्म करने का क़दम उठा दिया, अगर मान भी लिया जाये कि राजतन्त्र और सामन्तवाद लागू करने में अभी कुछेक साल का वक़्त लग सकता है तब भी सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ क़दम उठाकर तिगड़ी ने आने वाले उन जजों की हिम्मतों और ईमानदारियों को पहले ही कुचलने की कोशिश की जो कभी सीजेआई चन्द्रचूड़ के नक्शे कदम पर चलने की कोशिश कर सकते थे। अगर तिगड़ी ने राज्यसभा के पटल से अपनी मंशा के अनुरूप पास कराकर सीधे राजतन्त्र और सामन्तवाद लागू कर दिया जायेगा।

अब सवाल ये पैदा होता है कि अगर तिगड़ी अपने मकसद में कामयाब हो जाती है तो उनका क्या होगा जो इस वक्त तिगड़ी को ही धर्म और भगवान मानकर पूजने में लगे हैं ? या उन वैल एजूकेटेड लोगों यानी आईएएस, आईपीएस और कानून के अच्छे जानकार यानी जजों का क्या होगा जो आज तिगड़ी को खुश करने के लिए संविधान, इंसाफ और देश को रौंदते दिख रहे हैं ? उन खद्दरधारियों का क्या हाल होगा जो आज तिगड़ी की हर तरह से मदद में मस्त हैं ? यहां तककि राष्ट्रपति जैसी संवैधानिक कुर्सी पर आसीन होकर भी तिगड़ी की जी हजूरी में बिना सोचे समझे दस्तखत करते रहे ? इस सवाल के जवाब में हम दावे के साथ कह सकते हैं, कि सबसे ज्यादा बुरे दिन इन्हीं लोगों पर आयेंगे, बाकी आम जनता तो 1947 से पहले भी गुलाम थी, 1947 के बाद आज तक गुलाम ही है तो भविष्य में भी रह लेगी, देश का आम आदमी तो पहले से ही मानसिक गुलाम है इसलिए उसे कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला।