Sunday, 29 December 2013

बेल पका, कौए के बाप का क्या


पेड़ पर बेल का फल पक भी जाये तो कौए बेचारे को क्या फर्क पड़ता है क्या करेगा कौआ खुश होकर, कौए बेचारे को तो कुछ मिलना है ही नहीं। बेकार ही उझले खुशी में।
जी हां आप ठीक समझे हमारा मतलब है लोकपाल पास हो गया इससे गुलाम जनता को क्या फायदा? क्यों उछल रहे हैं गुलाम जनता के लोग। जी हां जरा नजर उठाकर देखिये तो सही कितने बिल इन्हीं तरह के बहानों के साथ पास किये गये, अहसान गुलामों पर बेहिसाब लादा गया लेकिन कया आजतक किसी भी कानून में गुलाम जनता को इज्जत मिली राहत मिली या इंसाफ मिला? शायद किसी के पास ऐसा कोई सबूत हो कि जिससे यह साबित हो सके कि फलां बिल ने फलां गुलाम को इंसाफ दिया या राहत दी या फिर इज्जत सम्मान दिया। पहली बात तो यह कि भारत का पूरा का पूरा संविधान और खासतौर पर फौजदारी से सम्बन्धित सभी प्रावधान ब्रिटिश रूल ही हैं कोई बदलाव नहीं आया 15 अगस्त 1947 से पहले और बाद के नियमों में सुरक्षा बलों को अनावश्यक अधिकार और छूट दिया जाना यह बताता है कि देश वासी आज भी ज्यों के त्यों गुलाम ही हैं। कानून की सभी सख्तियां सिर्फ गुलामों पर ही लागू होती है वर्दी पर कोई कानून नहीं लागू नहीं होता। अगर बात करें लोकपाल जैसे बिल की तो देखिये लोकायुक्त बैठाया गया, बड़ी वावैला की गयी गुलामों को यह राहत मिलेगी वो इंसाफ मिलेगा......., मिला क्या ? लोकायुक्त से किसी भी मामले की शिकायत करने का रास्ता ही इतना कठिन और टेढ़ा मेढ़ा बनाया गया कि गुलाम की कराहट लोकायुक्त नामक चीज के पास पहुंचती ही नहीं। सब ही जानते हैं कि देश की गुलाम जनता ज्यादा तर पुलिसिया जुल्म की शिकार बनाई जाती है ओर लोकायुक्त पुलिसिया जुल्म के खिलाफ शिकायतें सुनना पसन्द नहीं करते या यह कहिये कि लोकायुक्त को पुलिस के खिलाफ शिकायत सुनने का अधिकार नहीं हैं। दूसरी बात लोकायुक्त को शिकायत देने की प्रक्रिया इतनी कठिन है कि गुलाम जनता का कोई भी भुक्तभोगी अपना दर्द लोकायुक्त को बता ही नहीं सकता।
2005 में बेशुमार ढोल ताशों के साथ जन सूचना अधिकार अधिनियम लाया गया। गुलाम जनता पर एहसानों के पहाड़ लादे गये हर खददरधारी के मुंह पर एक ही नारा सुनाई पड़ रहा था जनता को अधिकार दिया गया अब जनता कोई भी जानकारी हासिल कर सकेगी वगैरा वगैरा....... जनता (गुलामों) को वास्तविक अधिकार मिला क्या? 2005 से आजतक एक भी मामला ऐसा नहीं सुनने में आया जिसमें किसी गुलाम द्वारा चाही गयी जानकारी दी गयी हो, अगर दी गयी तो सही ओर पूरी नहीं दी गयी। इस अधिनियम के अनुपालन की निगरानी करने के लिए राज्य स्तर पर आयोगों के गठन किये गये, क्या इन आयोगों ने पूरी तरह से गुलामों की मदद की? गुलाम जनता को जानकारी दिलाना तो दूर की बात है यहां तो आयोग खुद ही सूचनाये नहीं देते मिसाल के तोर पर तीन साल पहले उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग से अपनी ही एक अपील की बाबत सूचनाये मांगी गयी जोकि आजतक नहीं दी गयी। आयोग को जो अपील दी जाती है तो आयोग सूचनायें ने देने वाले अधिकारी, कार्यालय को बचाने के लिए अपील सुनवाई की तिथि के दिन ही वह भी कार्य समय बीतने के बाद (दोपहर बाद) अपील कर्ता को सूचित करते हैं जाहिर है कि सुनवाई के समय आयेग में पहुंच ही नहीं सकता और आयोग को अपील खारिज करने का बहाना हाथ लग जाता है (ऐसा मेरी दर्जनों अपीलों पर किया जाता रहा है) जन सूचना अधिकार अधिनियम 2005 का लगभग इसी तरह से पूरे देश में दीवाला निकाला जा रहा है। लेकिन खददरधारियों खासतौर पर कांग्रेसी इस अधिनियम को लेकर अपनी पीठ थपथपाते नहीं थक रहे, राहुल को कोई दूसरी बात ही नहीं होती बस गुलामों पर सूचना अधिकार को एहसान लादने के अलावा। इसी तरह देश के मुख्य मार्गो को सुधारने का ड्रामा हुआ, सुधरने लगे रोड लेकिन इन सुधारों से जयादा कीमत पर गुलामों को लूटा जाने लगा, हर 30-40 किलोमीटर के फासले पर रंगदारी वसूली सैन्टर खोल दिये गये, यानी अब गुलामों को अपने ही देश में आने जाने पर भी सरकार के पालतुओं को रंग दारी देना पड़ती है। हाईवे पर सरकारी रंगदारी वसूलने की हद तो यह है कि गुलामों को अपने ही जिले में आने जाने पर रंगदारी देनी पड़ रही है।
लोकायुक्त, सूचना अधिकार अधिनियम के हश्र को देखने के बाद यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि लोकपाल का हश्र इससे भी कहीं ज्यादा गया गुजरा होगा। अभी तो लोग ऐसे कूद रहे हैं कि मानों गुलामों को ही सारी पावर मिल गयी हो। खददरधारी खासकर कांग्रेसी तो गुलामों पर एहसानों के पहाड़ लादते नहीं थक रहे, लोकपाल नामक लालीपाप को कुछ इस तरह से बताया प्रचारित किया जा रहा है मानों गुलामों को ही कुर्सी देदी। लोकपाल किसी गुलाम की सुनने के लिए नहीं है साथ ही भ्रष्टाचार की फैक्ट्रियां यानी राजनैतिक दलों को लोकपाल के दायरे से बाहर भी रखने का इन्तेजाम कर लिया गया। फिर कया करेगा लोकपाल? लोकपाल को शिकायत देने की प्रक्रिया इतनी टेढ़ी खीर है जो कि बड़े बड़े नहीं कर सकते तो गुलाम जनता की ओकात ही क्या है। दूसरी बात यह भी है कि लोकपाल सिर्फ उन्हीं मामलों में दखल देगा जिनका गुलाम जनता का कम ही वास्ता पड़ता है। लेकिन एहसान तो गुलामों पर ही है। खददरधारियों को खुश होना तो ठीक है क्योंकि खददरधारी लोकपाल के दायरे से बाहर रहेंगे। रही अन्ना हजारे की बात तो अन्ना का मकसद हल हो गया फिलहाल वीवीआईपी तो बना ही दिया गया ओर जल्दी ही कोई अच्छी मलाईदार कुर्सी भी मिल ही जायेगी, मिलना भी चाहिये उनका हक बनता है देश के संवैधानिक पदों पर जमने का, आखिर (मीडिया के अनुसार) युद्ध के मैदान से भागना सबके बसकी बात तो है नहीं सच्चा देश भक्त ही ऐसा बड़ा कदम उठा सकता है, अब्दुल हमीद जैसे नासमझ होते है जो मरना पसन्द करते हैं देश की रक्षा से भागते नहीं, तो उन्हें कोई हक नहीं पहुंचता किसी सुरक्षा या संवैधानिक पद पर बैठने का। लोकपाल की बात है। बड़ी बड़ी ढींगे मारी जा रही है कि लोकपाल ये करेगा लोकपाल वो करेगा, कुछेक का कहना है कि लोकपाल बैठने के बाद भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा वगैरा वगैरा........ सवाल यह पैदा होता है कि लोकपाल भ्रष्टाचार खत्म कर देगा या फिर खुद लोकपाल ही भ्रष्ट होकर रह जायेगा? जहां तक सवाल भ्रष्टाचार खत्म होने का है तो हम दावे के साथ कह सकते है कि कम से कम भारत जैसे देश जहां हजारों बेगुनाहों का कत्लेआम करने वाले को सम्मान व चुरूस्कार दिये जाने की प्रथा हो जहां इतने बड़े पैमाने पर आतंक मचाने वाले को अदालते निर्दोष घोषित करती हो, जहां की अदालतें यह कहते हुए किसी को भी मौत के घाट उतारती हों कि  "इसके आतंक से जुड़े होने का कोई सबूत नहीं है"। ऐसे महान देश में लोकपाल दूध का धुला बना रहे, ऐसी उम्मीद करना भी पागल पन के सिवा कुछ नहीं। लोपाल का ही छोटा रूप है लोकायुक्त, क्या हश्र बनाया गया है लोकायुक्त का सभी जानते हैं। भ्रष्टाचार खात्में की ढीगों के साथ  "सूचना अधिकार अधिनियम" लाया गया............, किस तरह से बेड़ा गर्क किया गया इस कानून का यह किसी से छिपा नहीं है। इन हालात में लोकपाल नामक लालीपाप से कोई उम्मीद कैसे की जा सकती है। कम से कम गुलाम जनता को  लोपाल की खुशी में कूदने की जरूरत ही नहीं हां खददरधारियों और अन्ना हजारे का उछलना जायज है कयोंकि खददरधारियों को एक ओर कठपुत्ली मिल गयी और अन्ना को लोकपाल नामक ब्लैंक चैक।

Tuesday, 10 December 2013

मालामाल बनें रहने के लिए कौम की कुर्बानी-इमरान नियाजी

          
पूरी दुनिया में जिस पैमाने पर आतंकी देश अमरीका और उसके चमचे देश इस्लाम को मिटाने की कोशिशों में जुटे हैं उससे भी बड़े पैमाने पर मसलक, फिरके, दरगाहों के नाम पर मुसलमानों को बांटकर अपनी अपनी दुकानें चमकाकर मालामाल बनने में लगे हैं। पहले फिरकों में मुसलमानों को बांटकर पूरी तरह से कमजोर और लाचार बना दिया गया। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी होने के बावजूद भी मुसलमान आसानी से कुचला जा रहा है कहीं आतंकवादी कहकर मार गिराया जाता है तों कहीं आतंकी देश मुस्लिम देशों के आतंकियों से सम्बन्ध होने के बहाने मुस्लिम देशों पर हमले करके लूटपाट करने से नहीं झिझकते और दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी मुंह ताकती रह जाती है। अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, पाकिस्तान इसका जीता जागता सबूत है। मुस्लिम इबादतगाहों पर दहशतगर्द हमले करके गिरा देते है मुसलमान मुंह ताकते रह जाते है शायद किसी ने सही कहा था कि :-

                      "एक शब्बीर ने लाखों से बचाया काबा
                      एक मस्जिद भी करोड़ों से बचाई न गयी"।
          बाबरी मस्जिद पर दहशतगर्दो ने हमला किया मुसलमान फिर्के वाराना अदावतें ही लिए बैठा रहा। बाद में बददुआओं के लिए मजमें लगाने के नाम पर लाखों कमाये जाने लगे। गुजरात में सरकारी व गैर सरकारी आतंकी बेगुनाह मुसलमानों का कत्लेआम करते रहे और हमारे मुल्ला सुन्नी वहाबी देवबन्दी के नाम पर मुसलमानों को बांटे रहे। बरेली के ही थाना किला क्षेत्र के मोहल्ला कटघर के कुछ युवकों ने गुजरात आतंकवाद में कत्ल किये गुये बेकसूर मुसलमानों की इसाले सवाब के लिए कुरान ख्वानी का प्रोग्राम बनाया तो भी उन्हें रोकने की कोशिशें की गयी उनसे कहा गया कि "गुजरात में कत्लेआम में बरने वाले वहाबी हैं इसलिए उनके लिए कुछ नहीं करना चाहिये।" हालांकि इन मुस्लिम नौजवानों ने इस तरह की अदावती बात पर ध्यान नहीं दिया और बादस्तूर गुजरात आतंकियों के हाथों कत्लेआम के शिकार मुसलमानों के लिए कुरान ख्वानी करते रहे, इस मौके पर 27 कुरान खत्म किये गये। रोकने वालों की इस गैर जिम्मेदाराना अदावती कोशिशों को देखकर सवाल यह पैदा होता है कि 'जब गुजरात में आतंकी बेगुनाह मुसलमानों का कत्लेआम कर रहे थे तो क्या आतंकी मुसलमानों से उनके फिरके के बारे में पूंछ रहे थे क्या सुन्नी वहाबी के बारे में जानकर मारा जा रहा था, क्या गुजरात आतंकियों ने किसी सुन्नी को बख्श दिया, क्या बाबरी मस्जिद शहीद करने वाले दहशतगर्दों ने पूछा था कि मस्जिद बहाबियों की है या सुन्नियों की, क्या अफ्गानिस्तान ईराक लीबिया या पाकिस्तान पर हमले करने वाली अमरीकी आतंकवादियों ने बमों को बता दिया था कि वहाबी पर गिरना है या सुन्नी पर, क्या अमरीकी आतंकियों ने अफ्गानिस्तान, इराक लीबिया और कुछ हद तक पाकिस्तान पर हमले के दौरान लोगों को लूटते वक्त किसी से पूछा कि तू कौन है वहाबी है या देबन्दी?' लम्बे अर्से से मुल्ला अपनी रोटियां सेंकने और मालामाल होने के लिए मुसलमानों को सुन्नी, वहाबी, देवबन्दी के नाम पर बांटते रहे, इसका खमियाजा पूरी कौम भुगत रही है किसी एक फिर्के या ग्रुप का नुकसान नहीं हुआ बल्कि दुनिया भर के तमाम मुसलमान नतीजे भुगतते रहे ओर इनको बांटने वाले मालामाल होते रहे, सरकारी कुर्सियां हथियाते रहे। लेकिन कौम की इतनी बर्बादी से मिले माल से भी मुस्लिम वोटों के इन सौदागरों के पेट नहीं भरे तो अब कुछ साल साल से दरगाहों ओर सिलसिलों के नाम पर कौम के टुकड़े करने शुरू कर दिये। कुछेक ने दूसरे तमाम सिलसिलों उनके बुजुर्गों और उन सिलसिलों की दरगाहों को मुसलमान मानना ही बन्द कर दिया, एक गिरोह ऐसा भी पैदा हो गया है जो खुद अपने ग्रुप के अलावा सभी को गलत ठहराने के काम में लगा हुआ है इसके लिए हजारों की तादाद में दलाल भी छोड़े जा रहे हैं जो गली मुहल्लों में जाकर रहते हैं लोगों की रोटियों पर जीते हैं और कमअक्ल लोगों को बड़गलाते हैं। 
अब सियासी और सामाजिक मोड़ पर भी अदावतें उजागर करना आम बात हो गयी है। एक नेता अगर सियासी कदम उठाते हुए सभी दरगाहों पर हाजिरी देने चला जाता है तो बाकी की दरगाहों से जुड़े लोगों को चुभ जाती है मुखालफत शुरू कर दी जाती है या उससे दूर हो लिया जाता है। खुद जिस पार्टी या नेता के तलवे चाट रहे हों और वह दूसरी दरगाह से जुड़े लोगों को भी दाना डाल दे तो बस हो गये आग बबूला, करने लगते हैं बगावती बयानबाजी। खुद भी माल कमाने या कुर्सी पाने के लिए कौम का सौदा करते हैं न मिले तो बगावत शुरू।
दरअसल इन सब हालात के जिम्मेदार खुद मुसलमान हैं जो अपने विवेक से कोई कदम उठा नहीं सकते क्योंकि मेरी कौम भैंसा खाती है इसलिए खोपड़ी भी भैंसे वाली ही हो गयी है बस जो "मियां" ने कह दिया वही पत्थर की लकीर है, और मियांको ऐसे ही भैंसा खोपडि़यों की ही जरूरत रहती है। 

Friday, 27 September 2013

कोई वजह नजर नहीं आती, कानून और अदालतों को सैक्यूलर मानने की


स्कूली बच्चों को पढ़ाये जाने के साथ ही नेताओं और आला अफसरों के भाषणों, लेखों, रचनाओं, कविताओं,गजलों वगैराह में कुछ सैन्टेन्स सुनने को मिलते है कि  'भारत एक धर्मनिर्पेक्ष देश है', 'यहां का संविधान धर्मनिर्पेक्ष है', 'कानून की आंखों पर काली पटटी बंधी है यह किसी की धर्म जाति रंग रूप ओहदे को देखकर न्याय नहीं करता', 'कानून की नजर में सब बराबर है'। वगैरा वगैरा........, लेकिन क्या ये सारी बातें सही है, इनका कोई वास्तविक रूप है? इन सवालों के जवाब कुछेक मामलों को गौर से देखने के बाद आसानी से मिल जाते हैं। 1992 में बाबरी मस्जिद को शहीद कर दिया गया, जिसका मुकदमा आजतक लटकाकर रखा जा रहा है, कई एक जांचों में दहशतगर्दो के नाम खुलकर सामने आ जाने के बावजूद उनपर कानूनी शिकंजा कसने के बजाये उलटे उनमें से कुछेक को सरकारी कुर्सियां दी गयी, जबकि बरेली जिले के एक गांव में सरकारी सड़क को घेर कर रातो रात बना लिये गये एक मन्दिर की दीवार रात के अंधेरे में ट्राली लग जाने से गिर गयी, सुबह ही पुलिस दौड़ी ओर ट्रैक्टर चालक को उठा लाई मन चाही धाराये ठोककर जेल भेज दिया। इसी सरीखे देश भर में हजारों मामले हैं।  कम से कम से कम बीस साल पहले पाकिस्तान मूल की जिन मुस्लिम महिलाओं ने भारतीय मुस्लिम पुरूषों से बाकायदा शादी करके यहां रहने लगी उनके कई कई बच्चे भी हुए, इन महिलाओं को गुजरे पांच साल के अर्से में ढूंढ ढूंढकर देश से वापिस किया गया यहां तककि कुछेक के मासूम दुधमुंहे बच्चों को भी उनकी मांओं की गोद से दूर कर दिया गया, बरेली में ही लगभग पांच साल पहले एक लगभग 80 साल के बूढ़े हवलदार खां को पाकिस्तानी बताकर जेल में डाल दिया गया उनके पैर में कैन्सर था जेल के बाहर इलाज तक नहीं करया गया जिनकी गुजरे साल  जबकि खुद सोनिया गांधी के मामले में आजतक ऐसी कोई कार्यवाही करने की हिम्मत किसी की न हो सकी, अगर यह कहा जाता है कि इस तरह की कार्यवाही सिर्फ पाकिस्तानियों के लिए ही की जाती है तो भी गलत है कयोंकि गुजरे दो साल में पाकिस्तान से वहां के सैकड़ों गददार तीर्थ यात्रा के वीजे पर भारत आये और यहां आकर उन देशद्रोहियों ने जमकर जहर उगला, इनमें एक पाकिस्तान सरकार में मंत्री था, यहां की सरकारों ने खूब महमानदारी की जोकि अभी तक जारी है। क्यों भाई तुम्हें तो पाकिस्तानियों से एलर्जी है तो इन पाकिस्तानियों को क्यों पाला जा रहा है। बात साफ है कि संविधान को एलर्जी पाकिस्तान से नहीं बल्कि मुसलमान से है। समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव, अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद में ब्लास्ट करने वालों के खिलाफ सारे सबूत तिल जाने के बावजूद इन आतंकियों के मामलों को जानबूझकर लम्बा खींचा जा रहा है जबकि कस्साब, अफजल मामले में पूरे दो साल भी नहीं नहीं गुजरने दिये अदालतों ने सजाये दे डाली। गुजरी साल आंवला में कांवडि़यों ने नमाज होती देखकर मस्जिद के आगे नाचना गाना शुरू कर दिया विरोध होने पर कांवडि़यों ने अपने वाहनों में मौजूद पैट्रौल के पीपों में से पैट्रौल घरों पर फेंककर आग लगाने की कोशिश की, जिसका नतीजा हुआ कि शहर पूरे महीने कफर््यु की गोद में रहा। कफर््यु के दौरान ही प्रशासन ने संगीनों के बलपर नई परम्परा की शुरूआत कराते हुए दो नये रास्तों (मुस्लिम बाहुल्य) क्षेत्रों से नई कांवड़ यात्रायें निकलवायी। अकबरूद्दीन ओवैसी जी ने देश के मौजूद हालात की दुखती रग पर उगंली रखी तो कानून ताकतवर बन खड़ा हुआ यहां तक जज साहब भी अपने अन्दर की मुस्लिम विरोधी भावना को बाहर आने से नहीं रोक सके जबकि औवैसी से कहीं ज्यादा खतरनाक और आपत्तिजनक बयान हर रोज इसी यूट्यूब, फेसबुक वगैराह पर मुसलमानों के खिलाफ देखे जाते हैं लेकिन जज साहब को आपत्तिजनक नहीं लगते न ही देश के कानून को चुभते हैं। गुजरे दिनों बरमा और आसाम में आतंकियों के हाथों किये जा रहे मुस्लिम कत्लेआम के खिलाफ सोशल नेटवर्किंग साइटों पर चर्चा गरम हुई तो देश की सरकारों और कानून के लगने लगी, प्रधानमंत्री ओर ग्रहमंत्री ने तो ऐसी साइटों को बन्द कराने तक के लिए जोर लगाया, जबकि इन्हीं साईटों पर कुछ आतंकवादी खुलेआम इस्लाम ओर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने के साथ ही अपनी गन्दे खून की पहचान कराते हुए उन शब्दों का प्रयोग करते रहते हैं जो उनके खानदानी पहचान वाले शब्द हैं इसपर न सरकार को लगती है न ही कानून को। आरएसएस लाबी की खुफिया एजेंसियों, और मीडिया के साथ मिलकर सुरक्षा बलों ने हमेशा ही धमाके करने वाले असली गुनाहगारों को बचाने के लिए साजिशी तौर पर हर धमाके की सीधी जिम्मेदारी थोपकर सैकड़ों मुस्लिमों को सरेआम कत्ल किया जेलों में रखकर बेरोकटोक यातनायें देते रहें लेकिन बेगुनाह फंसाये जाने के बावजूद किसी भी बेगुनाह की तरफ से जवाब में किसी भी जांच अधिकारी का कत्ल नहीं किया गया जबकि जब एक ईमाानदार अधिकारी शहीद हेमन्त करकरे ने देश के असल आतंकियों को बेनकाब कर दिया तब चन्द दिनों में ही हेमन्त करकरे को ही ठिकाने लगा दिया गया, हेमन्त करकरे के कत्ल का इल्जाम भी मुस्लिम के सिर मंढने के लिए आरएसएस लाबी की खुफिया एजेंसियो, सुरक्षा बलों, एंव मीडिया ने एक बहुत ही बड़ा ड्रामा खड़ा किया जिसमें शहीद हेमन्त करकरे को ठिकाने लगाने का रास्ता आसान और साफ कर लिया गया और लगा दिया एक ईमानदार शख्स को ठिकाने, हेमन्त करकरे का कसूर बस इतना ही था कि उन्होंने देश के असल आतंकवादियों को बेनकाब कर दिया। विवेचना अधिकारी से लेकर सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति तक किसी ने भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर हेमन्त करकरे को ही गोली क्यों लगी दूसरे किसी अफसर या जवान को क्यों नहीं लगी, जबकि तुरन्त ही हेमन्त करकरे की जैकेट को लेकर बहस भी छिड़ी, लेकिन किसी ने भी जैकेट के बेकार होने के मामले की तह तक पहुंचने की जहमत नहीं की और और हाथ लग चुके कुर्बानी के बकरे को ही हेमन्त करकरे का कातिल ठहराया जाता रहा। हेमन्त करकरे के कत्ल और उनकी जाकेट की ज्यादा बखिया उधेड़ने से जानबूझ कर बचा गया क्योंकि सभी यह जानते थे कि अगर इन बिन्दुओं को करोदा गया तो फिर असल आतंकियों को बेनकाब करना पड़ेगा, साथ ही करोड़ों रूपये ठिकाने लगाकर बिछाये गये जाल का भी पर्दाफाश हो जायेगा, यानी बम्बई हमले की असलियत भी दुनिया के सामने आ जायेगी। इसी साल रमज़ान के महीने में बरेली के थाना भोजीपुरा के गांव हंसा हंसनी में लाऊडस्पीकर पर नआत (नबी की शान में गजल) पढ़ने पर कुछ खुराफातियों को एतराज होने लगा और एसओ भोजीपुरा ने गांव में पहुंचकर पाबन्दी लगादी, जबकि इसी गांव में रात रात भर किये जाने वाले जागरणों की आवाजों पर किसी ने आजतक कोई रोक नहीं लगाई। महात्मा गांधी का कातिल मुसलमान नहीं था, इन्दिरा गांधी के कातिल मुस्लिम नहीं, राजीव गांधी के कातिल भी मुस्लिम नही, खुफिया दस्तावेज पाक को देने वाली भी मुसलमान नहीं है, हजारों करोड़ रूपये चुराकर विदेशों में जमा करने वालों में भी कोई मुसलमान नहीं। ताजा मामलों को ही देखिये, मध्य प्रदेश में विहिप नेता के घर से आतंक का सामान बरामद हुआ पुलिस ने उस आतंकी को फरार होने का पूरा मौका दिया, प्रधानमंत्री से लेकर सन्तरी तक सभी की बोलती बन्द है किसी के मंुह से कुछ नहीं निकल रहा। बिहार में हथयारों की अवैध फैक्ट्री पकड़ी गयी, किसी के मुंह में जुबान नहीं दिखी, हां अगर यही मामला किसी मुसलमान से जुड़ा होता तो शायद सबसे पहले प्रधानमंत्री ही चीख पड़ते गृहमंत्री कहते कि इण्डियन मुजाहिदीन के सदस्य के यहां से बरामद हुआ तो इनके गृहसचिव को पाकिस्तान की साजिश दिखाई पड़ती। मीडिया भी कुलाचें मार मारकर चीखती यहां तककि एक न्यूज चैनल के पास तो ईमेल भी आना शुरू हो जाती, छापा मारने वाली टीम अभी हथियारों को उठा भी नहीं पाती कि मीडिया इसके जिम्मेदारों के नामों की घोषणा भी कर देता। आरएसएस आतंकियों ने मक्का मस्जिद में धमाके करके आईबी, और दूसरी जांच एजेंसियों को इशारा करके मुस्लिम नौजवानों को जिम्मेदार ठहराकर गिरफ्तार कराया और जी भरकर उनपर अत्याचार किये भला हो ईमानदारी के प्रतीक शहीद हेमन्त करकरे का जिन्होंने देश में होने वाले धमाकों और आतंकी हरकतों के असल कर्ताधर्ताओं को बेनकाब कर दिया जिससे साजिशन फंसाये गये मुस्लिमों को रिहाई मिली। साजिश के तहत फंसाकर मुस्लिम नौजवानों की जिन्दगियां बर्बाद करदी गयी अदालत में साजिश और झूठ टिक नहीं सकाए बेगुनाह रिहा हुए उनका कैरियर बर्बाद हो चुका था आन्ध्र प्रदेश सरकार नें उन्हें मुआवजा दिया जिसके खिलाफ आरएसएस लाबी ने अदालत में केस करा हाईकोर्ट ने भी अफजल गुरू के मामले की ही तर्ज पर समाज के अन्तःकरण (आरएसएस लाबी) को शान्त रखने के लिए सरकार के फैसले का गलत करार दे दिया। हम जानते हैं कि हमारी इस बात को अदालत की अवमानना करार देने की कोशिशें की जायेंगी। मुसलमानों के साथ सरकारें अदालतें और कानून धार्मिक भेदभाव कुछ दिनों या कुछ सालों से नहीं कर रहा ये कारसाजियां 15 अगस्त 1947 से ही (ब्रिटिशों के जाते ही) शुरू हो गयी थी, जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस कमेटी की ही देन है जो देश का बटवारा हुआ जिसका इलजाम मोहम्मद अली जिन्ना पर मढने की लगातार कोशिशें की जाती रही हैं, जवाहर लाल नेहरू ने ठीक उसी तरह से हैदराबाद में फौज और गैर मुस्लिमों के हाथों मुसलमानों का कत्लेआम कराया था जिस तरह से मोदी ने गुजरात में कराया। यहां के कानून ने तमाम सबूतों के बावजूद न तो जवाहरलाल के खिलाफ कदम उठाने की जुर्रत की ओर न ही मोदी के खिलाफ। फिर भी मुसलमान अदालतों और कानून को पूरा सम्मान देता है जबकि दूसरे तो साफ साफ कहते हैं कि ‘‘हम अदालत के फैसले का इन्तेजार नहीं करेंगे अपना काम करके रहेंगे’’। अगर बात करें कोर्ट की तो सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फरनगर दंगे के मामले में सरकार से जवाब मांगा है क्यों, क्योंकि आरएसएस लाबी के एक चैनल ने कुछ पुलिस अफसरों के बयानों को उछाला है कहा जा रहा है कि स्टिंग किया गया इसमें पुलिस अफसर बता रहे हैं कि सूबाई सरकार के मंत्री आजम खां ने कार्यवाही को मना किया था, इसी पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नोटिस जारी कर दिया। सवाल यह पैदा होता है कि इसकी क्या गारन्टी है कि स्टिंग में दिखाये गये पुलिस वाले आरएसएस लाबी के नहीं हैं या वे सही बोल रहे हैं? जिस तरह इस चैनल ने दिल्ली हाईकोर्ट धमाके के बाद अपने ईमेल पते पर ईमेलें मगांकर मुस्लिम युवकों को फंसाया था इसी तरह अपने ही गैंग के पुलिस वालों से बयानबाजी कराई हो। कोर्ट ने इसकी स्टिंग वीडियो का फारेंसिक परीक्षण कराये बिना ही विस्वास करके नोटिस जारी कर दिया। कारण है कि इस वीडियो में वर्दी वाले बयान देते दिखाये गये हैं वर्दी वाले सच बोलते है यह हो नहीं सकता हम यह दावा सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि आईपीएस संजीव शर्मा ने तो अदालत में हलफनामें देकर बयान दर्ज करये उनको आजतक सच्चा नहीं माना जा रहा है, क्यों? क्योंकि वे किसी मुसलमान की करतूत नहीं बता रहे, जबकि मुजफ्फरनगर मामले में पुलिस अफसरों की बात को सीधे सीधे सच मानकर अदालत ने नोटिस भी जारी कर दिया क्यों? कयोंकि यह ड्रामा एक मुसलमान मंत्री के खिलाफ रचा जा रहा है। इसी तरह के हजारों मामले सामने आने के बावजूद भी मुसलमान यहां की अदालतों ओर कानून में भरोसा रखे हुए है।

Sunday, 18 August 2013

गुलामी में आज़ादी का जश्न

लो, 66वीं बार, एक बार फिर मनाने लगे जश्न आज़ादी (स्वतन्त्रता दिवस), बड़ी ही धूम मची है ऐसा लगता है मानों कोई धार्मिक त्योहार हो या घर घर में शादी हो। सबसे ज्यादा चैकाने वाली बात यह है कि आज़ादी के इस जश्न को सबसे ज्यादा धूम से मनाने वाले वे लोग है जो आजतक आज़ाद हुए ही नहीं। 15 अगस्त 1947 से पहले और बाद में फर्क सिर्फ इतना हुआ कि पहले विदेशियों की गुलामी में थे और अब 66 साल से देसियों की गुलामी में जीना पड़ रहा है। किसी भी तरह का जश्न मनाने से पहले यह जानना जरूरी है कि जिस बात का हम जश्न मना रहे हैं आखिर वह है क्या, हमसे उसका क्या ताआल्लूक (सम्बन्ध) है उसने हमे कया दिया है, या हमें क्यों मनाना चाहिये उसका जश्न?...... तो आईये सबसे पहले यह जाने कि आज़ादी और गुलामी कया है? गुलामी का मतलब है कि हम अपनी मर्जी से जीने का कोई हक (अधिकार) नहीं, हम अपनी मर्जी से खा नहीं सकते पहन नही सकते, पढ़ नहीं सकते रहने के लिए घर नहीं बना सकते, अपने ही वतन में घूम फिर नहीं सकते। अगर कहीं जाते हैं तो उसका टैक्स देना पड़ता है। कुछ खरीदते या बेचते हैं तो उसका टैक्स देना पड़ता है। इसी तरह की सैकड़ों बाते हैं जो यह बताती है कि हम किसी की गुलामी में है। आज़ादी उसे कहते हैं जिसमें लोग अपनी मर्जी के मालिक होते हैं। जैसा चाहें खायें पहने जैसे चाहें जियें, कहीं घूमें फिरें वगैरा वगैरा। आईये अब देखें कि जिस आज़ादी के नाम पर हम जश्न मना रहे हैं वह हमें मिली या नही.......? 66 साल के लम्बे अर्से में देखा यह गया है कि हिन्दोस्तान का आम आदमी ज्यों का त्यों गुलाम ही है ठीक वैसे ही हालात हैं जैसे 15 अगस्त 1947 से पहले थे। 15 अगस्त 1947 के बाद से फर्क सिर्फ इतना हुआ है कि 1947 से पहले हम विदेशियों के गुलाम थे और इसके बाद से देसियों के गुलाम बना दिये गये हैं। हिन्दोस्तानियों पर बेशुमार कानून लादे गये ओर लगातार लादे जा रहे हैं आजतक कोई भी ऐसा कानून नहीं बना जिसमें आम आदमी को आज़ादी के साथ जीने का अधिकार दिया गया हो, खादी ओर वर्दी को आज़ादी देने के लिए हर रोज़ नये से नया कानून बनाया जाता रहा है, ऐसे कानूनों की तादाद इतनी हो गयी कि गिनती करना मुश्किल है। किसी भी विषय को उठाकर देखिये, आम आदमी को कदम कदम पर उसके गुलाम होने का एहसास कराने वाले ही नियम मिलेंगे, वे चाहे आय का विषय हो या व्यय का, खरीदारी का मामला हो या बिक्री का, वतन के अन्दर घूमने फिरने की बात हो या फिर रहने बसने की, इबादतों का मामला हो या रोजीरोजगार का, सफर करने की बात हो या ठहरने की। कोई भी मामला ऐसा नहीं जिसमें आम जनता को उसके गुलाम होने का एहसास नहीं कराया जाता। किसी भी नजरिये से देख लीजिये। आप अपने घर से निकलये आपको हर पन्द्र बीस किलोमीटर की दूरी पर टौल टैक्स देना होता है, जबकि ये टैक्स वर्दी और खादी से नहीं लिये जा सकते, रेल रिजर्वेशन कराये तो वहां भी खादी और वर्दी के लिए किराये में बड़ी रियायत के साथ कोटा मौजूद रहता है। आम हिन्दोस्तानी को उसके गुलाम होने का एहसास कराये जाने का एक सबूत यह भी है कि खददरधारी जब पैदल होते हैं और दर बदर वोट की भीख मांगते हैं तब ये खददरधारी जिन गुलामों के बिना किसी खौफ, और वर्दी वालों की लम्बी चैड़ी फौज को साथ लिये बिना ही उस ही गुलाम जनता के बीच फिरते दिखाई पड़ते हैं जो गुलाम जनता इन्हें कुर्सी मिलते ही दुश्मन लगने लगती है, गुलाम वोटरों से इन्हें बड़ा खतरा होता है। यानी कुर्सी मिलते ही गुलाम जनता को उसकी औकात ओर गुलाम होने का एहसास कराया जाता है। ट्रेनों में सुरक्षा बलों के जवान और सिविल पुलिस वर्दी धारी गुलाम भारतीयों को बोगी से उतारकर पुरी बोगी पर कब्ज़ा करके कुछ सीटों पर आराम से खुद लेटते हैं बाकी सीटें पैसे लेले कर सवारियों को बैठने की इजाजत देते है यह कारसाज़ी लखनऊ के स्टेशनों पर अकसर रात में देखी जाती है। अगर बात की जाये विदेश यात्रा के लिए पासपोर्ट बनवाने की तो यहां भी खददर धारियों को पासपोर्ट पहले दिया जाता है और आवेदनों की जांच बाद में जबकि गुलामों को पुलिस, एलआईयू का पेट भरना जरूरी होता है तब कहीं जाकर पासपोर्ट मिल पाता है, साल भर पहले तक तो पासपोर्ट बनाने का काम सरकारी दफ्तरों में किया जाता था गुलामों को सरकारी बाबुओं की झिड़कियां खानी पड़ती थी, लेकिन लगभग साल भर पहले यह काम भी कमीशन खाने के चक्कर में निजि हाथों में दे दिया गया। बिजली उपभोग का मामला देखिये गुलाम जनता का कोई उपभोक्ता बिल जमा करने में देरी करदे तो तुरन्त उसे सलाई से वंचित करते हैं जबकि खददरधारियों और वर्दीधारियों के यहां बिजली सप्लाई निःशुल्क है, गुलाम जनता के लोग पड़ोस के घर से सप्लाई लेले तो दोनों के खिलाफ
बिजली चोरी का मुकदमा ओर वर्दीधारियों के यहां खुलेआम कटिया पड़ी रहती है बरेली की ही पुरानी पुलिस लाईन में सैकड़ों की तादाद में कटिया डाली हुई हैं सारे ही थानों में ऐसे ही उपभोग की जाती है बिजली कभी कहीं की लाईन नहीं काटी जाती। गुलाम जनता के मासूम बच्चे भूखे पेट सो सो कर कुपोषण की गिरफ्त में आ जाते हैं जबकि खददरधारियों, और वर्दीधारियों के घरों पर पाले जा रहे कुत्ते भी दूध, देसी घी, के साथ खाते हैं फिर भी सोच यहकि हम आजाद हैं। किसी भी नजरिये से देखा जाये आम आदमी गुलाम ओर खादी, वर्दी मालिक दिखाई पड़ती है। एक छोटा सा उदाहरण देखें शहरों में जगह जगह वाहन चैकिंग के नाम पर उगाही किये जाने का नियम है, गुलाम जनता का कोई भी शख्स किसी भी मजबूरी के तहत अगर दुपहिया पर तीन सवारी बैठाकर जा रहा है तो उसका तुरन्त चालान या गुलामी टैक्स की मोटी वसूली जबकि वर्दी वाले खुलेआम तीन सवारी लेकर घूमते रहते है किसी की हिम्मत नहीं जो उन्हें रोक सके। सबसे बड़ी बात तो यह कि वर्दी वालों को अपने निजि वाहनों पर भी हूटर घनघनाने का कानून, जबकि गुलाम जनता को तेज आवाज के हार्न की भी इजाजत नहीं। राजमार्गो पर हर पन्द्र-बीस किमी की दूरी पर सरकारी हफ्ता वसूली बूथ लगाये गये हैं इनपर बड़े बड़े होर्डिंग लगाये गये हैं जिनपर साफ साफ लिखा गया है कि किस किस के वाहन को छूट है इनमें खादी व वर्दी धारी मुख्य हैं। किसी भी पर्यटन स्थल पर देख लीजिये वहां प्रवेश के नाम पर उगाही, यहां पर भी गांधी की खादीधारियों एंव पुलिस को छूट होने का संदेश लिखा रहता है। लेखिन नारा वही कि आजाद हैं। खददरधारी कत्लेआम करे, और वर्दीधारी सरेआम कत्ल करें तो सज़ा तो दूर गिरफ्तारी तक करने का प्रावधान नहीं जबकि गुलाम जनता के किसी शख्स एक दो कत्ल कर दे तो उसको आनन फांनन में फांसी के बहाने कत्ल कर दिया जाता है। अदालतें भी खादी, वर्दी वालों के सामने बेबस ओर लाचार दिखाई पड़ती है जबकि गुलाम जनता के लिए पूरी शक्ति व सख्ती दिखाती देखी गयी हैं। लेकिन हमारा नारा वही कि आजाद हैं। 15 अगस्त की रात ब्रिटिशों के जाने के बाद गांधी जी ने घोषणा की थी कि "आज से हम आज़ाद हैं" गांधी के इस 'हम' से बेचारे सीधे साधे हिन्दोस्तानी समझ बैठे कि सब भारतीय। लेकिन गांधी के 'हम' का मतलब था कि गांधी की खादी पहनने वाले और उनको लूट, मनमानी करने में ताकत देने वाली वर्दी। आम हिन्दोस्तानी ज्यों का त्यों गुलाम ही रखा गया, फर्क सिर्फ इतना हुआ कि 15 अगस्त 1947 से पहले विदेशी मालिक थे और अब देसी मालिक हैं देश के। यह हिन्दोस्तानियों का कितना बड़ापन है कि गुलाम रहकर भी आजादी का जश्न मनाते हैं कितने महान हैं और कितनी महान है इनकी सोच। लेकिन हर बात की एक हद होती है 200 साल तक ब्रिटिशों की मनमानी गुण्डागर्दी, लूटमार को बर्दाश्त करते रहे और जब बर्दाश्त से बाहर हुआ तो  चन्द दिनों में ही हकाल दिया ब्रिटिशों को। 

Friday, 16 August 2013

खुलकर बिकवाई, जमकर चलवाई
15 अगस्त पर आबकारी व पुलिस का देश को तोहफा

कप्तान के फोन पर पहुंचे सिपाहियों ने दिलवाई पत्रकारों दो हजार रिश्वत

पत्रकारों ने तुरन्त एसएसपी को दिये वो रूपये
बरेली-कहा जाता है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन शराब की बिक्री पूरी तरह प्रतिबन्धित रखी जाती है, लेकिन शायद हमारा बरेली जिला भारत की सीमाओं से बाहर कर दिया गया है, इसीलिए यहां इन दिवसों पर शराब की खुलेआम बिक्री कराई जाती है। हम गुजरे कई साल से यह नजारा समाज व प्रशासन को दिखा रहे हैं। आज 15 अगस्त के दिन फिर खुलेआम बिकवाई गयी शराब। बेशर्मी की हदें तो तब टूटीं जब पत्रकारों के
फोन पर कप्तान ने थाना पुलिस को आदेशित किया जिसपर शरब की खुली दुकान पर पहुंचे थाना बारादरी के तीनों सिपाहियों ने दुकानदार से दो हज़ार रूपये लेकर पत्रकारों को दिये। थाना बारादरी के क्षेत्र शहामत गंज (शाहजहां पुर रोड पर) स्थित मधुवन टाकीज के सामने मौजूद शराब की दुकान दिन भर खुलेआम शराब बेची जाती रही। दोपहर लगभग 1-30 बजे पत्रकारों ने जब यह नजारा देखा तब पहले वीडियों ग्राफी की, शराब खरीदी और उसके बाद फोन पर एसएसपी को सूचित किया। चूंकि उस समय एसएसपी शहर में मौजूद नहीं थे, एसएसपी ने तत्काल थाना बारादरी को फोन किया आनन फानन में तीन सिपाही पहुंचे ओर दुकानदार से कहा कि दो हज़ार रूपये निकालो, दुकानदार ने पांच-पांच सौ रूपये के चार नोट सिपाही को दिये सिपाही ने वह रूपये पत्रकार की जेब में डालते हुए निवेदन किया कि ‘‘छोडि़ये भाई साहब और करने दी
जिये बेचारे को अपना काम।’’ पत्रकार वह रूपये लेकर सीधे कप्तान के निवास पर गये ओर एसएसपी के उप्लब्ध न होने पर एसएसपी के पीआरओ के पास जमा कर दिये तथा पूरी बात फोन पर एसएसपी को बताई। एसएसपी ने सख्त कार्यवाही का वादा किया। अब देखना यह है कि एसएसपी की तरफ से क्या कदम उठाये जाते हैं। दूसरी तरफ पत्रकारों का एक ग्रुप आबकारी विभाग के आफिस पहुंचा जहां पर कोई अधिकारी नहीं था, आबकारी विभाग के अफसरान को फोन किये लेकिन किसी भी अफसर ने फोन रिसीव नहीं किया। आवकारी कार्यालय में मौजूद कर्मचारियों व इंस्पैक्टर ने कहा कि आज छुटटी है कल देखेंगे।


Sunday, 28 July 2013

विदेशी गुलामी और गृहयुद्ध में ढकेला जा रहा देश

हिन्दोस्तान के वो लोग जो राष्ट्रभक्त होने का ढोल पीटते फिरते हैं वे ही देश को एक बार फिर विदेशी गुलाम बनाने की कोशिशों में रात दिन एक किये नजर आ रहे हैं। देश के राजनैतिक और खासकर कांग्रेस व भाजपा, संघ लाबी भारत को भयंकर गृहयुद्ध में झोंककर देश को विदेशी हाथों में देने की कोशिशों में लगे हैं। भारत में गुजरे
लगभग ढाई दशक से हिन्दोस्तानी नहीं रहे अब केवल मौजूद हैं हिन्दू और मुसलमान। गुजरात आतंकवाद की हीरो बीजेपी देश को भयानक गृहयुद्ध में ढकेलने पर आमादा है तो आरएसएस की एजेण्ट कांग्रेस पिछले दरवाजे से बीजेपी को पूरी मदद दे रही है। भाजपा को बुलन्दियों तक पहुंचने वाले लालकृष्ण अडवानी, सुषमा स्वराज जैसे नेताओं को नीचा दिखाते हुए बीजेपी प्रधानमंत्री पद के लिये मोदी का नाम सामने लाई है, मोदी एक ऐसा नाम जिसकी पहचान ही बेगुनाहों के कत्लेआम हो। बीजेपी के इस कारनामें के बाद कम से कम यह तो साफ हो जाता है कि बीजेपी को अपना खून पसीने से सींचने वाले आडवानी, सुषमा स्वराज, यशवन्त सिन्हा की उनकी ही पार्टी में कोई खास वैल्यु नहीं है। राष्ट्र प्रेमी बनने का ड्रामा करते रहने वाली संघ लाबी राष्ट्र की सबसे बड़ी दुश्मन बनकर सामने आ रही है। संघ लाबी देश को तबाह बर्बाद करके विदेशी गुलामी में ढकेलने की जुस्तजू में लगी दिखाई पड़ रही है। दरअसल एक बार राम मन्दिर के नाम पर बीजेपी केन्द्र की सत्ता में पहुंच गयी लेकिन सत्ता के गलियारों में पहुंचकर अपने ऐशो आराम में इस हद तक मदहोश हो गयी थी कि उसे साढ़े छः साल तक श्रीराम चन्द्र जी से कोई लेना देना ही नहीं रहा था यानी राम मन्दिर के नाम पर वोट देने वालों के साथ धोका करने के साथ साथ "राम" को भी धोका देने से नहीं चूकी, राम मन्दिर बनाना तो दूर मन्दिर की बात तक करना भूल गयी थी बीजेपी। इसके बाद राम के नाम पर एक जुट बीजेपी को वोट देने वाला हिन्दू वोट बीजेपी की करतूत को समझ गया और नतीजा यह हुआ कि मतदाताओं ने आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस को केन्द्र के गलियारों तक पहुंचा दिया। बीजेपी आ गयी सड़क पर। अब बीजेपी के पास हिन्दुओं को बहकाकर उनका वोट हासिल करने के लिए कोई बहाना नहीं रहा, ऐसे हालात में संघ लाबी अच्छी तरह समझ चुकी है कि अब संघ लाबी के किसी भी धड़े को देश का अमन पसन्द हिन्दू वोट भी मिलने वाला नहीं, इस स्थिति में संघ लाबी बिल्ली की सोच से चलने लगी यानी  "जब बिल्ली का मूंह दूध के बर्तन में न पहुंच पाने की वजह से बिल्ली दूध नहीं पी पाती तो वह पंजा मारकर दूध को गिरा देती है क्योंकि बिल्ली की सोच होती है कि अगर मुझे न मिले तो किसी दूसरे को भी न मिले"। संघ लाबी, बीजेपी भी बिल्ली के दिमाग से काम ले रही है संघ लाबी यह मान चुकी है कि अब उसे कम से कम दिल्ली की गद्दी तो कभी मिलने वाली नहीं है इसलिए संघ लाबी इसे बखेर देना चाहती है। इसी सोच के साथ संघ लाबी ने भारत को तबाह बर्बाद करने की ठान ली है इसी प्लानिंग के तहत खूब सोच समझकर संघ लाबी ने प्रधानमंत्री पद के लिए एक ऐसा नाम चुना जो कि खुद आतंक का पर्यायवाची बन चुका हो। मोदी जैसा शख्स जिसने मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल जाने पर गुजरात को आतंक की पहचान बना दिया तो पूरे देश में वही हाल बनाने की कोशिश नहीं की जायेगी लेकिन सिर्फ गुजरात और पूरे देश में बहुत फर्क है अगर देश भर को गुजरात बनाने की कवायद की गयी तो जाहिर है कि देश गृहयुद्ध की लपटों से जल उठेगा, भीषण गृहयुद्ध बनकर सामने आयेगा। गुजरात में आतंवाद था लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में आतंकी हमले नहीं बल्कि दंगे होगें। हम जानते हैं कि गुजरात में जिस तरह आतंकी हमला किया गया था देश के दूसरे हिस्सों में ऐसा कर पाना मोदी के बस की बात नहीं हां गुजरात की तरह ही संघ लाबी और वर्दियां दोनों ही मुसलमानों का कत्लेआम करेंगी फिर भी गुजरात की तरह एक तरफा नहीं रहेगा कत्लेआम करने वालों को मरना भी होगा, यानी गुजरात जैसा आतंकवाद नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर दंगे होने की उम्मीद ही नहीं बल्कि विस्वास किया जा सकता है। ऐसे हालात में देश के सामने सबसे बड़ा संकट यह होगा कि सरकार फोजों को कहां इस्तेमाल करेगी ? सीमाओं पर या मुसलमानों को मारने के लिए देश के अन्दर। देश की सीमाओं से तीन दुश्मन लगे बैठे हैए चीन, नेपाल और पाकिस्तान। हमारी फौज की नज़र जिस तरफ से भी हटायी जायेगी उसी तरफ से दुश्मन देश घुसपैठ करेगा। चीन जो लगातार मौके की तलाश में है वह देश के हालात का पूरा फायदा उठा सकता है। वैसे भी चीनी सैनिक लगातार घुसपैठ की तांकझांक में लगे है कुछ हद तक तो घुस भी आये हैं ऐसे में यदि देश गृहयुद्ध की लपटों में जलने लगा तब तो पूरा पूरा मौका मिल जायेगा उन्हें ऊधर पाकिस्तान भी सीमाओं में प्रवेश करने में कामयाब होगा। संघ लाबी की योजना भी कुछ यही नजर आ रही है। आखिर बिल्ली की सोच से काम ले रही है आरएसएस लाबी, देश की सत्ता पर कब्ज़ा करके लूटखसोट करने का मौका न मिले तो बखेर दिया जाये। हां अगर भाजपा ने मोदी की जगह लालकृष्ण अडवानी, सुषमा स्वराज, यशवन्त सिन्हा आदि को प्रधानमंत्री पद के लिये पेश किया होता तब देश कांग्रेस के विकल्प के रूप में भाजपा को सत्ता के गलियारों में तफरी करने का मौका देने के लिए सोचता, खासतौर पर मुस्लिम वोट। मोदी को देश की सत्ता देकर पूरे देश को गुजरात जैसे आतंकवाद के हवाले करने की गलती मुसलमान तो दूर शरीफ और अमन पसन्द हिन्दू वोट भी नहीं करना चाहेगा। ऊधर आरएसएस
पोषित मीडिया धड़े भी अपने अपने स्तर से बेबुनियादी आंकड़े पेश करके मोदी की लहर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि आरएसएस लाबी मोदी को प्रधानमंत्री बनाये जाने के बाद होने वाले देश के हालात से वाकिफ नहीं है फिर भी जान बूझकर देश को गृहयुद्ध में ढकेलकर विदेशी गुलाम बनाने की कोशिश कर रही है इस पर भी दावा यह कि राष्ट्रभक्त हैं, समझ में नहीं आता कि कैसे राष्ट्रभक्त हैं जो राष्ट्र को जलाकर गुलाम बनाने पर आमादा हैं। वैसे भी आरएसएस की देश भक्ती का सबूत एक निहत्थे बूढ़े बेगुनाह महात्मा गांधी को बेरहमी से कत्ल कर दिया जाना है ही। दरअसल आरएसएस लाबी को लगता है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर गुजरात की तरह ही पूरे देश में सरकारी व गैरसरकारी स्तर पर मुसलमानों का कत्लेआम करना आसान हो जायेगा, लेकिन गुजरात और पूरे भारत में बहुत फर्क है, पूरे भारत में आरएसएस के ये अरमान पूरे होने वाले नहीं। गुजरात में हालात अलग थे मुसलमानों की तादाद कम थी गुजरात में सरकारी ओर गैरसरकारी दोनो ही तरह से आतंकी नाच किया गया। हालांकि भारत के दूसरे हिस्सों में भी अर्धसैनिक बल मौका मिलते ही मुसलमानों पर हमले करते हैं, लेकिन फिर भी उतनी कामयाबी के साथ नहीं। कुछ मोदी उपासक तर्क देते हैं कि गुजरात की तर्ज पर विकास होगा, हम पूछना चाहते हैं कि क्या विकास हुआ, बस्ती की बस्ती कत्लेआम करके खाली कर दी गयी उनकी सम्पत्तियां लूटकर अपने धंधे चलाये गये इसे विकास कहा जाता है।

Sunday, 14 July 2013

महाबोधि ब्लास्ट, एक बड़ी साजि़श

महाबोधि ब्लास्ट, एक बड़ी साजि़श पटना (गया)-मुस्लिमों को फंसाने के लिए एक और ड्रामा रच दिया गया। देश में किये गये दूसरे धमाकों की तरह ही रविवार सुबह बिहार राज्य के बोधगया में महाबोधि मंदिर के पास एक के बाद एक 8 सीरियल ब्लास्ट किये गये। इन धमाकों में 5 लोगों के मामूली घायल होने की खबर है। हालांकि मंदिर को इन धमाकों से कोई बड़ा जानी माली नुकसान नहीं हुआ है। यह हमला किसने कराया, अभी धमाके से उत्पन्न राख और मलवा भी ठण्डा नहीं हुआ था, लेकिन मीडिया, आईबी और भाजपा उपासक नितिश पुलिस से उम्मीद है कि इन धमाकों के असल कर्ताधर्ताओं को बचाने के लिए अपने ही दिमागों की उपज इस्लामी नामों वाले संगठनों में से इण्डियन मुजाहिदीन के नाम की घोषणायें शुरू कर दीं, जाहिर है कि हमेशा की ही तरह थोकभाव में मुस्लिमों को उठाया जायेगा। बोधगया के महाबोधि मंदिर के बाहर रविवार सुबह 6 बजकर 5 मिनट पर पहला धमाका हुआ और इसके बाद लगातार 7 और धमाके हुए. पुलिस ने धमाकों की पुष्टि करते हुए कहा है कि मंदिर सुरक्षित है। अजीब सी बात है कि कोई मुस्लिम धमाके करे लेकिन इसका पूरा ध्यान रखे कि कोई जानी माली नुकसान भी न हो, मन्दिर को भी किसी तरह की हानि न पहुंचे, ऐसा कैसे हो सकता है कि सिर्फ आवाज़ वाले पटाखे छोड़े गये, किसी मुस्लिम को मन्दिर को बचाने की या उसमें मौजूद लोगों को बचाकर धमाके करने की क्या जरूरत होगी, क्यों करेगा कोई पाकिस्तानी ऐसा? वह भी तब जबकि इतना आसान मौका मिला हो कि आराम और तसल्ली से मन्दिर परिसर में जगह जगह बम लगा दिये? हर समय भरे रहने वाले मन्दिर परिसर में कोई बाहरी व्यक्ति बम लगाता हो, एक दो नहीं बल्कि पूरे आठ बम फिर भी उसे किसी ने देखा नहीं? क्या बम लगाने वाला, नांदेड बम धमाके करने वाले संघ कार्यकर्ता राजकोंडवार जैसा था कि उसके पास से नकली दाढ़ी, शेरवानी, कुर्ता पायजामा बरामद हुआ। गौरतलब यह भी है कि हर धमाके की तरह ही इस धमाके की खबर आईबी को थी कि इस मन्दिर पर हमला हो सकता है लेकिन किसी तरह की सुरक्षा का कोई बन्दोबस्त नहीं किया गया, क्यों? और आईबी तो बड़ी बात है मीडिया का कहना है कि ‘‘ इसकी सूचना मन्दिर के मुख्य पुजारी को भी थी’’ इसी को बहाना बनाते हुए उसने ‘‘ हथियार की मांग भी की थी,’’ अजीब सी बात है कि आतंकी हमले की सूचना पर एक पुजारी (धार्मिक व्यक्ति) हथियार की मांग करता है नाकि पुलिस सुरक्षा की, क्यों? आखिर क्या खेल खेला जा रहा था। धमाके हुए बमों की आवाज सुनाई पढ़ने से पहले ही गुजरात व संघ पोषित मीडिया ने जिम्मेदारों के नाम की घोषणा करदी। आईबी का भी इशारा इसी तरफ है यह अलग बात है कि स्थानीय पुलिस मौके पर मौजूद सबूतों के मुताबिक जांच के कदम बढ़ा रही है जोकि काफी सही दिशा में चल रही है। हांलाकि अमरीका और गुजरात पोषित मीडिया और आईबी अभी भी अपने दिमागों की उपज मुस्लिम नामों वाले संगठनों का ही राग अलाप कर मालेगांव, अजमेर शरीफ, मक्का मस्जिद, समझौता एक्सप्रेस के मामलों की तरह ही एक सोची समझी साजिश को कामयाब कराने की जुस्तजू में दिखाई पड़ रही है। यह हकीकत लगभग सारी दुनिया ही जान चुकी है कि भारत में धमाके करता कौन है और फंसाया किसे जाता है इस बार भी यही कोशिशें की जा रही है कुछ अखबार तो बाकायदा एलान करने में लगे हैं कि ये धमाके आईएम ने किये हैं यहीं तककि कुछ अखबारों ने तो यह तक बता दिया कि आईएम ने जिम्मदारी लेली है, मज़े की बात तो यह है कि बार भी साईबर का सहारा लिया जा रहा है। सभी को याद होगा कि दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर धमाकों की धमकियों और बाद में जिम्मेदारी लेने के ईमेल संघ पोषित एक न्यूज़ चैनल के पास आने की चीख पुकार की जा रही थी। ईमेल, या किसी भी सोशल नेटवर्क साइट पर अपना एकाउण्ट बनाने के लिए किसी तरह के पहचान-पत्र को प्रमाणित कराकर देना नहीं होता। सभी जानते है कि कोई भी किसी के भी नाम पते से अकाउण्ट बना लेता है, ऐसे में इस बात का क्या सबूत है कि जिस ईमेल पते से उस चैनल के पते पर ईमेल भेजी गयी थी वह वास्तव में ही किसी मुसलमान का था, हो सकता है कि संघ या संघ पोषित कोई सरकारी या गैरसरकारी अमला मुस्लिम नामों से अकाउण्ट चलाता है, या फिर चैनल ही खुद इस तरह की आईडी बनाकर काम दिखाता हो? इसी तरह इस बार ईमेल की जगह ‘‘ ट्वीटर ’’का सहारा लिया जा रहा है। जिस तरह ईमेल आईडी में इसका बात का कोई प्रमाण नहीं होता कि जो अकाउण्ट बनाने और चलाने वाला अपने ही नाम पते से बना व चला रहा है इसी तरह ट्वीटर व अन्य दूसरी नेटवर्किंग साइटों पर भी अकाउण्ट बनाने व चलाने के समय किसी तरह के पहचान प्रमाणित करने की जरूरत नहीं होती। हम यहां ईमेल, ट्वीटर, फेसबुक की एक एक आई लिख रहे है। क्या कोई यह प्रमाणित कर सकता है कि इन तीनों अकाउण्ट को बनाने व चलाने वाला हिन्दू है या मुसलमान, शरीफ है या अपराधी? देखिये और बताई, जवाब के लिए नीचे हमारी ईमेल लिखी जा रही है। Email- kadwi.baat@gmail.com, Facebook A/c- Ramesh Gupta, Twiter A/c- Adil Shamsi@MERI_CHUNAUTI - क्या कोई बता सकता है कि ये अकाउण्ट किस किस व्यक्ति के हैं इन अकाउण्टों में दी गयी जानकारियां सही है या झूठी? हम दावे के साथ कह सकते है कि किसी भी ईमेल, ट्वीटर, फेसबुक अकाउण्ट को बनाने इस्तेमाल करने वाले की वास्तविक पहचान कोई नहीं बता सकता केवल यह जरूर पता लगाया जा सकता है कि किस क्नैक्शन (फोन नम्बर) से चलाया जा रहा है वह भी तब जबकि प्रयोग कर्ता एक ही नम्बर से चलाये लेकिन कैफे सुविधा के दौर में यह बताना भी नामुम्किन है कि किस नम्बर से चलाया जा रहा। साथ ही हम चैलेंज के साथ कह सकते है कि देश में आज भी 50 फीसद से ज्यादा मोबाइल क्नैक्शन फर्जी पहचान-पत्रों से चल रहे हैं ऐसी स्थिति में असल गुनाहगार की पहचान करना मुम्किन ही नहीं। इन सारी सच्चाईयों को जानने के बाद भी दिल्ली हाईकोर्ट ब्लास्ट के सम्बन्ध में सिर्फ एक ही चैनल को मिलने वाली मेल का विस्वास कैसे किया जा सकता है? अब बोधगया के मामले में ट्वीटर अकाउण्ट की बात की जा रही है तो क्या गारन्टी है कि यह अकाउण्ट फर्जी नहीं है ब्लास्ट करने कराने वाले ने ही यह अकाउण्ट बनाया हो जिससे कि मुस्लिमों को आसानी से फंसाया जा सके, जैसा कि मीडिया, संघ, आईबी कोशिशें करती नज़र आ भी रही है। संघ लाबी ने कहा कि म्ंयामार के बदले में किये गये धमाके। क्या बात है सारे अन्तरयामी इकटठे हो गये संघ लाबी में। म्यांमार आतंकवाद का बदला अब एक साल बाद लेगें मुसलमान? चलिये इन अन्तरयामियों की बात ही मान लेते है तो याद करे कि म्यांमार में आतंकियों ने सैकड़ों बेगुनाह मुसलमानों का कत्लेआम किया था बोधगया में तो एक भी नहीं मारा गया, क्यों? क्योंकि पिछले सभी धमाकों की तरह ही ये धमाके भी मुसलमानों को फंसाने और इस्लाम को बदनाम करने के लिए पूरी सूझबूझ व एहतियात के साथ किये गये जिससे कि न मन्दिर को नुकसान पहुंचे ओर न ही वहां आने वाले श्रद्धालुओं को। इसी तरह गुजरे दिनों अफजल गुरू के कत्ल के बाद मोके का फायदा उठाते हुए हैदराबाद में भी धमाके किये गये ओर बड़ी ही आसानी से मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराकर जुल्म शुरू कर दिये गये। मालेगाँव के बम धमाके आतंकी कर्नल श्रीकांत, आतंकी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और उसके गैंग ने किये शुरू में ही दर्जनों मुस्लिमों को फंसाया गया, लेकिन हेमन्त करकरे ने बेनकाब कर दिया। अजमेर दरगाह में बम विस्फोट आतंकी असीमानंद, आतंकी इंद्रेश कुमार (आरएसएस का सदस्य), आतंकी देवेंद्र गुप्ता, आतंकी प्रज्ञा सिंह, आतंकी सुनील जोशी, आतंकी संदीप डांगे, आतंकी रामचंद्र कलसांगरा उर्फ रामजी, आतंकी शिवम धाकड, आतंकी लोकेश शर्मा, आतंकी समंदर, आतंकी आदित्यनाथ ने किये शुरू में इन धमाकों की जिम्मेदारी मुसलमानों पर थोपने की भरपूर कोशिशें की गयीं लेकिन ईमानदार अफसर ने जल्दी ही साजिश से पर्दा उठा दिया। इसी तरह मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस के बम विस्फोट भी आतंकी असीमानंद ओर उसके गिरोह ने किये। नांदेड बम विस्फोट संघ कार्यकर्ता राजकोंडवार ने किये उसके पास से नकली दाड़ी और शेरवानी , कुरता , पायजामा भी बरामद हुआ। गोरखपुर का सिलसिलेवार बम विस्फोट को आफताब आलम अंसारी पर थोपा गया लेकिन इशरत जहां ओर अफजल गुरू के मामलों में तेयार किये गये सबूत और अस्लाह बारूद का इन्तेजाम न कर पाने की वजह से पुलिस अंसारी को पूरी तरह नहीं फंसा सकी, बाइज्जत बरी कर दिये गये। असल जिम्मेदारों को बचाने के लिए मामला अज्ञात में तरमीम कर दिया। मुंबई ट्रेन बम विस्फोट काण्ड, घाटकोपर में बेस्ट की बस में हुए बम विस्फोट, वाराणसी बम विस्फोट, में किसी मुस्लिम को फंसाने के लिए पूरा इन्तेजाम नहीं हो सका तो अज्ञात में दर्ज करके दबा दिया गया। कानपुर बम विस्फोट बजरंग दल कार्यकर्ता आतंकी भूपेन्द्र सिंह छावड़ा और राजीव मिश्रा ने किया। गौरतलब बात यह है कि इन सभी आतंकियों सरकार दस-दस साल से सरकारी महमान बनाकर पाल रही है आजतक अदालतें सजा सुनाने तक नहीं पहुंची जबकि कस्साब ओर अफजल गुरू के मामलों दो साल के अन्दर ही सजा सुना कर ठिकाने लगा दिया गया। दरअसल देश में धमाके करने वाले यह जानते है कि अब कोई दूसरा हेमन्त करकरे पैदा नहीं होगा जो इनके चेहरो से नकाब हटाकर दूध का दूध पानी का पानी करके दिखा दे, और हरेक मामले की जांच भी सीबीआई से नहीं कराई जाती इसलिए साजिशें करने वालों सभी रास्ते पूरी तरह आसान हो गये हैं, पूरे इत्मिनान के साथ बम लगाकर धमाके कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि मुसलमानों के खिलाफ की जा रही साजिशों में सिर्फ आरएसएस, आईबी, मीडिया ही शामिल हो बल्कि इसमें कांग्रेस भी पूरी तरह से शामिल है। गुजरात आतंक के हाथों किये गये मुस्लिम कत्लेआम से खुश होकर मास्टरमाइण्ड को सम्मानन व पुरूस्कार दिये जाने की कांग्रेसी करतूत को देख लें या इशरत जहां के कत्ल का मामला ही उठाकर देखें, ‘‘ आईबी ’’ सोनिया गांधी नामक रिमोट से चलने वाले केन्द्र की कांग्रेस बाहुल्य यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार के नियन्त्रण में है और इसके बावजूद आईबी ने बेगुनाह लड़की इशरत जहां के कत्ल की साजिश रचकर उसका कत्ल करा दिया, हैदराबाद ब्लास्ट को लेकर भी मुस्लिमों को फंसाने के साथ ही अब बोधगया मन्दिर में ब्लास्ट करने वालों को बचाने के लिए मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया, और केन्द्र सरकार आईबी की कारसाजि़यों को देखकर गदगद हो रही है। क्यों नहीं रोक रही आईबी को मुसलमानों के खिलाफ संघ लाबी के साथ मिलकर साजिशें रचने से? क्योंकि कांग्रेस आरएसएस का ही दूसरा रूप है और सोने पर सुहागा कांग्रेस की लगाम हमेशा से ही नेहरू परिवार के हाथों में रही है नेहरू की मुसलमानों के खिलाफ साजिश का ही नतीजा है कि देश का बटंवारा हुआ। खैर, अब बात करें बोधगया मन्दिर में किये गये धमाकों की। सवाल यह है कि बोधगया में धमाके करने का उद्देश्य क्या था? हम बताते हैं इन धमाकों का उद्देश्य क्या है। धमाके कराने के दो मुख्य उद्देश्य हैं पहला यह कि मन्दिर जैसे धार्मिक स्थान पर धमाके होने से हिन्दू वोट का एकीकरण होगा जिसका पूरा पूरा फायदा आगामी लोकसभा चुनावों में आरएसएस यानी (बीजेपी) को होना तय है और बीजेपी की सीटें बढ़ने का मतलब है प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करके पूरे देश में गुजरात आतंकवाद को दोहराये जाने की योजना। दूसरा मकसद यह कि मन्दिर में धमाके की जिम्मेदारी आईबी ओर मीडिया के साथ मिलकर मुसलमानों पर थोंपकर मुसलमान और इस्लाम को पूरी तरह से आतंकी मजहब घोषित कर देने की योजनायें। धमाके करने वालों की मजबूती यह है कि वे जानते हैं कि न तो इन धमाकों की जांच सीबीआई से कराई जायेगी और न ही अब हेमन्त करकरे वापिस आकर असल आतंकियों को बेनकाब करेंगे। कुल मिलाकर अब मुसलमान को सोचना होगा कि उसे क्या करना है? वोटों के सौदागर मुल्लाओं के झांसे में आकर वोट बर्बाद करके पूरे देश में गुजरात कायम कराना है या फिर गुजरे उ0प्र0विधानसभा चुनावों की तरह ही लोकसभा चुनावों में भी मुस्लिम वोट की ताकत का एहसास कराना है। हमारा मतलब यह नहीं कि इस लोकसभा चुनावों में भी सपा को ही चुना जाये बल्कि मतलब यह है किअपने अपने क्षेत्र में सिर्फ उस प्रत्याशी को एकजुट होकर वोट करें जो बीजेपी प्रत्याशी को हराने की स्थिति में हो, साथ ही कांग्रेस से बच कर रहने में ही मुसलमान की भलाई है।

Sunday, 7 July 2013

दोराहे पर खड़ा कानून

       
इशरत जहां बेगुनाह तो थी ही साथ ही आतंकी भी नहीं थी, यह बात कई बार जांचों में सामने आ चुकी है तमाम सबूतों के बावजूद हर बार की जांच रिर्पोटों को दफ्नाकर नये सिरे से जांच कराई जाने लगती है। इस बार सीबीआई ने शहीद हेमन्त करकरे की ही तरह हकीकत को बेनकाब कर दिया हालांकि सीबीआई ने अभी प्रारम्भिक रिपोर्ट ही पेश की है और सबूत इकटठा करने के लिए समय भी मांगा है। सीबीआई की रिपोर्ट को सूनकर नासमझ लोग मानने लगे कि अब इशरत को इंसाफ मिलेगा। मिलेगा क्या?
कम से कम हमें तो उम्मीद नहीं कि इशरत को इंसाफ मिलेगा। इंसाफ का मतलब है कि उसके कातिलों यानी कत्ल करने और करवाने वालों को सज़ायें दी जाए, जोकि किसी भी हाल में सम्भव नहीं, हां दो एक प्यादों को जेल में रखकर दुनिया को समझाने की कोशिश जरूर की जायेगी। जैसा कि देश के असल आतंकियों के मामलों में आजतक किया जाता रहा है। हां अगर मकतूल इशरत की जगह कोई ईश्वरी होती और कातिलों के नाम मोदी, कुमार, सिंह, वगैरा की जगह खान अहमद आदि होते, तब तो दो साल भी नहीं लगते और फांसी पर लटकाकर कत्ल कर दिये गये होते जैसा कि सोनिया गांधी नामक रिमोट से चलने वाली कांग्रेस बाहुल्य मनमोहन सिंह सरकार के इशारे पर कानून मुस्लिम बेगुनाहों के साथ करता रहा है। इशरत जहां को बेवजह ही कत्ल कराया गया, किसने कराया उसे कत्ल? जाहिर सी बात है कि मोदी ने ही कराया। इस बात को खुद कातिलों की रिपोट में कहा जा चुका है। कातिलों ने रिपोट में कहा था कि इशरत जहां मोदी की हत्या करने आई थी, बड़े ही ताआज्जुब की और कभी न हज़म होने वाली बात है कि जो शख्स खुद हज़ारों बेगुनाहों का कत्लेआम करे उसे भला कौन मार सकता है? क्या गुजरात में आतंकियों ने जिस तरह बेगुनाहों का कत्लेआम किया था वे भी मोदी को मारने आये थे? इशरत को कत्ल कराकर गुजरात पोषित मीडिया भी खूब नंगी होकर नाचती दिखाई पड़ रही थी, नो साल के लम्बे अर्से में दर्जनों बार जांचें कराई जा चुकी हैं हर बार आतंक बेनकाब होता गया, हर बार की जांच को दबाकर नये सिरे से जांच कराई जाती है। हर जांच में साु हो जाता है कि आतंक के हाथों शहीद कर दी गयी इशरत जहां बेगुनाह थी उसे मोदी के इशारे पर कत्ल किया गया, सीबीआई ने तो एक हकीकत और खोलदी कि इशरत कई हफ्ते से पुलिस हिरासत में थी। सीबीआई के इस खुलासे से यह भी साबित हो जाता है कि इशरत को कत्ल कराने में मोदी की साजिश थी, उसको कत्ल करने के बाद कहा गया कि वह मोदी को मारने आई थी ऐसा कैसे हो सकता है कि हिरासत में रहने वाला इंसान किसी को मारने पहुंचे वह भी दुनिया के सबसे बड़े कत्लेआम के कर्ताधर्ता को? कातिलों ने इशरत को आतंकी साबित करने के स्वनिर्मित मुस्लिम संगठन के नाम का सहारा लिया कि अमुक संगठन ने इशरत को शहीद कहा, क्या नाटक है कि पहले बेगुनाहों को कत्ल करो फिर उसके कत्ल पर आंसू भी न बहाने दो।
अब एक बड़ा सवाल यह पेदा होता है कि सीबीआई जांच से पहले भी कई बार जांचें कराई जा चुकी है जिनमें इशरत के बेगुनाह होने के सबूतों के साथ मोदी के सरकारी आतंकियो द्वारा कत्ल किये जाने का खुलासा हो चुका है लेकिन जब जब जांच इशरत के कत्ल में मोदी की तरफ इशारा करती है तब तब उस रिपोर्ट को दबाकर नये सिरे से जांच शुरू करादी जाती है जिससे कि आतंक सजा से बचा रहे, इस बार सीबीआई ने पिछली सभी रिपोर्टों का प्रमाणित कर दिया। क्या सीबीआई की रिपोर्ट को आखिरी मानकर कानून कुछ दमदारी से काम लेने की हिम्मत जुटा पायेगा? उम्मीद तो नहीं है। क्योंकि अदालतों में बैठे जजों को भी अपनी अपनी जानें प्यारी हैं कोई शहीद हेमन्त करकरे जैसा हाल नहीं करवाना चाहता।
यह तो थी बात शहीद इशरत जहां को गुजरात पोषित आईबी और मीडिया द्वारा आतंकी प्रचारित करने की, पहले कराई गयी जांचों को तो पी लिया गया, तो क्या सीबीआई की रिपोर्ट भी दफ्नाने के इरादे हैं? यह एक खास वजह है कि सीबीआई ने (दोनों दाढि़यों) मोदी और शाह का नाम नहीं लिया और न ही प्यादे का नाम अभी खोला है, हो सकता है कि सीबीआई अधिकारियों को शहीद हेमन्त करकरे का हवाला देकर डराया गया हो। वैसे भी धमकियां तो दी ही गयीं यह सारी दुनियां जान चुकी है। याद दिलाते चलें कि देश में बीसों साल से जगह जगह धमाके कराकर बेकसूर मुस्लिमों को फंसाया जाता रहा कत्ल किया जाता रहा, कभी मुठभेढ़ के बहाने तो कभी फांसी के नाम पर, मगर किसी भी साजिश कर्ताओं या जांच अधिकारी का कत्ल नहीं हुआ, और जब शहीद हेमन्त करकरे ने देश के असल आतंकियों को बेनकाब किया तो उनका ही कत्ल कर दिया गया, और उसका इल्ज़ाम भी कस्साब के सिर मंढ दिया। हम यह नहीं कह रहे कि सीबीआई के अधिकारी आतंक की धमकियों से डर गये, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि असल आतंकियों ओर उनके मास्टरमाइण्ड या अन्नदाता की चड्डी उतारने की गलती करने वाले की जान खतरे में आ जाती है जैसा कि हेमन्त करकरे के साथ हुआ। मान लिया कि सीबीआई पर धमकियों का कोई असर नहीं पड़ा तब आखिर सीबीआई के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी कि आतंक के कर्ताधर्ताओं को नज़र अंदाज कर गयी।
दर्जनों बार जांचें कराये जाने और सबका नतीजा लगभग एक ही रहने, यहां तक सीबीआई जैसी बड़ी संस्था की रिपोर्ट भी आ जाने के बाद अब सवाल यह पैदा होता कि ‘‘ बड़े मास्टरमाइण्ड के अलावा जिन प्यादों के नाम सामने आये हैं उन्हें कब तक सज़ायें सुनाई जायेगी? क्या उनको भी मास्टर माइण्ड की तरह ही कुर्सियों पर जमाये रखा जायेगा, या आतंकी असीमानन्द, प्रज्ञा ठाकुर, वगैराह की तरह ही सरकारी महमान बनाकर गुलछर्रे उड़वाये जायेगे? या फिर मजबूत सबूत न मिलने के बावजूद मुस्लिम नौजवानों की तरह ही चन्द दिनों में ही सज़ा दे दी जायेगी? कम से कम हमें तो ऐसी उम्मीद नहीं क्योंकि इस मामले में कातिलों को अभयदान मिलने के दो मजबूत कारण हैं, पहला यह कि मकतूलों के नाम इशरत, असलम, जावेद, अमजद थे नाकि ईश्वरी, राजेश,कुमार, सिंह वगैराह। दूसरी वजह यह है कि कातिलों ओर साजिश कर्ताओं के नाम मोदी, अमित, राजेन्द्र, बंजारा आदि। ये दोनो ही बड़ी वजह हैं अदालतों और कानून की राह में रोढ़े अटकाने के लिए। हम बात कर रहे हैं इशरत के कातिलों और उसके मास्टरमाइण्ड को हाल ही में किये गये तीव्र गति से फैसलों की तरह ही सज़ाये दी जायेगी या फिर किसी न किसी बहाने लम्बा लटकाकर रखा जायेगा? कम से कम अभी तक तो कानून की कारगुजारियां यही बताती हैं कि इशरत के कातिलों का बाल भी बांका नहीं होगा ओर कम से कम तबतक तो नहीं जबतक कि केन्द्र में कांग्रेस का कब्जा है, गौरतलब पहलू है कि जिस आतंक से खुश होकर केन्द्र की कांग्रेस बाहुल्य मनमोहन सिंह सरकार ने खुश होकर मास्टरमाइण्ड को सम्मान व पुरूस्कार दिया हो उसी काम पर आतंक को सज़ा कैसे होने देगी। साथ ही सीबीआई के अुसर भी तो इंसान हैं उनके भी घर परिवार हैं वे कैसे गवारा कर सकते हैं हेमन्त करकरे जैसा हाल करवाना? खैर अभी सीबीआई की फाइनल रिपोर्ट का इन्तेजार करना होगा, देखिये फाइनल रिपोर्ट क्या आती है अभी दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि सीबीआई के अफसरान डर नहीं सकते।
फिलहाल तो इन्तेजार करना ही होगा कि कानून गुजरे दिनों की तरह ही काम करते हुए संघ, बीजेपी, के अन्तःकरण को शान्त करने के लिए वह फैसला सुनाता है जो कातिलों का आका और मास्टरमाइण्ड चाहता है जैसा कि मुस्लिम नौजवानों के मामलों में करता रहा है। या फिर कानून पर लगे निष्पक्ष संविधान नामक लेबल को सार्थक करते हुए गौर करता है?
चलिये छोडि़ये इशरत और उसके साथियों के कत्ल की बात, अब सवाल यह पेदा होता है कि मकतूलों के पास से बरामद हथियार भी तो राजेन्द्र कुमार नही ही दिये थे यह पुष्टि सीबीआई ने करदी है, कया भारत का कानून गैरकानूनी और प्रतिबन्धित हथियार रखने के मामले में राजेन्द्र को सजा देने की हिम्मत जुटा पायेगा? या इस मामले में भी समाज विशेष के अन्तःकरण को शान्त करने की कोशिश करेगा?


Sunday, 9 June 2013

लालबत्तियां-लैपटाप डुबोएगे सपा की नैया

         
उ0प्र0 की पूर्व मुख्यमंत्री ने सूबे की गुलाम जनता की खून पसीने की गाढ़ी कमाई को अपनी मनमानी करते हुए पत्थरों पर लुटाया। मायावती के हाथों गुलामों की कमाई को पत्थरों पर लुटाये जाने की करतूत पर समाजवादी पार्टी रात दिन चीखती चिल्लाती रही, सपा मुखिया ने बार बार कहा कि  "पैसा जनता का है इसे जनता पर ही खर्च किया जाना चाहिये"। सपा की बयानबाजी से लग रहा था कि गुलामों का हमदर्द सपा और मुलायम सिंह से ज्यादा कोई है ही नहीं। लेकिन अब जब कि मुलायम सिंह के ही इशारों पर चलने वाली खुद उनके बेटे अखिलेश यादव की सरकार है यानी वर्तमान में अखिलेश याद व ही  "यूपी नरेश"  हैं और सूबा उनकी मिलकियत है। मायावती ने गुलामों की गाढ़ी कमाई को पत्थरों पर ठिकाने लगाया तो अखिलेश यादव लालबत्तियों, लैपटाप और टैबलेट के बहाने मायावती की राह पर चल रहे हैं। पूर्व और वर्तमान में एक बड़ा फर्क यह है कि जब मायावती के हाथ थे खजाने को मनमाने ढंग से खाली करने के काम में, और आज खुद मुलायम के बेटे के हाथ हैं शायद यही वजह है कि आजमुलायम सिंह को न तो जनता के गाढ़ी कमाई की चिन्ता सता रही न ही जनता के पेसे को जनता के विकास पर खर्च करने का तर्क याद आ रहा है। खैर फिलहाल तो उत्तर प्रदेश मुलायम परिवार की ही मिलकियत है शाही खजाना उनकी सम्पत्ति है उनको अधिकार है कि वे अपनी सम्पत्ति को जो मन चाहे करें गुलाम जनता को एतराज करने का अधिकार ही नहीं, आखिर पूरे भारत वासियों के नसीब में ही गुलामी है कभी विदेशियों का गुलाम बनकर रहना तो कभी देसियों की गुलामी में रहना।
यूपी नरेश अखिलेश यादव आगामी 2014 के लोकसभा चुनावों पर निशाना साधें हुए हैं। दरअसल अखिलेश यादव को लगता है कि मुस्लिम वोटों के सौदागरों को लालबत्तियां देकर मोटी कमाइयां करने के मोके दे देने से या लैपटाप, टैबलेट बांट देने से ही गुजरे विधान सभा चुनावों के हालात लोकसभा चुनावों में भी दोहराये जायेंगे, तो यह अखिलेश यादव की सबसे बड़ी भूल है। सबसे पहले बात करें चने मूंफलियों की तरह बांटी जा रही लालबत्तियों की। अखिलेश यादव को लगता है कि एक ही दरगाह से जुड़े लोगों को कई कई लालबत्ती दे देने से सूबे और देश का मुस्लिम वोट थोक भाव में समाजवादी पार्टी के खाते में आ जायेगा, जबकि हकीकत यह है कि कुछेक लालबत्तियां सपा की नैया डुबोने के लिए काफी हो गयी हैं। मुसलमान खुद कई टुकड़ों में बांट दिया गया है बरेली की एक ही दरगाह के दो लोगों को लालबत्ती की कमाई को मौका दिये जाने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश का 90 फीसद से ज्यादा मुस्लिम वोट सपा के खाते से कट गया क्योंकि इन मुसलमानों के बीच कभी खत्म न होने वाला मतभेद पैदा किया गया है सोचिये कि अगर पुर्व मंत्री हाजी याकूब कुरैशी द्वारा मुस्लिमों के हक के लिए और दुनिया के सबसे बड़े आतंकी के खिलाफ तर्क संगत बात करने पर तौकीर रजा को फिरका परस्ती के चलते एतराज हो सकता है तोकीर रजा द्वारा हाजी याकूब कुरैशी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की मांग की जा सकती है तो क्या आज  हाजी याकूब या उनके वर्ग के मुसलमानों को अखिलेश यादव की तोकीर रजा से करीबी का एतराज नहीं होगा? होना भी चाहिये तर्क संगत बात है। इस तरह से समाजवादी पार्टी को पूरे पश्चिमी उ0प्र0 में मुस्लिम वोटों का जबरदस्त नुकसान होना तय है, यही हालात लगभग पूरे सूबे में दिखाई पड़ रहे हैं। अब अगर सुन्नी वहाबी देवबन्दी शिया फिरकों के अलावा सिर्फ सुन्नियों की ही बात करें तो यहां हालात यह हैं 75 फीसद मुस्लिम वोट सपा से कट चुका है जिसकी तस्वीर 2014 में विश्व भर के सामने आ जायेगी। दरअसल मुसलमानों के सुन्नी फिरके में भी बड़े पैमाने पर तिफरका डाला जा चुका है, तमाम खानकाहों को नीचा दिखाने की कोशिशों के नतीजे में लगभग सभी खानकाहें और इनसे तआल्लुक रखने वाले मुसलमान इनसे दूरी बना चुके हैं ऐसे में  तौकीर से सपा की घुसपैठ दूसरी खानकाहों से जुड़े मुसलमानों को सपा से दूरी बनाने पर मजबूर कर चुकी है। कुल मिलाकर अखिलेश यादव द्वारा बांटी जा रही लालबत्तियां ही सपा के पतन का कारण बनेंगी, वह दिन दूर नहीं जब समाजवादी पार्टी सूबे साथ साथ देश भी में उसी स्थान पर खड़ी नजर आयेगी जहां 1992 के बाद से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पड़ी है।
आइये अब बात करें अखिलेश यादव द्वारा बांटे जा रहे लैपटाप और टैबलेट की। इसमें सबसे पहले सवाल यह पैदा होता है कि कितने छात्रों की माली हालत इस काबिल है जो वे लैपटाप या टैबलेट का इस्तेमाल कर सकते हैं ? इस बात की क्या गारन्टी है कि जिन छात्रों को लैपटाप या टैबलेट दिये जा रहे हैं वे खुद इस्तेमाल करेंगे या उन्हें उससे क्या लाभ होगा ? कितने छात्रों की माली हालत ऐसी है जो 300 से 500 रूपये मासिक पर कम्पूटर कोंिचग करके लैपटाप चलाना सीख लेंगे ? कितने छात्रों के घरों पर सरकार ने बिजली की सुविधा देदी है जिससे वे अखिलेश यादव के लैपटाप की बैट्रियां चार्ज कर सकेगे ? क्या लैपटाप या टैबलेट से रोटी निकलेगी जिससे छात्रों का पेट भर सके ? हम यह बात दावे के साथ कह सकते हैं कि न तो लैपटाप या टैब्लेट से रोटी डाउनलोड होगी, और न ही 60 फीसदी बच्चों की माली हालत इस काबिल है जो कम्पूटर कोचिंग जाकर कुछ सीख सकें, आज भी 70 फीसदी छात्र ऐसे गांवों में रहते हैं जहां बिजली का नामो निशान तक नहीं है, 50 फीसदी छात्र ऐसे है जिन्हें मिलने वाले लैपटाप का इस्तेमाल उनके परिजन करेंगे ऐसे में साफ है कि करोड़ों रूपये पर पानी फेरकर दिये जा रहे लैपटाप या टैबलेट का 0.1 फीसद भी लाभ छात्रों को नहीं मिलने वाला। अगर यह मानें कि छात्रों को कोई फायदा हो या न हो कम से कम सरकार या सपा को तो फायदा होगा तो यह हमारी गलतफहमी के सिवा कुछ नहीं क्योंकि सपा को सफाये से बचाया नहीं जा सकता। सिर्फ मुस्लिम वोटों के सौदागरों को लालबत्ती देकर मोटी कमाई के मौके दे देने से ही सारा मुस्लिम वोट नहीं मिलने वाला बल्कि अखिलेश यादव की ये ही लालबत्तियां सपा की नैया को डुबोयेगी साथ ही गुलामों के खून पसीने की गाढ़ी कमाई को मनमाने तरह से उड़ाने का फार्मूला भी समाजवादी पार्टी का पत्ता साफ करने की तैयारी में है।
(इमरान नियाजी-09410404892)

Thursday, 11 April 2013

सफाये की तरफ बढ़ती सपा



इस बार विधान सभा चुनावों में उ0प्र0 के मुस्लिम वोट के साथ ही दूसरे अमन पसन्द, सैकूलर वोट भी समाजवादी पार्टी को मिले समाजवादी पार्टी को उम्मीद से कहीं ज्यादा सीटे मिलने की एक खास वजह थी अखिलेश यादव का चेहरा। मतदाताओं में अखिलेश यादव से कुछ उम्मीदें जागीं थी लोगों का मानना था कि जब पढ़ा लिखा मुख्यमंत्री होगा तो कुछ न कुछ तो सूबे का पहिया रफ्तार पकड़ेगा ही, लेकिन दिल के अरमां भत्तों में दबकर कुचल गये। अखिलेश यादव की सरकार भी सपा के पुराने ढर्रे पर ही चल रही है सूबे की भलाई के लिए तो कुछ हुआ नहीं उल्टे एक साल में 27 साम्प्रदायिक दंगों को नया रिकार्ड जरूर बन गया। अखिलेश यादव गुलाम वोटरों की उम्मीदों पर नाम मात्र भी खरे नहीं उतरे। अखिलेश यादव जनता के पैसे को बांटने और पिछली सरकार के किये कामों का फटटा पलटने में ही वक्त गुजारने में व्यस्त हैं। चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश यादव ने लगातार गुलाम जनता को यह यकीन दिलाने की कोशिश की थी कि इस बार बाहुबलियों से दूरी बनाये रखी जायेगी, अपनी इस घोषणा पर लोगों को सुन्हरे सपने दिखाने के लिए अखिलेश ने डीपी यादव को कुर्बानी का बकरा बनाया यानी चुनावों के दौरान डीपी यादव से दूरी बनाकर यह जताने की कोशिश की कि सपा और खासतौर पर सरकार में बाहुबलियों के लिए जगह नहीं रहेगी। सदियों से ही झासों में आने की आदी हुई सूबे की गुलाम जनता एक बार फिर सपनों में डूब गयी। लेकिन बाहुबलियों से दूर रहने की अखिलेश की घोषणा सिर्फ चुनावी बात थी तो सरकार बनते बनते सपा अपने असल रूप में आने लगी और राजा भैया जैसे शख्स को न सिर्फ समर्थक बनाया बल्कि कमाई में हिस्सेदारी भी दे दी, जिसका खमियाजा देश ने एक ईमानदार और होनहार डीएसपी को भुगतना पड़ा। इसी तरह कई और भी बाहुबली विधायक, सांसद तो हैं ही मंत्री भी हैं साथ साथ फिलहाल हर साईकिल सवार दबंगी के लबादे में फिरता नजर आ रहा है जिसमें कि सरकारी बिरादरी का तो कहना ही क्या है बस सरकारी बिरादरी का हर शख्स मुख्यमंत्री है। यही नहीं साईकिल सवार छुटभैये भी वीआईपी हो गये है। मायावती ने मुसलमानों को पूरा पूरा कुल्हड़ समझकर लालबत्ती थमा दी माया को लगा था कि इसको लालबत्ती थमा देने से सूबे भर का मुस्लिम वोट बसपा का जागीरी वोट बन जायेगा, लालबत्ती देने के बाद जब माया ने खुफिया तन्त्र से आकलन कराया तब पता चला कि सूबे भी के करोड़ों वोट तो दूर शहर के ही 25 वोट नहीं बढ़ सके, माया ने बिना देर किये लालबत्ती वापिस लेली। अब अखिलेश ने भी माया के कदम पर कदम रखते हुए लालबत्ती थमाकर मुसलमानों पूरा पूरा उल्लू समझने की कोशिश की, अखिलेश यादव ने तो मायावती से भी ज्यादा घाटे की सौदा की है अखिलेश की इस लालबत्ती से तो पांच वोटों को इजाफा भी होने वाला नहीं उल्टे लाखों वोट हाथ से निकल जरूर गये। अखिलेश यादव की हर कानून व्यवस्था की कसौटी पर पूरी तरह फेल हो गयी है। पिछली सरकार के दौर में गुलाम जनता की शिकायतों को रददी की टोकरी में डालने का चलन था लेकिन अखिलेश यादव की सरकार में शिकायतों को फाड़कर फेंक देने की व्यवस्था ने जन्म ले लिया। मिसाल के तौर पर जिला लखीमपुर खीरी के थाना निघासन में अदालत के आदेश के बाद धारा 420, 467, 468, 216, 217 आईपीसी के तहत मुकदमा कायम हुआ, विवेचनाधिकारी ने रिश्वत लेकर बिना ही कोई जांच किये घर में बैठे बैठे एफआर लगादी जिसे अदालत ने ठुकरा कर पुनः विवेचना के आदेश दिये। अदालत के इस आदेश को छः साल गुजर चुके हैं निघासन थाना पुलिस ने विवेचना के नाम पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया। इसकी कई बार सूचना अखिलेश यादव की दी जा चुकी है लेकिन नतीजा शून्य। बरेली के थाना प्रेमनगर में वर्ष 1   को अदालत के आदेश के बाद दर्ज किये गये मोटरसाईकिल लूट के मुकदमें में गुजरे साल से मुल्जिमान के गैरजमानती वारण्ट चल रहे हैं और नामजद मुल्जिमान रोज थानों में बैठकर दलाली का धंधा कर रहे हैं यहां तककि थाना प्रेमनगर में भी दलाली करने के लिए घण्टों बैठे हुए देखा गया है आजतक किसी की हिम्मत नहीं हुई कि कई साल से गैरजमानती वारण्ट पर चल रहे इन आटोलिफ्टरों को अरैस्ट करके अदालत में पेश करे। मुलायम सिंह को मुसलमानों को मसीहा कहा जाता है मुसलमान भी समाजवादी पार्टी को अपना बड़ा ही खैरख्वाह समझते हैं लेकिन ऐसी एक भी वजह नजर नही आती जिससे बलबूते यह माना जाये कि समाजवादी पार्टी पूरी तरह से सैकूलर है या मुसलमानों की सच्ची हमदर्द है। सपा की अखिलेश यादव सरकार के एक साल में 27 दंगे,  गुजरे साल सावन माह में बरेली जिले में कांवरियों द्वारा शुरू किये गये उन्माद के बाद महीना भर तक कफर््यु रहा, कफर््यु के दौरान ही प्रशासन ने एक नई परम्परा की शुरूआत करते हुए संगीनों के बल पर नये रास्ते से कांवरियों को गुजारना शुरू किया विरोध को दबाने के लिए पहले ही बेहिसाब संगीनों से मुस्लिम इलाके को पाट दिया गया, इसी साल होली के मोके पर थाना सीबी गंज के महेशपुर अटरिया में एक नई जगह होली जलवाकर नई प्रथा की शुरूआत कराई गयी, थानाध्यक्ष से लेकर कप्तान तक कोई भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं है। सपा को मुस्लिम हिमायती के नाम से मशहूर करके ज्यादा तर मुस्लिम वोट पर पकड़ बनाने वाले सपा मुखिया ने पहले कल्याण से याराना किया और अब अडवानी की मुरीदी शुरू कर दी, और अब संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के गुणगान अलापने लगे। आम मुसलमान तो बेशक मुलायम सिंह की चाल को नहीं समझ पा रहा और जो थोड़ा बहुत समझने की कोशिश करता है तो उन्हें बिकाऊ मुस्लिम नेता और मुल्ला समझने नहीं देते लेकिन काफी हद तक बुद्धिजीवी मुस्लिम मुलायम सिंह और सपा के खेल को समझ चुका है। मुलायम सिंह और समाजवादी पार्टी  के बारे में जो कहा जाता है कि मुस्लिम हिमायती है इस बात की पोल मुलायम सिंह के दिल दिमाग में बैठे कल्याण, अडवानी, और मुखर्जी के प्रेम ने खोल कर रख दी है। बची कसर दुपहिया वाहनों से हैल्मेट के बहाने कराई जा रही उगाही ने पूरी कर दी। सूबे का बच्चा बच्चा इस सच्चाई को जाना है कि जब जब सूबे में सपा का शासन आया तब तब गुलाम जनता से हैल्मेट के नाम पर उगाही का बाज़ार गर्म हुआ इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। दरअसल सपा के एक कद्दावर नेता और सूबे के वर्तमान मालिक मुलायम सिंह परिवार का करीबी रिश्तेदार की हैल्मेट बनाने का फैक्ट्री है इसलिए पुलिसिया लठ्ठ के बल पर हैल्मेट बिकवाने की कवायद हमेशा होती रही है। अगर गुलाम जनता की खून पसीने की गाढ़ी कमाई की लूट और बर्बादी की बात की जाये तो सपा सरकार मायावती से चार कदम आगे दिखाई पड़ रही है। मायावती ने गुलाम जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई को मूर्तियों पर लुटाया तो अखिलेश यादव लैपटाप और बेरोजगारी भत्ते, कन्या विद्याधन के शक्ल में लुटाने में मस्त हैं। यही नहीं माया के राज में तो सिर्फ मायावती के दौरे के दौरान ही अघोषित कफर्यु लगवा कर आती थी लेकिन अखिलेश सरकार के छुटभैये मंत्री और परिषदों के अध्यक्षों के दौरों के लिए भी क्षे़ में कफर्यु लगवाया जा रहा है। सबूत के तौर पर होली के अगले ही दिन मंत्री आज़म खां के बरेली आगमन पर बिहारीपुर ढाल से मलूकपुर पुलिस चैकी तक का पूरा रास्ता गुलाम जनता पर वर्जित कर दिया गया था क्योंकि होली का अगला ही दिन था और आजम खां को रंगे पुते लोग देखना पसन्द नहीं। देखें   http://www.anyayvivechak.com/fetch.php?p=646  बची कसर आज बरेली में सालिड वेस्ट प्लान्ट के उदघाटन के समारोह में संचालिका सपा पार्षद ने यह घोषणा करके कि  "सपा के जो पार्षद हैं वे मंत्री जी का स्वागत करने के लिए आवें"। दूसरी तरफ एक साल के सपा शासन में क्राइम की जो बरसात हुई उसकी मिसाल ही नही मिलती। साथ ही मलाईदार कुर्सियों पर ब्रादरीवाद की प्रथा भी सपा को सफाये की तरफ तेजी से ले जा रही है, इस बिरादरीवाद का नतीजे पुलिसिया बलात्कार, अवैध रूप से जिसको चाहे हिरासत में लिये जाने, हिरासत में ही कत्ल कर दिये जाने, भुक्तभोगियों को ही पीटे जाने व हवालातों में डाले जाने, पुलिस अफसरों से सिपाही तक सभी स्तरों पर गुलाम जनता से बेगार कराये जाने जैसे कामों के बाजार गर्म होने के रूप में देखा जा सकता है।
कुल मिलाकर आज यह दावा शायद गलत नहीं होगा कि आगामी चुनावों में सपा का हाल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से कहीं ज्यादा बदतर होना लगभग तय ही है। इस बार विधानसभा चुनावों में जहां अखिलेश यादव ने अप्रत्याशित सीटें हासिल करके सबको चैकां दिया तो आगामी विधान सभा चुनावों में समाजवादी पार्टी का सफाया भी इतिहास रचने वाला ही होगा।

Thursday, 28 March 2013

रंगे पुते लोग देखना पसन्द नहीं आज़म को

त्योहार पर बन्द कराया रास्ता-परेशान हुए होली पर घूमने वाले
बरेली-होली के ठीक दूसरे दिन यानी आज यूपी नरेश दरबार के मंत्री मो0 आज़म खान बरेली मोहल्ला सौदागरान स्थित दरगाह पहुंचे। आज़म खान की यह यात्रा किसी धार्मिक उद्देश्य से न होकर पूरी तरह राजनैतिक थी आज़म खां को सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और यूपी नरेश अखिलेश यादव ने सपा की गिरती साख को बचाने की कोशिश के तहत दरगाह भेजा। दरअसल लगभग सभी राजनैतिकों को यह गलत फहमी है कि दरगाह पर चादर चढ़ा देने या दरगाह से जुड़े किसी भी व्यक्ति को लालबत्ती दे देने से देश प्रदेश का सारा मुस्लिम वोट उनकी जागीर बन जायेगा। खैर बात है आजम खां के आज होली त्योहार के ठीक अगले ही दिन बरेली आगमन और बिहारीपुर ढाल से मलूकपुर चैकी तक का पूरा रास्ता गुलाम जनता के लिए वर्जित किये जाने की। आजम खां के दरगाह आने से आधा घण्टा पहले से लेकर वापिस जाने तक लगभग डेढ़ घण्टा तक यह पूरा मार्ग गुलाम जनता के गुजरने के लिए वर्जित कर दिया गया था, लेकिन यह नफरत और प्रवेश निषेध वर्दीधारियों पर लागू नहीं थी। अगर इस मार्ग पर बिहारीपुर ढाल मन्दिर और मस्जिद बीबी जी पर गुलामों को गुजरने से रोकने के लिए तैनात पुलिस वालों की माने तो साफ हो जाता है कि आजम खां ने ही हुक्म दिया था कि उनके रास्ते में कोई होली के रंगों से रंगा पुता व्यक्ति दिखाइ्र नही देना चाहिये। ये बात गुलाम जनता को इस मार्ग पर कदम रखने से रोक रहे पुलिस कर्मियों ने खुद अन्याय विवेचक प्रतिनिधि से कही, पुलिस कर्मियों का कहना था कि मंत्री जी का आदेश है कि त्योहार का मामला है लोग सड़कों पर घूम फिर रहे है लेकिन मेरे आते जाते समय कोई दिखाई नहीं देना चाहिये। पुलिस कर्मियों की मजबूरी तो थी उनकी नौकरी, लेकिन यहां तो आजम खां के खौफ से भाजपा और आरएसएस के वे नेता भी थर थर कांपते नजर आये जो मामूली से मामूली बात पर खुराफात और बखेड़ा खड़ा करने के एक्सपर्ट हैं। त्योहार के दिन मार्ग अवरूध किये जाने की बाबत अन्याय विवेचक ने भाजपा एंव हिन्दू जागरण मंच के कुछ नेताओं से उनका रूझान जानना चाहा तो वे  सिर्फ इतना कहते दिखे कि  "भाई फिलहाल आजम पावर में है तो मनमानी ओर हिटलरी चलेगी ही"।
अब सवाल यह पैदा होता है कि आजम खां ने त्योहार के अवसर पर जब लोग होली मिलने अपनी
नातेदारों सम्बन्धियों के यहां आते जाते है ऐसे में रास्ता बन्द कराया अगर इस बात को लेकर हिन्दू संगठन बिखर जाते और शहर जल उठता तो इसका जिम्मेदार कौन होता? जब आजम खां को रंगे पुते लोग देखना पसन्द नहीं हैं तो होली के अगले ही दिन आने की क्या जरूरत थी ? क्या दरगाह पर हाजिरी देकर या दरगाह से जुड़े लोगों से सौदे करके सपा आगामी लोकसभा में अपनी गिरती साख को बचा पायेगी ? हम पहले भी बता चुके है कि किसी दरगाह से जुड़े लोगों को लालबत्तियां बाट कर सपा कुछ हासिल करने वाली नहीं है लेकिन अखिलेश यादव ने भी मायावती का फार्मूला आजमाने की कोशिश की है जबकि यह सच किसी से छिपा नहीं है कि आगामी लोकसभी में तो जो सफाया होगा तो होगा लेकिन अगली विधान सभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को छब्बीस सीटे भी मिलना मुश्किल ही नही बल्कि ना मुम्किन नजर आ रहा है। और सोने पर सुहागा आजम खां का होली के अगले ही दिन बरेली आना साथ ही होली के रंगों से रंगे लोगों को देखना पसन्द न करना, समाजवादी पार्टी और अखिलेश सरकार की लुटिया डुबोने के लिए काफी हैं।
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Friday, 15 March 2013

ईमानदारों अफसरों के कत्ल क्यों ?-इमरान नियाज़ी


हमारे महान भारत की महानता यह है कि ईमानदारी से कानून के दिशा निर्देश के मुताबिक अपना फर्ज अदा करना आत्महत्या करने की कोशिश बन गया है। यानी टुसरान की ईमानदारी और निषक्षता उनकी जान की दुश्मन बन जाती है वह चाहे शहीद हेमन्त करकरे हो या फिर डीएसपी जिया उल हक़। असल गुनाहगारों को बेनाकाब करना या करने की तरफ कदम बढ़ाने का सीधा मतलब है अपना कत्ल कराने की सुपारी देना। ईमानदारी चाहे आतंकवादियों को बेनकाब करने में बरती जाये या किसी डान की करतूतें खोलने में, नतीजा सिर्फ मौत। खासतौर पर आरएसएस लाबी के किसी भी ग्रुप या व्यक्ति को बेनकाब करना या करने की तरफ कदम उठाना आत्महत्या करने के बराबर है।
देश में होने वाले धमाकों के असल जिम्मेदारों को बचाने के लिए खुफिया एजेंसियां और जांच एजेंसियां हमेशा ही बेगुनाह मुस्लिमों को फंसाती रही है और आज भी वही कर रही हैं यहां तक कि अगर मौका लगा तो सीधे कत्ल ही कर दिया। लेकिन साजिशी तौर पर फर्जी फंसाया जाने के बावजूद बेगुनाहों ने किसी भी जांच अधिकारी का आजतक कत्ल नहीं हुआ, जबकि देश में धमाके करने वाले असल आतंकियों को बेनकाब करने वाले शहीद हेमन्त करकरे को कत्ल करने के लिए पूरी नाटक रचा गया। मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर दरगाह, समझौता एक्सप्रेस समेत देश में जगह जगह धमाके करने वाले यह जानते थे कि इस समय बम्बई के ताज होटल में कुछ पाकिस्तानी नागरिक ठहरे हुए हैं इस इसी का फायदा उठाते हुए ड्रामा तैयार किया गया और और मौका मिलते ही हेमन्त करकरे पर गोलियां दाग दी गयी, क्योंकि हत्यारे अच्छी तरह से जानते थे कि हेमन्त करकरे की हत्या का इल्जाम सीधे सीधे पाकिस्तानी अजमल कस्साब पर ही थुपेगा, आतंकी अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब हुए। यानी देश में धमाके और आतंकी हमले करने वालों को बेनकाब करने वाले को भी ठिकाने लगा दिया आतंकी इस काम में भी कामयाब हुए। हेमन्त करकरे के कत्ल से डरकर अब कोई भी अफसर ईमानदारी दिखाने की जुर्रत नहीं कर पा रहा, यहां तककि वकील भी सहमें हुए दिखे, मिसाल के तौर पर अफजल गुरू का मामला बारीकी से देखें। क्षेत्रीय थाना पुलिस से लेकर राष्ट्रपति तक सब ही करते गये जो आतंकी और उनके आका चाहते थे। दिल्ली हाईकोर्ट, और हाल ही में हैदराबाद में किये गये धमाकों समेत देश के सभी धमाकों के मामलों में खुफिया एजेंसियां, जांच एजेंसियां वही करती चली आ रही हैं जो धमाके करने वाले चाहते हैं। क्योंकि हेमन्त करकरे का हश्र देखकर हर अफसर समझ चुका है कि जरा भी ईमानदारी दिखाने का नतीजा सिर्फ मौत है।
इसी तरह इमानदारी दिखाने की कोशिश करके उ0प्र0 के डीएसपी जि़या उल हक़ ने अपनी जान गवां दी। जिला उल हक काफी ईमानदार अफसर थे और ऐसे मामले की जांच कर रहे थे जिसके तार सीधे उ0प्र0की अखिलेश यादव की सपाई सरकार के बाहुबली मंत्री राजा भैया से जुड़े हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी खददरधारी के खिलाफ कोई जांच किसी ईमानदार अफसर के हाथ में हो और वह अफसर दुनिया में रहे। बस यही एक वजह थी कि जिया साहब को भून दिया गया। जिया साहब के कत्ल में उनके अपने ही साथी भी कम जिम्मेदार नहीं। तआज्जुब की ही बात है कि भारी भरकम फोर्स की मोजूदगी में एक पुलिस अफसर पर गोलिया दागी जांए और पुलिस कुछ न करे, कोई दूसरा पुलिस वाला न मरे, कोई हमलावर न मरे.....? कुल मिलाकर हम  सिर्फ यही कह सकते हैं कि जिया उल हक साहब को दुश्मन कोई इंसान नहीं थी बल्कि खुद उनकी इमानदारी थी, इसलिए किसी को दोष देना ही बेकार है।
हेमन्त करकरे ओर जिया उल हक के कत्ल में एक बात कामन ह यहकि हेमन्त करकरे ने आरएसएस के आतंकियों को बेनकाब किया था, तो जिया उल हक आरएसएस बैकग्राउण्ड वाले मंत्री राजा भैया को बेनकाब करने की तरफ बढ़ रहे थे।

Saturday, 9 March 2013

आरएसएस के दिशा निर्देश में काम करती एटीएस


 
                                                      (इमरान नियाज़ी)
अजीब सी बात है कि अफजल गुरू के मारे जाने के तुरन्त बाद ही हैदराबाद में धमाके होते हैं, कश्मीर में सिपाहियों को गोलियों से भून दिया जाता है। हमेशा की ही तरह इस बार भी हैदराबाद में ब्लास्ट की आवाज से पहले ही मीडिया ने जिम्मेदारों के नामों की घोषणायें शुरू कर दीं। आरएसएस पोषित मीडिया धड़ों ने ऐसा पहली बार नहीं किया बल्कि मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर दरगाह, समझौता एक्सप्रेस को बमों से उड़ाने की कोशिश करने वाले देश के असल आतंकियों असीमानन्द, प्रज्ञा ठाकुर के साथी आतंकियो को बचाने के लिए इन सभी धमाकों की आवाजों से पहले ही धमाके करने की जिम्मेदारी थोपते हुए मुस्लिमं नामों की घोषणायें की थी लेकिन भला हो ईमानदारी के इकलौते प्रतीक शहीद हेमन्त करकरे का जिन्होंने देश में धमाके करने वाले असल आतंकियों में से कुछ को बेनकाब कर दिया जिससे साजिश के तहत फंसाये गये कुछ बेगुनाह मुस्लिम नौजवान बच गये। हालांकि अभी भी कुछेक जेलों में ही सड़ाये जा रहे हैं। इसी तरह संसद हमले को लेकर आरएसएस पोषित मीडिया ने जमकर मनगंढ़तें प्रचारित व प्रसारित कीं। संसद हमले के मामले में मीडिया के कथित धड़ों को  जहां एक तरफ अफजल को ठिकाने लगवाने में पूरी तरह सफलता मिली तो वहीं दूसरी तरफ गिलानी ब्रदर्स को फंसाने की कोशिशें नाकाम होने पर पूरी तरह मुंह की खानी पड़ी। इसके बाद भी मीडिया ने अपना रवैया नहीं छोड़ा, बर्मा में आतंकियों के हाथों किये जा रहे कत्लेआम की एक भी खबर नहीं दी, और आसाम में गुजरे दिनों आतंकवादियों के हाथों किये जा रहे मुस्लिम कत्लेआम को ही झुटलाने की कोशिशें की गयीं।
मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर दरगाह और समझौता एक्सप्रेस को बमों से उड़ाने की कोशिश करने वालों को बचाने के लिए मीडिया और जांच एजेंसियों ने मुस्लिमों को फंसाया। उस समय मीडिया येे दावे कर रही थी कि इन घटनाओं में मुस्लिमों के हाथ होने के पुख्ता सबूत हैं। भला हो शहीद हेमन्त करकरे का जिन्होंने देश में धमाके करने वाले असली आतंकियों को सामने लाकर खड़ा कर दिया जिन्हें आरएसएस पोषित मीडिया आज भी स्वामी और साध्वी जैसे पवित्र और सम्मानित नामों से सम्बोधित करने से बाज नहीं आ रही। दरअसल हमारे देश की जांच एजेंसियां खास तौर पर एटीएस कानून के दिशा निर्देशन में काम करने की बजाये आरएसएस लाबी के अखबारों के दिशा निर्देश के मुताबिक काम करती है। हाल ही में हैदराबाद में धमाके करके मुस्लिमों को फंसाना शुरू कर दिया गया। आरएसएस लाबी के चैनलों ने धमाके की आवाज आने से पहले ही जिम्मेदारों के नामों का एलान करना शुरू कर दिया, और एटीएस व पुलिस ने मीडिया के दिशा निर्देशन के मुताबिक ही कदम उठाते हुए सीधे सीधे मुस्लिमों को निशाना बनाना शुरू कर दिया, यहां तककि शिवसेना के अखबार "सामना" ने एटीएस को एक नया हुक्म दिया कि फिल्म जगत से कुछ मुस्लिमों को भी फंसाया जाये। एटीएस ने हुक्म की तामील करते हुए निशाने साधना शुरू कर दिये, अब देखना यह है कि फिल्म जगत से किस किसको फंसाया जाता है। इस बार भी ठीक उसी तरह से कदम उठा रही है एटीएस और पुलिस जिस तरह से मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर दरगाह, समझौता एक्सप्रेस, दिल्ली हाईकोर्ट ब्लास्टों के मामले में उठाये थे। उन मामलों में आरएसएस पोषित मीडिया के दिशा निर्देशों पर चलते हुूए जांच एजेंसियों ने दर्जनों मेंस्लिम नौजवानों की जिन्दगियां बर्बाद कर दीं और फिर जब शहीद हेमन्त करकरे जैसा महात्मा के हाथ में मामला आया तो उन्होंने देश में धमाके करने वाले असल आतंकियों को बेनकाब करके दुनिया के सामने लाकर खड़ा कर दिया। हालांकि शहीद हेमन्त करकरे को उनकी ईमानदारी की सजा उन आतंकियों और उनके आकाओं ने देदी जिन्हें हेमन्त करकरे ने बेनकाब किया था, और हेमन्त करकरे की हत्या भी पुरी प्लानिंग के साथ की गयी यानी पहले बम्बई ताज होटल पर हमला फिर मौका पाकर हेमन्त करकरे का कत्ल और सारा इल्जाम थोप दिया कस्साब के सिर पर। क्योंकि आतंकी यह जानते थे कि होटल के अन्दर कुछ पाकिस्तानी मौजूद है इसलिए सारा इल्जाम पाकिस्तानियों के ही सिर पर मंढ जायेगा। आतंकी अपनी प्लानिंग में पूरी तरह कामयाब भी हुए।
अब जबकि अफजल को मार दिया गया, अफजल को लेकर दुनिया भर के इंसाफ पसन्दों और बुद्धीजीवियों में जमकर बहस चली और चल रही है कश्मीर में रोष और गुस्सा है कश्मीर के अलावा भी दुनिया का हर इंसाफ पसन्द शख्स चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू अफजल के मारे जाने से खफा है, अदालत कानून सरकार सभी से इंसाफ परस्तों का भरोसा लगभग उठ ही चुका है। देश के कुछ हिस्सों में रोष और प्रदर्शन भी हुए, यह और बात है कि केन्द्र की सोनिया रिमोट वाली आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने अफजल का मातम मनाने पर भी पाबन्दी लगाकर अपने आकाओं को खुश करने की भरपूर कोशिश की। मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर दरगाह, समझौता एक्सप्रेस समेत देश में किये गये दूसरे धमाकों को मददेनजर रखते हुए हाल ही में हुए हैदराबाद धमाको को देखा जाये तो साफ़ हो जाता है कि हैदराबाद में जो धमाके किये गये वे उन्हीं लोगों ने किये और करवाये हैं जिन्होंने मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर दरगाह, समझौता एक्सप्रेस और देश के दूसरे इलाकों में धमाके किये, क्योंकि धमाके करने कराने वाले जानते ही हैं कि अफजल को ठिकाने लगाये जाने का विरोध तो चल ही रहा है ऐसे में ये लोग कोई भी आतंकी हरकत करते है तो उसका आरोप सीधे सीधे और बड़ी ही आसानी से मुस्लिमों पर लगाना आसान होगा, बस इसी मौके का पूरा पूरा फायदा उठाते हुए हैदराबाद में धमाके करा दिये गये। प्लानिंग के मुताबिक धमाकों की आवाज़ों से पहले ही मीडिया और खुफिया एजेंसियों, एटीएस के इजाद कर्दा संगठनों के नामों के एलान शुरू कर दिया। एटीएस ने भी बेगुनाह मुस्लिमों को उठाना शुरू कर दिया। इस बार ब्लास्ट करने वाले और बेकसूरों को फंसाने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि अब कोई हेमन्त करकरे नहीं आने वाला जो मक्का मस्जिद, मालेगांव, दरगाह अजमेर, समझौता एक्सप्रेस के मामलों की हकीकतों को उजागर करे साथ ही अफजल के मामले में अदालतों के फैसले भी हैदराबाद ब्लास्ट करने वालों को मुतमईन कर चुके हैं कि अदालतें वही करेंगी जो आरएसएस पोषित मीडिया और खुफिया एजेंसियां चाहेगी। अफजल गुरू के मामले को मददेनजर रखते हुए पूरी उम्मीद की जा सकती है कि हाल ही में हैदराबाद में धमाकों के नाम पर जिन मुस्लिमों को फंसाया जा रहा है उन्हें एक-डेढ़ साल के अन्दर ही ठिकाने भी लगा दिया जायेगा, उन्हें भी अपनी बेकसूरी का सबूत पेश करने की इजाजत नहीं होगी, उन्हें भी ढंग का वकील नहीं दिया जायेगा, उनके मामले में भी सारे वकील जज बन जायेंगे और आखिर में कोई ठोस सबूत हो या न हो सीधे सीधे ठिकाने लगाकर धमाके करने वालों को साफ बचा लिया जायेगा। जैसा कि होता रहा है। एटीएस समेत अधिकांश जांच एजेंसियां कानून के दिशा निर्देशन में काम करने की बजाये "संघ" के दिशा निर्देशन में काम करती हैं। हैदराबाद ब्लास्ट मामले में ऐसा ही हो रहा है आरएसएस लाबी के अखबार और चैनल जिधर इशारा करते हैं एटीएस उसी तरफ रूख कर लेती है (http://hindi.in.com/showstory.php?id=1720402) तीन दिन पहले ही शिव सेना के अखबार ने फिल्म जगत के मुसलमानों की तरफ इशारा किया, एटीएस ने तुरन्त ही फिल्म जगत के मुस्लिमों पर निशाना साधना शुरू कर दिया। हर धमाके के बाद यही किया जाता रहा है धमाके करने कराने वालों के निर्देशन में की जाती है कार्यवाहियां। धमाके करने वालों को बचाने के लिए बेकसूरों को फंसाकर उनपर अत्याचार करने और अफजल गुरू के खिलाफ कोई ठोस सबूत न होते हुए भी मौत दिये जाने के मामले को थोड़ी सी भी गहराई में जाकर देखा जाये तो एक सच यह भी सामने आता है कि जांच अधिकारी, अदालतें, वकील, पुलिस सबके सब हेमन्त करकरे जैसा अपना हाल किये जाने से बचने के लिए ही धमाके करने वालों के इशारे पर चलने पर मजबूर होते हैं। सभी जानते हैं कि हर धमाके के बाद थोक भाव में बेकसूर मुस्लिमों को जेल में डालकर उनपर अत्याचार किये जाते हैं मौका पाकर सीधे सीधे कत्ल भी कर दिया गया लेकिन आजतक किसी भी जांच अधिकारी का कत्ल नहीं हुआ लेकिन जब ईमानदारी के प्रतीक शहीद हेमन्त करकरे ने असल आतंकियों को बेनकाब किया तो चन्द दिनों के भीतर ही हेमन्त करकरे को जान से हाथ धोना पड़ा। हेमन्त करकरे के हत्यारे आतंकियों ने उस समय भी मोके का फायदा उठाया और हेमन्त करकरे की हत्या करदी वो मौका था बम्बई हमले का, हत्यारे आतंकी यह जानते थे कि हेमन्त करकरे की हत्या भी कस्साब के सिर मंढ दी जायेगी और हत्यारे अपने मकसद में कामयाब हो भी गये। शायद इसी चीज के खौफ से जांच एजेंसियां, अदालते, वकील सभी डरे हुए है कि जरा भी इमानदारी से कदम उठाया तो सीधे जान जायेगी, शायद इसी खौफ की वजह है कि जांच अधिकारी से अदालत तक सभी वैसा ही करते जाते हैं जो आरएसएस लाबी चाहती है। कितनी चैकाने वाली बात है कि स्वतंत्र जांच एजेंसियों का अपना कोई विवेक ही नहीं है आरएसएस लाबी के मीडिया धड़ों के दिशा निर्देश के मुताबिक काम करती हैं। दूसरी तरफ अगर देखा जाये तो यह भी मालूम होता है कि इन सब हालातों के लिए खुद मुसलमान भी एक बड़ी हद तक जिम्मेदार हैं। आरएसएस लाबी पोषित मीडिया द्वारा मुसलमानों को आतंकी घोषित करने की कोशिश किये जाने की सबसे पहली और बड़ी वजह यह है कि मुसलमान का मीडिया जगत में कोई खास हिस्सेदारी नहीं है जो हकीकतों को उजागर करे और जो कुछ है भी तो उसे खुद मुसलमान ही उनको सपोर्ट नहीं करते, मुस्लिम अखबारों को खरीदते नहीं उन्हें विज्ञापन नहीं देते क्योंकि मेरी कौम भैंसा खाती है तो उसकी खोपड़ी भी भैंसे वाली होना स्वभाविक है, मुसलमानों को रंगीन फोटो और खूबसूरत छपाई वाले अखबार पसन्द है इससे बात से कोई लेना देना नहीं कि वह अखबार उनके ही खिलाफ कितना जहर उगल रहा है। अभी तीन साल पहले की ही बात है बरेली के एक मुल्ला जी ने बरेली से ही प्रकाशित एक (आरएसएस) लाबी के अखबार की प्रतियां चैराहे पर यह कहते हुए जलाई कि "यह अखबार मुसलमानों का दुश्मन है मुसलमानों के खिलाफ लिखता है" इसमें गौरतलब बात यह थी कि इसके अगले ही दिन इन्हीं मुल्ला जी ने अगले ही दिन शिवसेना के एक अखबार को बीस हजार रूपये मूल्य का विज्ञापन दिया। क्या बरेली में मुस्लिम अखबार या निष्पक्ष वाणी वाले अखबार नहीं थे, किसी को 20 रूपये का भी विज्ञापन नहीं दिया, क्यों ?...... क्योंकि इन अखबारों में उनका फोटो रंगीन और खूबसूरत नहीं दिखता। ऐसा नहीं कि मुस्लिम पत्रकार नहीं या मुस्लिम अखबार नहीं, ज्यादा तर मुस्लिम पत्रकार सिर्फ अपनी कमाई के लिए मुस्लिम दुश्मन मीडिया धड़ों की ही बोली बोलते रहते हैं मुस्लिम अखबारों की तो बात करना ही बेकार है। जबतक मुसलमानों का मीडिया जगत में मजबूत स्तम्भ नहीं होगा तब तक आरएसएस पोषित मीडिया धड़ों को मुसलमानों को बदनाम करने और फंसाने की साजिशें रचने में कामयाबी मिलती रहेगी। इसके अलावा मुसलमानों के लगातार कमजोर होते जाने की एक बड़ी वजह यह है कि मुसलमानों के बीच आपसी तआस्सुब बाजी बड़े पैमाने पर है सुन्नी, वहाबी, देवबन्दी आदि। अगर मुसलमान को अपना वजूद बचाना है तो यह ड्रामे बाजी छोड़कर सिर्फ मुसलमान बनकर एक प्लेटफार्म पर आना होगा, ऐसा मुल्ला होने नहीं देंगे।
शिवसेना के अखबार ने फिल्म जगत के मुस्लिमों को शिकार बनाने के लिए एटीएस को निर्देश दिये एटीएस ने निशाना साधना शुरू कर दिये। चलिये हम शक ही नहीं बल्कि मजबूत यकीन के साथ कह रहे हैं कि हैदराबाद धमाकों में गुजरात आतंक, मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर दरगाह और समझौता एक्सप्रेस में धमाके करने वालों ने ही किये या कराये हैं। क्या एटीएस हिम्मत जुटा पायेगी इस तरफ जांच का रूख करने की ? नहीं, क्योंकि अब कोई हेमन्त करकरे नहीं है। हम यह भी नही कह रहे कि अब कोई ईमानदार अधिकारी नहीं है।  बहुत हैं लेकिन कोई भी ईमानदारी दिखा कर हेमन्त करकरे की तरह अपना कत्ल कराना पसन्द नही करता। अगर कानून जांच अधिकारी की जान की सुरक्षा का पुख्ता इन्तेजाम करे तो यकीनन एक बार फिर दूध का दूध पानी का पानी होकर हैदराबाद धमाकों के असली जिम्मेदारों का पर्दाफाश हो सकता है।                   

Tuesday, 26 February 2013

फैसले मुद्दई की मर्जी से तो कानून किस लिए ?


         आईबी के मुताबिक आतंकी करार दिये गये अफजल गुरू को भी फांसी देदी गयी। कस्साब और अफजल गुरू को फांसी दिये जाने पर मुहर तो राष्ट्रपति चुनाव से ही लगा दी गयी थी। और यह साफ हो गया था कि इनकी की दया याचिका खारिज होना तय है। अभी कुछ और ऐसे मुस्लिम नाम जेलों में सड़ाये जा रहे है जिनका भी लगभग यही हाल होना है। अच्छा कदम है ऐसे लोगों को फांसी ही दी जाना चाहिये। आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस की केन्द्र सरकार ने काफी दिमाग़ी कसरत के बाद लोगों को फांसी कराने का रास्ता साफ किया। इन कार्यवाहियों से लगभग सभी सहमत नजर आये खासतौर पर हिन्दोस्तान के मुसलमान इन फांसियों से सहमत दिखाई पड़ रहे हैं। सहमत इसलिए हैं क्योंकि मुसलमान देश का सबसे बड़ा वफादार है, और देश के कानून की इज्जत भी करता रहा है कानून तोड़ने वाला कोई भी हो, मुसलमान और इस्लाम उसको सजा दिये जाने की हमेशा ही वकालत करता है। क्योकि इस्लाम में गुनाहगार को उसके गुनाह के हिसाब से सख्त सजा दिये जाने का कानून है, इसलिए कस्साब और अफजल गुरू को उनके गुनाहों की सजा से बुद्धिजीवी मुस्लिमों के अलावा आम  मुसलमान सहमत है भारत में अगर इस्लामी कानून होता और ये दोनों सच्चे गुनाहगार साबित होते तो सजायें बहुत पहले दी जा चुकी होतीं। 
इस्लाम इंसाफ करते वक्त किसी के जाति धर्म ओर कुर्सी को नहीं देखता सिर्फ ओर सिर्फ इंसाफ करता है। लेकिन हमारे देश में गुनाहगारों को सरकार खर्च पर पाला जाने के साथ ही कटघरे में खरे व्यक्ति के धर्म, जाति और कुर्सी को देखकर ही कार्यवाही की जाती है जिसका जीता जागता सबूत है आतंकी असीमानन्द, प्रज्ञा ठाकुर, सुनील जोशी, संदीप डांगे, लोकेश शर्मा, राजेंद्र उर्फ समुंदर, मुकेश वासानी, देवेन्द्र गुप्ता, चंद्रशेखर लेवे, कमल चैहान, रामजी कालसंगरा समेत दर्जनों असल आतंकियों को सरकारी महमान बनाकर पाला जा रहा है आठ दस साल के लम्बा लम्बा अर्सा गुजर जाने के बावजूद आजतक किसी का फैसला नहीं सुनाया गया, साथ ही गुजरात आतंकवाद के आतंकियों के खिलाफ तो आजतक मुकदमे तक नहीं लिखे गये, केस चलाना तो बड़ी चीज़ है उल्टे सम्मान/पुरूस्कार के साथ ही अभयदान भी दिया गया ओर आजतक दिया जा रहा है। दो-दो न्यायमूर्तियों (नानावटी व रंगनाथ मिश्र) की जांच रिपोर्टों को भी सिर्फ गुजरात आतंकियों को बचाये रखने के लिए लागू नहीं किया। यह सारा खेल केन्द्र में बैठी कांग्रेस खेल रही है। आतंकी असीमानन्द ने तो अदालत में अपनी करतूत कबूल भी करली लेकिन फिर भी अदालत ने आजतक फैसला सुनाने की तरफ कदम नहीं बढ़ाया, क्यों ? क्योंकि इन में से एक भी आतंकी मुसलमान नहीं है। जबकि अफजल गुरू को सिर्फ एक साल तीन दिन, और कस्साब को उससे भी कम वक्त में ही मौत की नींद सुला दिया गया। लेकिन अभी तक हुए धमाकों और आतंकी करतूतों के करने वालों को 2002 से लगातार सरकारी माल चटाया जा रहा है आजतक किसी भी अदालत को फैसला सुनाने की न तो जल्दी ही और न ही दिलचस्पी है, शायद यह कहना गलत न होगा कि अदालतें भी देश के असल आतंकियों की प्राकृतिक मौत का इन्तेजार कर रही हैं क्योंकि जो आतंकी मरता जायेगा उसका केस वहीं खत्म हो जायेगा इससे सजा की बात दबकर रह जायेगी। वैसे जांच एजेंन्सियों ने तो इन असल आतंकियों की सारी करतूतें मुस्लिमों के सिर थोप ही दीं थी वो तो भला हो शहीद हेमन्त करकरे का जिन्होंने देश में होने वाले धमाकों के असल कर्ता धर्ताओं को बेनकाब कर दिया। हालांकि शहीद हेमन्त करकरे ने अपनी इस ईमानदारी और इंसाफ परस्ती का खमियाजा अपनी हत्या कराकर भुगता। गौरतलब पहलू यह है कि आईबी समेत सभी जांच एजेंसियों ने एक बनी बनाई धारणा के तहत हर धमाके का जिम्मेदार मुस्लिमों को ही ठहराकर जेलों में सड़ाया और मौका हाथ लगा तो सीधे कत्ल ही कर दिया लेकिन बेगुनाह फंसाये जाने के बावजूद किसी भी जांच अधिकारी का कत्ल नहीं हुआ और जब धमाकों के असल जिम्मेदार बेनकाब हुए तो बेनकाब करने वाले ईमानदार, इंसाफपरस्त अफसर शहीद हेमन्त करकरे का कत्ल ही कर दिया गया और इसका भी इलजाम अजमल कस्साब के सिर ही मंढ दिया गया। अजमल कस्साब को जल्द से जल्द सज़ा देने दिलाने की भागमभाग में जांच कर्ता और अदालतों ने भी इस बात को जानने की कोशिश नहीं की कि शहीद हेमन्त करकरे की हत्या किसकी गोली से हुई ? क्योंकि सभी को जल्दी थी कस्साब को फांसी देने की। केन्द्र में काबिज कांग्रेस ने कस्साब और अफजल गुरू को फांसी दिये जाने के तमाम रास्ते राष्ट्रपति चुनाव से ही साफ़ कर दिये अगर सिर्फ आतंकियों को सजा देने की ही बात होती तो राजीव गांधी और बेअन्त सिंह के हत्यारों को कई साल पहले ही फांसी दी जा चुकी होती, लेकिन कस्साब व अफजल गुरू को मारने जैसी जल्दी राजीव और बेअन्त सिंह के हत्यारों के मामले में सरकार कानून और अदालतों में से किसी को भी नहीं नहीं है, क्यों ? क्योंकि इन आतंकियों में से कोई भी मुसलमान नहीं है। अजमल कस्साब और अफजल गुरू को सिर्फ और सिर्फ उनके मुसलमान होने की सज़ा दी गयी, हमने पहले भी कई बार कहा है कि भारत का कानून ‘‘धर्मनिर्पेक्षता के लेबल में लिपटा हुआ धर्म आधारित कानून है’’। यहां की न्याय प्रक्रिया कटघरे में खड़े व्यक्ति के धर्म और कुर्सी को देखकर काम करती है, इसका नमूना सारी दुनिया गुजरे बीस साल के अर्से में हरेक मामले में देख रही है। मिसाल के तौर पर बीसों साल पहले पाकिस्तानी मूल की मुस्लिम महिलाओं ने भारतीय पुरूषों से शादियां करके अपने परिवार के साथ यहां रह रही थी जिन्हें देश छोड़कर जाने पर विवश किया गया यहां तक कि उनको उनके मासूम बच्चों से भी दूर कर दिया गया, जबकि गुजरे साल में पाकिस्तान से कई दर्जन पाकिस्तानी गद्दार या कहिये पाकिस्तानी आतंकी भारत आये उन्हें सरकारी महमान बनाकर पाला जा रहा है इन आतंकियों में एक तो वहां की सरकार में मंत्री था, हम इन पाकिस्तानी गद्दारों को आतंकी इसलिए कह सकते हैं कयोंकि सरकार मीडिया लगातार प्रचार करती है कि पाकिस्तान आतंकी देश है और हम भी सरकार व मीडिया की बात को मानकर ही कह रहे हैं कि पाकिस्तान का बच्चा बच्चा आतंकी है वह चाहे मुसलमान हो या हिन्दू। धर्मनिर्पेक्ष संविधान के लेबल में छिपे धर्म आधारित कानून की कारसाज़ी यह है कि मुस्लिम महिलाओं को उनके मासूम बच्चों तक को छोड़कर जाने पर मजबूर किया जाता है और इन आतंकियों को पाला जा रहा है जिन्होंने यहां आकर देश में आग लगाने की भरपूर कोशिशें की, इन्हें देश से बाहर निकालने की बजाये देश का माल चटवाया जा रहा है, क्यों ? क्योंकि इनमें आतंकियों में से एक भी मुसलमान नहीं है।
अब बात करते हैं अफजल गुरू की। अफजल गुरू जो एक अच्छा डाक्टर बनना चाहता था, वह कैसे भटक गया किसने भटकने पर मजबूर किया उसे, या फिर किस हद तक भटका ? ऐसे बहुत से सवाल हैं जिन्हें जानने की कोशिश न तो धर्मनिर्पेक्ष संविधान के नकली लेबल में छिपे धर्म आधारित कानून ने ही कोशिश की और न ही उसकी अदालतों ने, अफजल गुरू कोई सच्चाई न उजागर करदे इसके लिए उसे वकील मुहैया नहीं कराया गया जबकि इसी धर्म आधारित कानून के ही प्रावधान है किः- 1-जो अपना वकील खड़ा करने में सक्षम न हो .....उसे सरकारी खर्च पर वकील मुहैया कराया जायेगा, 2-आरोपी को अपनी सफाई देने का पूरा अवसर दिया जायेगा। 3-दस गुनाहगार भले ही सजा से बच जायें लेकिन एक भी बेगुनाह को सजा नही मिलनी चाहिये। ऐसा किया गया क्या ? इसे कानून के धार्मिक होने का सबूत ही कहा जायेगा कि अफजल के मामले में इन तीनों ही प्रावधानों को दफ्ना दिया गया, न तो अफजल को कोई ढंग का वकील दिया गया, न ही उसे अपनी बात कहने का मौका दिया गया। और उसके बेकसूर होने या कसूरवार होने को जाने बिना ही सीधे मौत की नीन्द सुला दिया गया। आईये खुद अफजल की ही जुबानी उसके दी जा रही अन्याय की मार की कहानीः- ‘‘जहां तक मेरा सवाल है मैं एक ही अफजल को जानता हूं। और वो मैं ही हूं। दूसरा अफजल कौन है। (थोड़ी चुप्पी के बाद) अफजल एक युवा है, उत्साह से भरा हुआ है, बुद्धिमान और आदर्शवादी युवक है। नब्बे के दशक में जैसा कि कश्मीर घाटी के हजारों युवक उस दौर की राजनीतिक घटनाओं से प्रभावित हो रहे थे वो (अफजल) भी हुआ। वो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का सदस्य था और सीमा पर दूसरी ओर चला गया था। लेकिन कुछ ही सप्ताह बाद वो भ्रम का शिकार हो गया और उसने सीमा पार की और वापस इस तरफ आ गया, और एक सामान्य जिंदगी जीने की कोशिश करने लगा, लेकिन सुरक्षा एजेंसियों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया, वो मुझे बार-बार उठाते रहे, प्रताडि़त करके मेरा भुर्ता बना दिया, बिजली के झटके दिए गए, ठंडे पानी में जमा दिया गया, मिर्च सुंघाया गया, और एक फर्जी केस में फंसा दिया गया। मुझे न तो वकील मिला, न ही निष्पक्ष तरीके से मेरा ट्रायल किया गया। और आखिर में मुझे मौत की सजा सुना दी गई। पुलिस के झूठे दावों को मीडिया ने खूब प्रचारित किया और सुप्रीम कोर्ट की भाषा में जिसे देश की सामूहिक चेतना कहते हैं वो मीडिया की ही तैयार की हुई है, देश की उसी सामूहिक चेतना को संतुष्ट करने के लिए मुझे मौत की सजा सुनाई गई। मैं वही मोहम्मद अफजल हूं, जिससे आप मुलाकात कर रहे हैं। मुझे शक है कि बाहर की दुनिया को इस अफजल के बारे में कुछ भी पता है या नहीं, मैं आपसे ही पूछना चाहता हूं कि क्या मुझे मेरी कहानी कहने का मौका दिया गया? क्या आपको भी लगता है कि न्याय हुआ है? क्या आप एक इंसान को बिना वकील दिए हुए ही फांसी पर टांगना पसंद करेंगे? बिना निष्पक्ष कार्रवाई के, बिना ये जाने हुए कि उसकी जिंदगी में क्या कुछ हुआ? क्या लोकतंत्र का यही मतलब है?’’ अफजल ने अपना यह दुख भरी बेबसी की दास्तान जेल में मुलाकात करने गये एक पत्रकार से कहे। शायद इन्हीं शब्दों को न सुनने की कोशिश के तहत उसे न वकील दिया गया और न ही सफाई देने का मौका।
जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 4 अगस्त 2005 के अपने फैसले में साफतौर पर कहा कि ‘‘इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मोहम्मद अफजल किसी आतंकवादी गुट या संगठन का सदस्य है।’’यानी कोर्ट ने माना कि अफजल गुरू (आईबी, एसटीएफ ओर आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस के दिमागों की उत्पत्ति आतंकी संगठनों) का सदस्य नहीं था।’’ तो फिर उसे सजा क्यों दी गयी ? फैसले में अफजल को तर्कसंगत बनाने के लिए आगे कहा गया कि ‘‘और समाज का सामूहिक अन्तःकरण तभी संतुष्ट होगा जब अपराधी को मृत्युदंड दिया जायेगा।’’ हत्या के अनुष्ठान को, जो कि मृत्युदंड वास्तव में है, सही साबित करने की खातिर ‘समाज के सामूहिक अन्तःकरण’ का आह्वान करना भीड़ द्वारा हत्या करने के कानून को मानक बनाने के बहुत नजदीक आ जाता है। यह सोचकर काया कांप जाती है कि यह फार्मूला हमारे ऊपर शिकारी राजनेताओं या सनसनी तलाशते पत्रकारों की ओर से नहीं आया (हालांकि नेताओं और अमरीका व गुजरात पोषित मीडिया ने किया ऐसा ही), बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत की ओर से एक फरमान की तरह जारी हुआ है।
कोर्ट की इस बात से एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि ‘‘क्या कोर्टे किसी के खिलाफ कोई मजबूत सबूत न होते हुए भी सिर्फ ‘‘ समाज के सामूहिक अन्तःकरण को सन्तुष्ट करने के लिए ही किसी को मौत की सजा दे सकती है तो फिर देश क्या दुनिया भर के करोड़ों लोगों के अन्तःकरण को सन्तुष्ट करने के लिए गुजरात आतंकवाद से जुड़े मुख्य लोगों को सजा कयों नही दी जा रही है ? जबकि दुनिया भर में करोड़ों की तादाद में समाज का सामूहिक अन्तःकरण चाहता है कि गुजरात आतंकियों जिन्होंने तीन हजार से ज्यादा बेगुनाह लोगों का कत्लेआम करा और करवाया इनको मौत की सजा दी जाये लेकिन 2002 से लगातार कानून और अदालतें बार बार सबूत मिलने के बावजूद सजा तो दूर आतंकियों के खिलाफ मुकदमे तक नहीं चला सकीं, मुकदमें चलाना या सज़ा देना तो बड़ी बात उल्टे सोनिया गांधी नामक रिमोट से चलने वाली आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस बाहुल्य केन्द्र मनमोहन सिंह सरकार ने गुजरात आतंकवाद के मास्टर माइण्ड को सम्मान व पुरूस्कार दिया और उसकी करतूतों को उजागर करने वाली ‘‘जस्टिस नानावटी ओर रंगनाथ मिश्र आयोगों’’ की रिपोर्टो को भी फाड़कर फेंक दिया, क्यों ? क्योंकि इनमें से एक भी मुसलमान नहीं है और सोने पे सुहागा कि कत्लेआम के शिकार सभी मुसलमान थे।
संसद पर आक्रमण के दूसरे दिन, 14 दिसम्बर 2001 को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने ऐसे कई लोगों का पता लगा लिया है, जिन पर इस षडयंत्र में शामिल होने का संदेह है। एक दिन बाद, 15 दिसम्बर को उसने घोषणा की कि उसने ‘मामले को सुलझा लिया था, पुलिस ने दावा किया कि हमला पाकिस्तान आधारित दो (आईबी और पुलिस के दिमागों से निकले संगठन) आतंकवादी गुटों, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद का संयुक्त अभियान था। इस षडयंत्र में 12 लोगों के शामिल होने की बात कही गयी। आरोपी नंबर 1-जैशे मोहम्मद का गाजी बाबा, आरोपी नंबर 2-जैश-ए-मोहम्मद का ही मौलाना मसूद अजहर, तरीक अहमद (पाकिस्तानी नागरिक), पांच मारे गये ‘पाकिस्तानी आतंकवादी’(आज तक कोई नही जानता कि वे कौन थे) और तीन कश्मीरी मर्द एस.ए.आर. गिलानी, शौकत गुरू और मोहम्मद अफजल। इसके अलावा शौकत की बीबी अफसान गुरू। सिर्फ यही चार गिरफ्तार हुए। हमले के समय मारे गये पांचों लोगों की कोई सामूहिक आईडेंटिफिकेशन नहीं कराई गयी सिर्फ उनके कपड़ों, दाढ़ी, और सिरों पर लगी इस्लामी टोपियों के बल पर ही उन्हें पाकिस्तानी और मुसलमान ठहरा दिया गया।
लगभग साढे तीन साल बाद, 4 अगस्त, 2005 को इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना अंतिम फैसला सुना दिया। कोर्ट कहा ‘संसद पर आक्रमण की कोशिश निःसंदेह भारतीय राज्य और सरकार की, जो उसकी ही प्रतिरूप है, प्रभुसत्ता का अतिक्रमण है मृत आतंकवादियों को जबरदस्त भारत विरोधी भावनाओं से भड़काकर यह कार्रवाई करने के लिए प्रेरित किया गया जैसा कि कार (एक्स.पी डब्लू 1-8) पर पाये गये गृहमंत्रालय के नकली स्टिकर में लिखे हुए शब्दों से भी साबित होता है।’ न्यायालय ने आगे कहा, ‘कट्टर फिदाईनों ने जो तरीके अपनाये वे सब भारत सरकार के खिलाफ जंग छेड़ने की मंशा दर्शाते हैं।’ हमलावरों की कार के अगले शीशे पर जो स्टीकर लगा बताया गया उसपर लिखा था, ‘‘हिन्दुस्तान बहुत खराब मुल्क है और हम हिन्दुस्तान से नफरत करते हैं, हम हिन्दुस्तान को बर्बाद कर देना चाहते हैं और अल्लाह के करम से हम ऐसा करेंगे अल्लाह हमारे साथ है और हम भरसक कोशिश करेंगे। यह मूरख वाजपेयी और आडवाणी हम उन्हें मार देंगे। इन्होंने बहुत से मासूम लोगों की जानें ली हैं और वे बेइन्तहा खराब इन्सान हैं, उनका भाई बुश भी बहुत खराब आदमी है, वह अगला निशाना होगा। वह भी बेकुसूर लोगों का हत्यारा है उसे भी मरना ही है और हम यह कर देंगे।’’ इतनी बड़ी इबारत लिखे स्टीकर का कार के अगले शीशे पर लगा होने के बाद कार चालक को सामने कुछ दिखाई पड़ता हो यह समझमें आना मुश्किल ही है तो वह कार चला कैसे रहा था ?
स्टीकर पर लिखी इबारत को देखने के बाद कम से कम यह तो समझ में आ ही जाता है कि गुजरात आतंकवाद और इस मामले में कुछ कनैक्शन है, आपको याद होगा ही कि गुजरात में सरकारी आतंकियों ने इशरत जहां, सोहराबुददीन समेत दर्जनों बेगुनाहों को कत्ल करके कह दिया था कि  ‘‘ये लोग मोदी को मारने आये थे’’। इस स्टीकर में भी कुछ ऐसा ही दिखाई पड़ रहा था।
13 दिसम्बर 2001 को संसंद पर हमले के बाद पुलिस और मीडिया ने दुनिया को जो कहानी समझायी वह अधिकतर अपराधियों के विपरीत थी, ये पांच अपने अपने पीछे सुरागों की जबरदस्त श्रृंखला छोड़ गये, हथियार, मोबाइल फोन, फोन नंबर, पहचान पत्र, फोटो, सूखे मेवों के पैकेट, यहां तक कि एक प्रेम-पत्र भी। यानी कि हमला करने आने वाले अपनी पहचान के साथ साथ अपने ठिकाने भी बता गये कि हमले के बाद हमें इन जगहों से गिरफ्तार कर लेना। 
पुलिस ने अपना आरोप-पत्र एक त्वरित-सुनवाई अदालत में दायर किया जो कि ‘आतंकवाद निरोधक अधिनियम’ (पोटा) के मामलों को निपटाने के लिए स्थापित की गयी थी। निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने 16 दिसम्बर, 2002 (सिर्फ एक साल तीन दिन मंे ही) को गिलानी, शौकत और अफजल को मौत की सजा सुनायी। अफसान गुरू को पांच वर्ष की कड़ी कैद की सजा दी गयी। साल भर बाद उच्च न्यायालय ने गिलानी और अफसान गुरू को बरी कर दिया। लेकिन शौकत और अफजल की मौत की सजा को बरकरार रखा। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी रिहाइयों को यथावत् रखा और शौकत की सजा को 10 वर्ष की कड़ी सजा में तब्दील कर दिया। लेकिन उसने न केवल मोहम्मद अफजल की सजा को बरकरार रखा, बल्कि बढ़ा दिया। उसे तीन आजीवन कारावास और दोहरे मृत्युदंड की सजा दी गयी।
याद दिलादें कि निचली अदालत से राष्ट्रपति तक किसी भी स्तर पर अफजल को उसकी सफाई में कुछ बोलने की इजाजत नहीं दी गयी।
गौरतलब है कि 4 अगस्त, 2005 के अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ-साफ कहा है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मोहम्मद अफजल किसी आतंकवादी गुट या संगठन का सदस्य है। लेकिन न्यायालय ने यह भी कहा है ‘‘जैसा कि अधिकांश षड्यंत्रों के मामले में होता है, उस सांठ-गांठ का सीधा प्रमाण नहीं हो सकता और न है जो आपराधिक षड्यंत्र ठहरती हो। फिर भी, कुल मिलाकर आंके जाने पर परिस्थितियां अचूक ढंग से अफजल और मारे गये ‘फिदायीन’ आतंकवादियों के बीच सहयोग की ओर इशारा करती हैं।’
यानि सीधा कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन परिस्थितिजन्य प्रमाण हैं।
फैसले के एक विवादास्पद पैरे में कहा गया है, ‘इस घटना ने, जिसके कारण कई मौतें हुईं, पूरे राष्ट्र को हिला दिया था और समाज का सामूहिक अन्तःकरण तभी संतुष्ट होगा जब अपराधी को मृत्युदंड दिया जायेगा।’’
हत्या के अनुष्ठान को, जो कि मृत्युदंड वास्तव में है, सही साबित करने की खातिर ‘समाज के सामूहिक अन्तःकरण’ का आह्वान करना भीड़ द्वारा हत्या करने के कानून को मानक बनाने के बहुत नजदीक आ जाता है। यह सोचकर काया कांप जाती हैं कि यह फरमाने हमारे ऊपर शिकारी राजनेताओं या सनसनी तलाशते पत्रकारों की ओर से नहीं आया (हालांकि उन्होंने भी ऐसा किया है), बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत की ओर से एक फरमान की तरह जारी हुआ है।
अफजल को फांसी की सजा देने के कारणों को सही ठहराने की के लिए फैसले में आगे कहा गया ‘‘अपील करने वाला, जो हथियार डाल चुका उग्रवादी है और जो राष्ट्रद्रोही कार्यों को दोहराने पर आमादा था, समाज के लिए एक खतरा है और उसकी जिन्दगी का चिराग बुझना ही चाहिए।’’ यह वाक्य गलत तर्क और इस तथ्य के निपट अज्ञान का मिश्रण है कि आज के कश्मीर में ‘‘हथियार डाल चुका उग्रवादी’ होने का क्या मतलब होता है।’’
अगर बात समाज के सामूहिक अन्तःकरण की ही थी तो फिर उसी समाज से ही ला तादाद बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं, संपादकों, वकीलों और सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण लोगों के एक छोटे-से, लेकिन प्रभावशाली समूह ने नैतिक सिद्धांत के आधार पर मृत्युदंड का विरोध किया था। उनका यह भी तर्क था कि ऐसा कोई व्यावहारिक प्रमाण नहीं है जो सुझाता हो कि मौत की सजा आतंकवादियों के लिए अवरोधक का काम करती है।(कैसे कर सकती है, जब फिदायीनों और आत्मघाती बमवारों के इस दौर में मौत सबसे बड़ा आकर्षण बन गई जान पड़ती हो?) क्या ये लोग उस समाज में से नहीं थे जिनकी चेतना का इतना ख्याल रखा गया कि अदालत ने यह मानकर भी कि कोई सीधा प्रमाण नहीं है, मौत देदी ?
अगर जनमत-संग्रह (ओपिनियन पोल), अमरीका व गुजरात पोषित मीडिया के कथित संपादक के नाम पत्र और टीवी स्टूडियो के सीधे प्रसारण में भाग ले रहे दर्शक भारत में जनता की राय का सही पैमाना हैं तो हत्यारी भीड़ (लिंच माब) में घंटे-दर-घंटे इजाफा हो रहा था। ऐसा लगता था मानो भारतीय नागरिकों की बहुसंख्यक आबादी मोहम्मद अफजल को अगले कुछ वर्षों तक हर दिन फांसी पर चढ़ाये जाते हुए देखना चाहती थी जिनमें सप्ताहांत की छुट्टियां भी शामिल थी। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी, अशोभनीय हड़बड़ी प्रदर्शित करते हुए, चाहते थे कि उसे फौरन से पेश्तर फांसी दे दी जाये, एक मिनट की भी देर किये बिना।
इस बीच कश्मीर में भी लोकमत उतना ही प्रबल था। गुस्से से भरे बड़े-बड़े प्रदर्शन बढ़ती हुई मात्रा में यह स्पष्ट करते जा रहे थे कि अगर अफजल को फांसी दी गयी तो इसके राजनैतिक परिणाम होंगे। कुछ इसे न्याय का विचलन मानकर इसका विरोध कर रहे थे, लेकिन विरोध करते हुए भी वे भारतीय न्यायालयों से न्याय की अपेक्षा नहीं करते। वे इतनी ज्यादा बर्बरता और अदालतों की बेइंसाफी से गुजर चुके हैं कि अदालतों, हलफनामों और इन्साफ पर उनका अब कोई विश्वास नहीं रह गया है। कुल मिलाकर, ज्यादातर कश्मीरी मोहम्मद .....अफजल को एक युद्धबंदी की तरह देखते थे और अब एक शहीद के रूप में।
अफसोस यह है कि इस पागलपन में लगता है अफजल ने व्यक्ति होने का अधिकार गंवा दिया था। वे राष्ट्रवादियों, पृथकतावादियों और मृत्युदंड विरोधी कार्यकर्ताओं सबकी कपोल-कल्पनाओं का माध्यम बन गये थे उन्हें अमरीका व गुजरात पोषित मीडिया के कथित धड़ों और पुलिस, एसटीएफ, आईबी ने भारत का महा-खलनायक बना दिया था।
ऐसे हालात में, जो इतने आशंका भरे हों और जिसका इस हद तक राजनीतिकरण कर दिया गया हो, यह मानने का लालच होता है कि हस्तक्षेप का समय आकर चला गया है। आखिरकार, कानूनी प्रक्रिया चालीस महीने चली और सर्वोच्च न्यायालय ने उन साक्ष्यों को जांचा है जो उसके सामने सिर्फ अभियोजन पक्ष की दी हुई कहानियां मौजूद थीं। उसने आरोपियों में से दो को सजा सुना दी और दो को बरी कर दिया। निश्चय ही यह अपने आप में न्याय की वस्तुपरकता का प्रमाण हैं? इसके बाद कहने को क्या रह जाता है? इसे देखने का एक और तरीका भी है। क्या यह अजीब नहीं है कि अभियोजन पक्ष आधे मामले में इतने विलक्षण ढंग से गलत साबित हुआ और आधे में इतने शानदार तरीके से सही? मामला एक ही था एक ही साथ सुनाया ओर सुना गया फिर भी किसी भी अदालत ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि एक ही मामले में अभियोजन दो दो तरह की कहानी कैसे सुना रहा है ?
मोहम्मद अफजल की कहानी इसलिए दिल दुखाने वाली है क्योंकि वह मकबूल बट्ट नहीं है। यह ऐसी कहानी है जिसके नियामक तत्व न्यायालय की चारदीवारी से और ऐसे लोगों की सीमित कल्पना से, जो स्वघोषित ‘महाशक्ति’ के सुरक्षित केन्द्र में रहते हैं, बहुत आगे तक फैले हुए हैं। मोहम्मद अफजल की कहानी का उत्स ऐसे युद्ध-क्षेत्र में है जिसके नियम सामान्य न्याय-व्यवस्था के सूक्ष्म तर्कों और नाजुक संवेदनाओं से परे है। इन सभी कारणों से यह महत्त्वपूर्ण है कि हम संसद पर 13 दिसम्बर की अजीब, दुखद और पूरी तरह अमंगलसूचक कहानी को सावधानी से जांचे-परखें। यह सारी बातें बतलाती है कि दुनिया का सबसे बड़ा ‘लोकतंत्र’ किस तरह काम करता है। यह सबसे बड़ी चीजों को सबसे छोटी चीजों से जोड़ती है। यह उन गलियों-पगडंडियों को चिह्नित करती है जो उस सबको जो हमारे पुलिस थानों की अंधेरी कोठरियों में होता है।
गुजरी साल 4 अक्टूबर को अमन व इंसाफ पसन्द लोगों का एक छोटो सा मोहम्मद अफजल को फांसी की सजा दिये जाने के खिलाफ नयी दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर इकट्ठा हुआ था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि मोहम्मद अफजल एक बहुत ही शातिराना शैतानी खेल का महज एक मोहरा थे। अफजल वह राक्षस नहीं थे जैसा कि उन्हें प्रचारित किया गया। वह तो राक्षस के पंजे का निशान भर थे और जब पंजे के निशान को ही‘मिटा’ दिया गया है तो हम कभी नहीं जान पाएंगे कि राक्षस कौन था, और है? शायद असली राक्षस का नाम खुलने से बचाने के लिए ही अफजल के मामले में एक तरफा कार्यवाहियां करके अफजल को ठिकाने लगा दिया। अफसोस यह है कि अब कोई हेमन्त करकरे मौजूद नहीं जो असल राक्षस को बेनकाब करे।
इस विरोध-प्रदर्शन के संयोजक दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी के प्राध्यापक एस.ए.आर. गिलानी थे। जो थोड़े घबराये-से अन्दाज में वक्ताओं का परिचय दे रहा थे और घोषणाएं कर रहा थे। संसद पर आक्रमण के मामले में आरोपी नंबर तीन। उन्हें आक्रमण के एक दिन बाद, 14 दिसम्बर, 2001 को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल द्वारा गिरफ्तार किया गया था। हालांकि गिलानी को गिरफ्तारी के दौरान बर्बर यातनाएं दी गयी थीं, और उनके परिवार (पत्नी, छोटे बच्चे और भाई) को गैर-कानूनी तरीके से हवालात में रखा गया था, फिर भी उन्होंने उस अपराध को स्वीकार करने से मना कर दिया था, जो उन्होंने किया नहीं था। यकीनन ही उनकी गिरफ्तारी के बाद के दिनों में अगर आपने (आरएसएस लाबी द्वारा पोषित) चैनल नहीं देखे होंगे और अखबार नहीं पढ़े होंगे तो आप यह सच जान नहीं पाये होंगे। उन्होंने एक सर्वथा काल्पनिक, अस्तित्वहीन स्वीकारोक्ति के विस्तृत मंनगढ़ं़त विवरण छापे थे। दिल्ली पुलिस ने गिलानी को साजिश के भारतीय पक्ष का दुष्ट सरगना (मास्टर माइंड) कहा था। इसके मनगंढ़त कथा लेखकों ने उनके खिलाफ नफरत-भरा प्रचार-अभियान छेड़ रखा था जिसे अति-राष्ट्रवादी, सनसनी-खोजू मीडिया ने बढ़ा-चढ़ाकर और नमक-मिर्च लगाकर पेश किया था। पुलिस अच्छी तरह जानती थी कि फौजदारी मामलों में यह फर्ज किया जाता है कि जज मीडिया रिपोर्टों का नोटिस नहीं लेते। इसलिए पुलिस को पता था कि उसके द्वारा इन ‘आतंकवादियों’ का निर्मम मनगढ़न्त चरित्र-चित्रण जनमत तैयार करेगा और मुकदमें के लिए माहौल तैयार कर देगा। लेकिन पुलिस कानूनी जांच-परख के दायरे से बाहर होगी।

आरएसएस लाबी द्वारा पोषित समाचार-पत्रों के कुछ विद्वेषपूर्ण, कोरे झूठ जो छापें गयेः-

1-‘‘गुत्थी सुलझी’’ आक्रमण के पीछे जैश’’ नीता शर्मा और अरुण जोशी, द हिंदुस्तान टाइम्स, 16 दिसम्बर, 2001 ।
2-‘दिल्ली में स्पेशल सेल के गुप्तचरों ने अरबी के एक अध्यापक को गिरफ्तार कर लिया है जो कि जाकिर हुसैन कालेज (सांध्यकालीन) में पढ़ाता है। इस बात के साबित हो जाने के बाद कि उसके मोबाइल फोन पर उग्रवादियों द्वारा किया गया फोन आया था।’’
3-‘दिल्ली विश्वविद्यालय का अध्यापक आतंकवादी योजना की धुरी था’, द टाइम्स आफ इंडिया, 17 दिसम्बर, 2001 ।
4-‘संसद पर 13  दिसम्बर का आक्रमण आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा की संयुक्त कार्रवाई था जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय का अध्यापक सैयद ए.आर. गिलानी दिल्ली में सुविधाएं जुटाने वाले (फैसिलिटेटर) प्रमुख लोगों में से एक था। यह बात पुलिस कमिश्नर अजय राज शर्मा ने रविवार को कही।’’
‘प्रोफेसर ने “फियादीन” का मार्गदर्शन किया,’ देवेश के.पांडे, द हिंदू, 17 दिसम्बर, 2001।
5-‘पूछताछ के दौरान गिलानी ने यह राज खोला कि वह षड्यंत्र के बारे में उस दिन से जानता था जब “फियादीन” हमले की योजना बनी थी।’
6-‘डान खाली समय में आतंकवाद सिखाता था,’ सुतीथो पत्रनवीस, द हिंदुस्तान टाइम्स, 17 दिसम्बर, 2001।
7-‘जांच से यह बात सामने आयी है कि सांझ होने तक वह कालेज पहुंचकर अरबी साहित्य पढ़ा रहा होता था। खाली समय में, बंद दरवाजों के पीछे, अपने या फिर संदेह में गिरफ्तार किये गये दूसरे आरोपी शौकत हुसैन के घर पर वह आतंकवाद का पाठ पढ़ता और पढ़ाता था।’
.....8-‘प्रोफेसर की आय’ द हिंदुस्तान टाइम्स, 17 दिसम्बर, 2001ः-
‘गिलानी ने हाल ही में पश्चिमी दिल्ली में 22 लाख का एक मकान खरीदा था। दिल्ली पुलिस इस बात की जांच कर रही है कि उसे इतना पैसा किस छप्पर के फटने से मिला।’
9-‘अलीगढ़ से इग्लैंड तक छात्रों में आतंकवाद के बीज बो रहा था गिलानी,’ सुजीत ठाकुर, राष्ट्रीय सहारा, 18  दिसम्बर, 2001।
10-‘जांच कर रही एजेंसियों के सूत्रों और उनके द्वारा इकट्ठा की गयी सूचनाओं के अनुसार गिलानी ने पुलिस को एक बयान में कहा है कि वह लंबे समय से जैश-ए-मोहम्मद का एजेंट था। गिलानी की वाग्विदग्धता, काम करने की शैली और अचूक आयोजन क्षमता के कारण ही 2000 में जैश-ए-मोहम्मद ने उसे बौद्धिक आतंकवाद फैलाने की जिम्मेदारी सौंपी थी।’
11-‘आतंकवाद का आरोपी पाकिस्तानी दूतावास में जाता रहता था,’ स्वाती चतुर्वेदी, द हिंदुस्तान टाइम्स, 21 दिसम्बर, 2001।
12-‘पूछताछ के दौरान गिलानी ने स्वीकार किया कि उसने पाकिस्तान को कई फोन किये थे और वह जैश-ए-मोहम्मद से संबंध रखने वाले आतंकवादियों के संपर्क में था। गिलानी ने कहा कि जैश के कुछ सदस्यों ने उसे पैसे दिये थे और दो फ्लैट खरीदने को कहा जिन्हें आतंकवादी कार्रवाई के लिए इस्तेमाल किया जा सके।’ सप्ताह का व्यक्ति,’ संडे टाइम्स आफ इंडिया, 23 दिसंबर, 2001।
13-‘एक सेलफोन उसका दुश्मन साबित हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय का सैयद ए.आर. गिलानी 13 दिसम्बर के मामले में गिरफ्तार किया जाने वाला पहला व्यक्ति था। एक स्तब्ध करने वाली चेतावनी कि आतंकवाद की जड़े दूर तक और गहरे उतरती हैं।’
14-जी टीवी ने इन सबको मात कर दिया। उसने ‘13 दिसम्बर’ नाम की एक फिल्म बनायी, एक डाक्यूड्रामा जिसमें यह दावा किया गया कि वह ‘पुलिस की चार्जशीट पर आधारित सत्य’ है। (इसे क्या शब्दावली में अंतर्विरोध नहीं कहा जायेगा?) फिल्म को निजी तौर पर प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी (अपनी बन्द रहने वाली आंखों से) और लाल कृष्ण आडवाणी को दिखलाया गया। दोनों ने फिल्म की तारीफ की। उनके अनुमोदन को मीडिया ने व्यापक स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया।
सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल को साजिश के तहत आतंकी प्रचारित करने के लिए तैयार की गयी इस फिल्म के प्रसारण पर पाबन्दी लगाने की अपील यह कहते हुए खारिज कर दिया कि न्यायाधीश मीडिया से प्रभावित नहीं होते। मा0 न्यायालय की इस बात से सवाल यह पैदा होता है कि ‘‘क्या सर्वोच्च न्यायालय यह मानेगा कि भले ही न्यायाधीश मीडिया की रिपोर्टों से प्रभावित नहीं होते हों, तो क्या ‘समाज का सामूहिक अंतःकरण’ प्रभावित नहीं हो सकता?’’
13 दिसम्बर’ नामक फिल्म एक बड़ी साजिश के तहत त्वरित-सुनवाई अदालत द्वारा गिलानी, अफजल और शौकत को मृत्युदंड दिये जाने से कुछ दिन पहले जी टीवी के राष्ट्रीय नेटवर्क पर दिखलायी गयी। गिलानी ने इसके बाद 18 महीने जेल में काटे कई महीने फांसीवालों के लिए निर्धारित कैदे-तन्हाई में।
हाईकोर्ट द्वारा उसे और अफसान गुरू को निर्दोष पाये जाने पर छोड़ा गया। सर्वोच्च न्यायालय ने रिहाई के आदेश को बरकरार रखा। उसने संसद पर आक्रमण के मामले से गिलानी को जोड़ने या किसी आतंकवादी संगठन से उनका संबंध होने का कोई प्रमाण नहीं पाया। आरएसएस लाबी द्वारा पोषित एक भी अखबार या पत्रकार या टीवी चैनल ने अपने झूठों के लिए उनसे (या किसी और से) माफी मांगने की जरूरत महसूस नहीं की। लेकिन एस.ए.आर. गिलानी पर ढाये जा रहे जुल्मों का अंत यहीं नहीं हुआ। उनकी रिहाई के बाद स्पेशल सेल के पास साजिश तो रह गयी पर कोई ‘सरगना’ (मास्टर माइंड) नहीं बचा। 
इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि गिलानी अब एक आजाद इंसान थे। प्रेस से मिलने, वकीलों से बात करने और अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब देने के लिए आजाद। सर्वोच्च न्यायालय की अंतिम सुनवाई के दौरान 8 फरवरी, 2005 की शाम को गिलानी अपने वकील से मिलने उसके घर जा रहा थे। घोर-अंधेरे से एक रहस्यमय बंदूकधारी प्रकट हुआ और उसने गिलानी पर पांच गोलियां दागी। खुश किस्मती से वे बच गये। साफ तौर पर जाहिर है कोई इस बात को लेकर चिंतित था कि गिलानी क्या जानते थे और क्या कहने वाले थे। दुनिया भर के तमाम अमनपसन्दों की सोच थी कि पुलिस इस उम्मीद में इस मामले की जांच को सर्वोच्च प्राथमिकता देगी कि इससे संसद पर हुए आक्रमण के मामले में नये महत्त्वपूर्ण सुराग मिलेंगे। उलटे स्पेशल सेल ने गिलानी से इस तरह व्यवहार किया मानो अपनी हत्या के प्रयत्न का मुख्य संदेहास्पद व्यक्ति वह खुद ही हो। स्पेशल सेल नेे उनका कंप्यूटर जब्त कर लिया और उनकी कार ले गये। सैकड़ों कार्यकर्ता अस्तपाल के बाहर जमा हुए और उन्होंने हत्या के प्रयास की जांच की मांग की, जिसमें कि स्पेशल सेल पर भी जांच की मांग शामिल थी। आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस की केन्द्र व दिल्ली सरकार और धर्मनिर्पेक्षता के लेबल में छिपे धर्म आधारित कानून ने आजतक यह जानने की कोशिश ही नहीं कि आखिर गिलानी पर कातिलाना हमला किसने किया और क्यों?
साजिशों के शिकार एस.ए.आर. गिलानी की दूसरी ओर, पत्रकारों और फोटोग्राफरों की भीड़ में, हाथ में छोटा टेप रिकार्डर लिये, पूरी तरह सामान्य दिखने की कोशिश करता हुआ एक और गिलानी था। इफ्तेखार गिलानी। वह भी कैद भुगत चुका था। उसे 9 जून, 2002 को गिरफ्तार किया गया था और पुलिस हिरासत में रखा गया था। उस समय वह जम्मू के दैनिक ‘कश्मीर टाइम्स’ का संवाददाता था। उस पर ‘सरकारी गोपनीयता अधिनियम’ (आफीशियल सीक्रेट्स ऐक्ट) के तहत आरोप लगाया गया था। उसका ‘अपराध’ यह था कि उसके पास ‘भारत-अधिकृत कश्मीर’ में भारतीय सेना की तैनाती को लेकर कुछ पुरानी सूचनाएं थी। (ये सूचनाएं, बाद में पता चला, एक पाकिस्तानी शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित आलेख था जो इंटरनेट पर खुल्लमखुल्ला उपलब्ध था।) इफ्तेखार गिलानी के कंप्यूटर को जब्त कर लिया गया। इंटेलिजेंस ब्यूरों के अधिकारियों ने उसकी हार्डडिस्क के साथ छेड़-छाड़ की, डाउनलोड फाइलों को उलट-पुलट किया। जिससे कि यह एक भारतीय दस्तावेज-सा लगे इसके लिए ‘भारत-अधिकृत कश्मीर’ को बदल कर ‘जम्मू और कश्मीर’ किया गया और ‘केवल संदर्भ के लिए। प्रसार के लिए पूरी तरह निषिद्ध।’ ये शब्द जोड़ दिये गये, जिससे यह ऐसा गुप्त दस्तावेज लगे जिसे गृहमंत्रालय से उड़ाया गया हो।
दूसरी तरफ आरएसएस लाबी के अखबारों और चैनलों ने एक बार फिर स्पेशल सेल के झूठों का पुलिन्दा नमक मिर्च लगाकर सुर्खियों में रखा। इन मुस्लिम दुश्मन अखबारों की कुछ लाईने देखेंः-
..... ‘हुर्रियत के कट्टरपंथी नेता सैयद अली शाह गिलानी के 35 वर्षीय दामाद, इफ्तेखार गिलानी ने, ऐसा विश्वास है कि शहर की एक अदालत में यह मान लिया है कि वह पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी का एजेंट था।’-नीता शर्मा, द हिंदुस्तान टाइम्स, 11 जून, 2002।
‘इफ्तिखार गिलानी हिजबुल मुजाहिदीन के सैयद सलाहुद्दीन का खास आदमी था। जांच से पता चला है कि इफ्तिखार भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की गतिविधियों के बारे में सलाहुद्दीन को सूचना देता था। जानकार सूत्रों ने कहा कि उसने अपने असली इरादों को अपने पत्रकार होने की आड़ में इतनी सफाई से छिपा रखा था कि उसका पर्दाफाश करने में कई वर्ष लग गये।’-प्रमोद कुमार सिंह, द पायनियर, जून 2002
‘गिलानी के दामाद के घर आयकर के छापों में बेहिसाब संपत्ति और संवेदनशील दस्तावेज बरामद’।-हिंदुस्तान, 10 जून, 2002। (जबकि पुलिस की चार्जशीट में उसके घर से मात्र 3450 रुपये बरामद होने की बात दर्ज थी, ) इसी के साथ आरएसएस गुलाम दूसरी मीडिया रिपोर्टों में कहा गया कि उसका एक तीन कमरों वाला फ्लैट है, 22 लाख रुपये की अघोषित आय है, उसने 79 लाख रुपये के आयकर की चोरी की है तथा वह और उसकी पत्नी गिरफ्तारी से बचने के लिए घर से भागे हुए हैं। अखबारों के इतने बड़े बड़े साजिशी झूठों के बावजूद आजतक इन अखबारों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया गया न ही धर्म आधारित कानून ने और न ही प्रेस परिषद ने।
यकीन किया जा सकता है कि अबतक की बातों से आपको यह समझ आ गयी होगी कि अफजल गुरू के मामले में कानून का दूर दूर तक इस्तेमाल नहीं किया गया, सिर्फ ‘‘समाज के सामूहिक अन्तःकरण और कुछ खास की मर्जी के मुताबिक ही हुआ सब कुछ। 
एस.ए.आर. गिलानी और इफतिखार गिलानी दोनों इस मामले में खुश किस्मत रहेैं कि वे दिल्ली में रहने वाले कश्मीरी हैं और उनके साथ मध्यवर्ग के मुखर संगी-साथी हैं पत्रकार (सच्चे पत्रकार दलाल नहीं) और विश्वविद्यालय के अध्यापक, जो उन्हें अच्छी तरह जानते थे और संकट की घड़ी में उनके साथ खड़े हो गये थे। एस.ए.आर. गिलानी की वकील नन्दिता हक्सर ने एक ‘अखिल भारतीय एस.ए.आर. गिलानी बचाव समिति’ बनायी। गिलानी के पक्ष में खड़े होने के लिए कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों ने एकजुट होकर अभियान चलाया। जाने-माने वकील राम जेठमलानी, के.जी. कन्नाबिरन और वृंदा ग्रोवर अदालत में उसकी तरफ से पेश हुए। उन्होंने मुकदमें की असली सूरत उजागर कर दी गढ़े गये सबूतों से खड़ा किया गया बेहूदा अटकलों, फर्जी बातों और कोरे झूठों का पुलिन्दा। सो बेशक, न्यायिक वस्तुनिष्ठता मौजूद है। लेकिन वह एक शर्मीला जन्तु है जो हमारी कानूनी व्यवस्था की भूल-भुलैया में कहीं गहरे में रहता है, बिरले ही नजर आता है। इसे इसकी मांद से बाहर लाने और करतब दिखाने के लिए नामी वकीलों की पूरी टोली की जरूरत होती है। यानी गंगा को हिमालय की गोद से बाहर लाने वाला भागीरथ। मोहम्मद अफजल के साथ कोई भागीरथ नहीं था।
9 फरवरी 2013 की तड़के ही संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरु को खुफिया तरीके से फांसी दे दी गई और उनकी लाश को तिहाड़ जेल में मिट्टी में दबा दिया गया। क्या उन्हें मकबूल भट्ट की बगल में दफनाया गया? (एक और कश्मीरी, जिन्हें 1984 में तिहाड़ में ही फांसी दी गई थी। मनमानी का हाल यह है कि अफजल की बीवी और बेटे को इत्तला नहीं दी गई थी। ‘अधिकारियों ने स्पीड पोस्ट और रजिस्टर्ड पोस्ट से परिवार वालों को सूचना भेज दी है,’ गृह सचिव ने प्रेस को बताया, ‘जम्मू कश्मीर पुलिस के महानिदेशक को कह दिया गया है कि वे पता करें कि सूचना उन्हें मिल गई है कि नहीं।’ ये कोई बड़ी बात नहीं है, देश की डाक को सिर्फ पचास रूपये खर्च करके किसी की भी चिटठी को समय निकलने तक रोका जा सकता है और फिर वो तो (सरकार और आईबी की भाषा में) बस एक कश्मीरी दहशतगर्द के परिवार वाले हैं।
जनहित और देश विकास से जुड़े हरेक मुददे पर एक दूसरे की टांग खिंचाई के लिए ही वजूद में रहने वाले राजनैतिक दल अफजल को मारने और मारे जाने की खुशी में एक साथ झूमते दिखाई पड़े। अदालतों ने कुछ लोगों की पसन्द ‘‘सामूहिक अन्तःकरण’’ का नाम देकर हम पर उंड़ेल दी-धर्मात्माओं सरीखे उन्माद और तथ्यों की नाजुक पकड़ की वही हमेशा की खिचड़ी। यहां तक कि वो इन्सान मर चुका था और चला गया था, झुंड बनाकर शेर का शिकार करने वालों कोे बुजदिलों की तरह आपस में एक दूसरे का हौसला बढ़ाने की जरूरत पड़ रही थी। शायद उनकी अन्तरात्मा की गहराई उनको धित्कार रही थी कि वे सब एक भयानक रूप से गलत काम के लिए जुटे हुए हैं।
पुलिस की कहानी के मुताबिक ‘‘13 दिसंबर 2001 को पांच हथियारबंद लोग इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस के साथ एक सफेद एंबेस्डर कार से संसद भवन के दरवाजों से दाखिल हुए, जब उन्हें ललकारा गया तो वो कार से निकल आए और गोलियां चलाने लगे। उन्होंने आठ सुरक्षाकर्मियों और माली को मार डाला। इसके बाद हुई गोलीबारी में पांचों हमलावर मारे गए। पुलिस हिरासत में तैयार किये गए कबूलनामों के अनेक वर्जनों में से एक में अफजल गुरु ने उन लोगों की पहचान मोहम्मद, राणा, राजा, हमजा और हैदर के रूप में की, (आज तक भी, सारी दुनिया उन लोगों के बारे में कुल मिला कर इतना ही जानती है जितना कि पुलिस ने कबूलनामें में लिखा) आजतक देखा यह गया है कि किसी भी मामले में अदालतें पुलिस के सामने दिये गये बयानों को ही सही नहीं मान लेती और अदालते अपने समक्ष बयान कराती हैं लेकिन अफजल को तो अपने बचाव में कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया गया। तत्कालीन गृहमंत्री एल.के. अडवाणी ने कहा कि ‘‘वे ‘पाकिस्तानियों जैसे दिखते थे।’ चुंकि आडवाणी खुद एक सिन्धी है इसलिए आडवाणी से बेहतर कौन जान सकता है कि ठीक ठीक पाकिस्तानी दिखना क्या होता है। सिर्फ अफजल के कबूलनामे के आधार पर (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बाद में ‘खामियों’ और ‘कार्यवाही संबंधी सुरक्षा प्रावधानों के उल्लंघनों’ के आधार पर खारिज कर दिया था) परमाणु युद्ध की बातें करके सरकार ने भारत के हजारों करोड़ रुपए ठिकाने लगा दिये।
हमले के अगले ही दिन, 14 दिसंबर, 2001 को दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मामले को सुलझा लिया है। 15 दिसंबर को उसने दिल्ली में प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और श्रीनगर में फल बाजार से शौकत गुरु और अफजल गुरु को गिरफ्तार किया और गिलानी को मास्टर माइण्ड की उपाधि भी दे डाली। बाद में उन्होंने शौकत की बीवी अफशां गुरु को गिरफ्तार किया। आरएसएस लाबी पोषित मीडिया ने जोशोखरोश से स्पेशल सेल की तैयार की हुई कहानी का प्रचार प्रसार किया। जिनमें कुछेक की सुर्खियां आप ऊपर पढ़ चुके हैं जीटीवी ने दिसंबर 13 नाम से एक ‘डाक्यूड्रामा’ प्रसारित किया, जो कि ‘पुलिस के आरोप पत्र पर आधारित था ......उसकी पुनर्प्रस्तुति थी। सवाल यह है कि अगर पुलिस की कहानी सही है, तो फिर अदालतें किस लिए हैं ? तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी और एल.के. आडवाणी ने बड़ी ही बेहयाई के साथ सरेआम फिल्म की तारीफ की। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि मीडिया जजों को प्रभावित नहीं करेगा। फिल्म फास्ट ट्रेककोर्ट द्वारा अफजल, शौकत और गीलानी को फांसी की सजा सुनाए जाने के सिर्फ कुछ दिन पहले ही दिखाई गई। उच्च न्यायालय ने प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और अफशां गुरु को आरोपों से बरी कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी रिहाई को बरकरार रखा। लेकिन 5 अगस्त, 2005 के अपने फैसले में इसने मोहम्मद अफजल को तिहरे आजीवन कारावास और दोहरी फांसी की सजा सुनाई।
आरएसएस पोषित कुछ पत्रकारों द्वारा फैलाए जाने वाले झूठों के उलट, अफजल गुरु ’13 दिसंबर, 2001 को संसद भवन पर हमला करने वाले लोगों में नहीं थे और न ही वे उन लोगों में से थे जिन्होंने ‘सुरक्षाकर्मी पर गोली चलाई और मारे गए छह सुरक्षाकर्मियों में तीन का कत्ल किया।’ (यह बात भाजपा के राज्यसभा सांसद चंदन मित्रा ने 7 अक्तूबर, 2006 को ‘‘द पायनियर’’ में लिखी थी)। यहां तक कि पुलिस का आरोप पत्र भी उनको इसका आरोपी नहीं बताता है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कहता है कि ‘‘सबूत परिस्थितिजन्य है, ‘अधिकतर साजिशों की तरह, आपराधिक साजिश के समकक्ष सबूत नहीं है और न हो सकता है।’’ लेकिन उसने आगे कहा, ‘‘हमला, जिसका नतीजा भारी नुकसान रहा और जिसने संपूर्ण राष्ट्र को हिला कर रख दिया, और समाज की सामूहिक चेतना केवल तभी संतुष्ट हो सकती है जबकि आरोपी को फांसी की सजा दी जाये’’। सिर्फ अफजल के मामले में ही समाज की सामूहिक चेतना का ख्याल रखा गया। गुजरात आतंकवाद, अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस धमाके करने वाले देश के असली आतंकियों के मामले में समाज की सामूहिक चेतना को नजर अंदाज किया गया और आजतक बादस्तूर किया जा रहा है।
अब सवाल यह उठता है कि ‘‘संसद हमले के मामले में हमारी सामूहिक चेतना का किसने निर्माण किया? क्या ये वे तथ्य होते हैं, जिन्हें हम अखबारों से हासिल करते हैं? फिल्में, जिन्हें हम टीवी पर देखते हैं?
वे लोग जिनकी चेतना को खुश करने के लिए ही अफजल को फांसी पर झुलाया गया, वे जरूर यह दलील देंगे कि ठीक यही तथ्य, कि अदालत ने एस.ए.आर. गीलानी को छोड़ दिया और अफजल को दोषी ठहराया, यह साबित करता है कि सुनवाई मुक्त और निष्पक्ष थी। तो थी क्या?
फास्ट-ट्रेक कोर्ट में मई, 2002 में सुनवाई शुरू हुई। दुनिया 9/11 के बाद के उन्माद में थी। अमेरिकी सरकार अफगानिस्तान में अपने ‘आतंक’ पर टकटकी बांधे थी। गुजरात का आतंकवाद चल रहा था। एक आपराधिक मामले के सबसे अहम चरण में, जब सबूत पेश किए जाते हैं, जब गवाहों से सवाल-जवाब किए जाते हैं, जब दलीलों की बुनियाद रखी जाती है-उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में आप केवल कानून के नुक्तों पर बहस कर सकते हैं, आप नए सबूत नहीं पेश कर सकते-अफजल गुरु भारी सुरक्षा वाली कालकोठरी में बंद थे। उनके पास कोई वकील नहीं था। अदालत द्वारा नियुक्त जूनियर वकील एक बार भी जेल में अपने मुवक्किल से नहीं मिला, उसने अफजल के बचाव में एक भी गवाह को नहीं बुलाया और न ही अभियोग पक्ष द्वारा पेश किए गए गवाहों का क्रास-एक्जामिनेशन किया। जज ने इस स्थिति के बारे कुछ कर पाने में अपनी अक्षमता जाहिर की।
शुरुआत से ही, केस अपनी मंजिल बताने लगा। अनेक मिसालों में से कुछेक यों हैंः-
1-पुलिस अफजल तक कैसे पहुंची? पुलिस का कहना है कि एस.ए.आर. गीलानी ने उनके बारे में बताया। लेकिन अदालत के रिकार्ड दिखाते हैं कि अफजल की गिरफ्तारी का संदेश गीलानी को उठाए जाने से पहले ही आ गया था। यानी अभियोजन पक्ष सिरे से ही झूठा साबित हुआ। उच्च न्यायालय ने इस अहम बिन्दू को ‘भौतिक विरोधाभास’ कहकर टाल दिया और इसे यों ही कायम रहने दिया। क्या यह अजीब नहीं था ?
2-अफजल के खिलाफ सबसे ज्यादा आरोप लगाने वाले दो सबूत एक सेलफोन और एक लैपटॉप था, जिसे उनकी गिरफ्तारी के वक्त जब्त किया गया। अरेस्ट मेमो पर दिल्ली के बिस्मिल्लाह के दस्तखत हैं जो गीलानी के भाई हैं। 
3-सीजर मेमो पर जम्मू-कश्मीर पुलिस के दो कर्मियों के दस्तखत हैं, जिनमें से एक (गुजरात आतंक का गुलाम) अफजल के उन दिनों का उत्पीड़क था, (कानूनन जनता में से दो लोगों की गवाही कराई जाना चाहिये) जब वे एक आत्मसमर्पण किए हुए ‘चरमपंथी’ हुआ करते थे। 
4-कंप्यूटर और सेलफोन को सील नहीं किया गया, जैसा कि एक सबूत के मामले में किया जाता है। सुनवाई के दौरान यह सामने आया कि लैपटाप के हार्डडिस्क को गिरफ्तारी के बाद उपयोग में लाया गया था। इसमें गृह मंत्रालय के फर्जी पास और फर्जी पहचान पत्र होना बताये गये, जिसे आतंकवादियों ने संसद में घुसने के लिए इस्तेमाल किया था। और संसद भवन का एक जीटीवी वीडियो क्लिप। इस तरह पुलिस के मुताबिक, अफजल ने सभी सूचनाएं डीलीट कर दी थीं, यानी कि बस सबसे ज्यादा दोषी ठहराने वाली चीजें रहने दी थीं। जिनको आरोप पत्र में चीफ आफ आपरेशन कहा गया है।
5-अभियोग पक्ष के एक गवाह कमल किशोर ने अफजल की पहचान की और अदालत को बताया कि 4 दिसंबर 2001 को उसने वह महत्वपूर्ण सिम कार्ड अफजल को बेचा था, जिससे मामले के सभी अभियुक्त के संपर्क में थे। लेकिन अभियोग पक्ष के अपने काल रिकार्ड दिखाते हैं कि सिम 6 नवंबर 2001 से काम कर रहा था। इस भाड़े के गवाह के खिलाफ अदालत ने कोई कार्यवाही नही की जबकि उसकी गवाही पुलिस अपने काल रिकार्ड ने ही झूठी साबित करदी थी। याद दिलादें कि कमल से अफजल की शिनाख्त नहीं कराई गयी बल्कि पुलिस अफजल को उसकी दुकान पर लेकर पहुंची और कहा कि ‘‘यह अफजल है संसद पर हमला करने वाला।’’
6-पुलिस के इस गवाह के मुताबिक उसने सिम अफजल को 4 दिसम्बर 2001 को बेचा और पुलिस रिकार्ड में सिम 6 नवम्बर 2001 से ही काम कर रहा था। तो 6 नवम्बर 2001 से इस सिम का इस्तेमाल करके अभियुक्तो के सम्पर्क में कौन था ? गवाह कमल किशोर या फिर पुलिस।
ऐसी ही और भी बातें हैं, और भी बातें, झूठों के अंबार और मनगढ़ंत सबूत। अदालत ने उन पर गौर किया, लेकिन शायद अदालतें शहीद हेमन्त करकरे जैसा हश्र होने से खौफज़दा थीं इसलिए अफजल के खिलाफ कोई मजबूत सबूत न मिलने पर भी अफजल को मौत की नीन्द सुलाना उनकी मजबूरी थी, अतः वो ही करती गयी जो अभियोजन चाहता गया। अफजल गुरू को अपनी सफाई में कुछ कहने का मोका नपहीं दिया, सम्भवतः सबको खौफ था कि अगर अफजल को उनका पक्ष रखने का मौका दिया गया तो यकीनन वे सच्चाई खोल देगों ओर .....फिर असल आतंकियों को बचा पाना नामुमकिन हो जायेगा। क्या निष्पक्ष न्यायप्रक्रिया का यही असल रूप है अगर इतिहास को देखें तो पता चलता है कि इस तरह की न्याय प्रक्रिया तो ब्रिटिशों ने भी नहीं अपनाई थी अगर ब्रिटिश इसी तरह की न्याय प्रक्रिया अपनाते तो शायद गांधी जी सरीखे सैकड़ों भारतीयों को रोज फांसी पर झुलाते। इतिहास तो बताता है कि गांधी जी समेत कई लोग कई बार ब्रिटिश अदालतों से बरी किये गये थे।
खैर अब इन बातों से क्या फायदा, कानून और अदालतों ने कांग्रेसी सरकार और उसके आकाओं को खुश कर ही दिया कोई ठोस सबूत न होते हुए भी अफजल को फांसी पर लटकाकर। शायद अदालतें शहीद हेमन्त करकरे के हश्र से खौफज़दा थीं, मतलब यहकि हमेशा से ही हर धमाके के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराकर सरेआम कत्ल करने या जेल में डालकर अमानवीय प्रताड़ना देने का प्रावधान ध्र्मनिर्पेक्षता के लबादे में छिपे धर्म आधरित संविधान में बनाया गया है इसी प्रावधान के तहत दरगाह अजमेर, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस में किये गये धमाकों का जिम्मेदार भी दर्जनों मेस्लिम नौजवानों को बनाया गया जिनमें अभी भी कुछेक जेलों में सड़ाये जा रहे हैं भला हो ईमानदारी के प्रतीक हेमन्त करकरे का जिन्होंने असली आतंकियों को बेनकाब कर दिया हांलाकि उन्हें उनकी ईमानदारी की सज़ा इन आतंकियों ने बहुत जल्दी ही देदी। शायद यही डर सबको सता रहा था और सब वो ही करते गये जो आतंकी असीमानन्द, प्रज्ञा ठाकुर गैंग के लोग चाह रहे थे।
अब इन बातो से क्या फर्क पड़ता है अफजल को आरएसएस लाबी और उसकी पालतू मीडिया धड़ों को चेतना सन्तुष्ट करने के लिए मौत दे ही दी गयी। नहीं रहा वो शख्सए हमें उम्मीद है कि खुद और अपने गुर्गों को बचाने के लिए अफजल को मरवाने के लिए दबाव बनाये रही लाबी की खूनी प्यास बुझ गयी होगी या अभी बाकी है, लगता तो ऐसा ही है। 13 दिसम्बर 201 को संसद पर हमला किसने और क्यों करवाया ? इस सवाल को आजतक किसी (न ही सामूहिक चेतना वालों ने और न ही अदालतों ने) ने भी खोजने या जानने कोशिश की, न ही इस हमले के उद्देश्य का कोई ठोस सबूत ही मिल पाया, बस अफजल को फांसी पर झुला दिया गया। संसद पर हमला कराने वालों के और उनके उद्देश्य के बारे में जानने से बचने के लिए ही शायद अफजल को सफाई देने का मौका नहीं दिया गया, बस अदालतें वह करती गयीं जो अभियोजन पक्ष और कथित मीडिया धड़े चाहते थे। दुनिया का यह एक इकलौता मुकदमा था जिसमें आरोपी के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिला, सिर्फ अभियोजन की कहानी को ही सच मान लिया गया और उसे फांसी देदी गयी। अफजल को फांसी की खबर सुनकर दुनिया भर के इंसाफ पसन्द और अमन पसन्द लोगों के अलावा लोग बड़े ही खुश दिखाई दिये। तरह तरह की चर्चायें, और केन्द्र सरकार की तारीफें भी होने लगीं। कहीं भी किसी के मन में भी यह सवाल नहीं उठा कि ‘‘क्या वास्तव में अफजल गुरू संसद हमले के दोषी थे। क्या यह कृत्य देश की सुरक्षा एजेंसिंयों की नाकामी को ढकने की कोशिश तो नहीं था। इस मामले में प्रोफेसर गिलानी बड़े ही खुश नसीब निकले, अगर देश भर के इंसाफ पसन्द बुद्धिजीवियों ने गिलानी की गिरफ्तारी का विरोध नहीं किया होता तो उन्हें भी इसी तरह ठिकाने लगा दिया गया होता हालांकि आरएसएस लाबी द्वारा पोषित मीडिया धड़ों ने तो पूरा जोर लगाया था कि गिलानी न बच सकें। गौर कीजिये कि वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने गिलानी का मुकददमा लड़ने का इरादा क्यों किया, बजरंगदल और शिवसेना ने उनके बम्बई स्थित दफ्तर पर पथराव किया फिर भाजपा ने जेठमलानी को राज्यसभा का सदस्य क्यों बना लिया ? हो सकता पर हमला उन्हीं आतंकियों ने कराया हो जिन्होंने दरगाह अजमेर, मक्का मस्जिद, मालेगांव, और समझौता एक्सप्रेस पर हमले किये या कराये थे ? हो सकता है कि इसके पीछे उन्हीं दलों का हाथ हो जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की पूजा करते हैं उसकी किताब ‘‘गांधी वध’’ को धर्मग्रन्थ के बराबर सम्मान देते हैं उसका प्रचार प्रसार करते हैं।
अफजल के दोस्तों का कहना है कि वे खूनखराबे के खिलाफ रहते थे वे ऐसा काम कर ही नहीं सकते। यह तो सच है कि अफजल 1990 में कश्मीर में भारतीय सेना द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कारों के खिलाफ आवाज उठायी थी सबही जानते हैं कि अफजल शिक्षित थे वे इसीलिए आईएएस की तैयारी कर रहे हो ताकि वह 1990 में सेना के उन जवानों को कानूनी सजा दिला सके जिन्होंने कश्मीरी महिलाओं का सामूहक बलात्कार किया था। सवाल यह पैदा होता है कि ‘‘क्या संविधान की धर्मनिर्पेक्षता का मतलब, सेना के जवानों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार के खिलाफ कानून को जगाने वाले को आतंकी करार देकर ठिकाने लगाना है ? यह सवाल शायद ही किसी के दिमाग में खटक रहा हो क्योंकि कथित मीडिया ने तो हमले के अगले ही पल आतंकी घोषित कर दिया था। आम आदमी को तो मीडिया ने भ्रमित कर दिया था लेकिन क्या आईबी ने इस सच्चाई को जानने की कोशिश की कि ‘‘आखिर इस हमले के पीछे किसका हाथ था और उसका उददेश्य क्या था ?’’ हो सकता है कि इस हमले के पीछे उन्हीं का हाथ हो जो अफज़ल की फांसी की मांग जोर शोर से कर रहे थे या उनका कारनामा हो जिन्होंने अफजल को कोई ठोस सबूत न मिलने के बावजूद आतंकी प्रचारित किया हो, या फिर वे भी हो सकते हैं जिन्होंने अफजल को उसकी सफाई में कुछ बोलने ही नही दिया या फिर वे जो अफजल के मारे जाने पर ही सजा से बचे हों। यानी ‘‘जो छिंदला वही डोली के संग रहा हो’’। और अगर मान भी लिया जाये कि अफजल गुरू आतंकवादी था तब भी यह जानना जरूरी है कि ‘‘उसका एक माज़ी (भूतकाल) रहा होगा, यह तो सभी जानते हैं कि 1990 में सेना के जवानों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार के बाद वे चरमपंथियों’’ में शामिल हो गये थे आरएसएस पोषित टीवी चैनलों व अखबारों ने चीख चीखकर सुर्खियों उन्हें आतंकीवादी घोषित कर दिया था। लेकिन 1990 में सेना के जवानों द्वारा कश्मीरी महिलाओं के साथ किये गये बलात्कार से पहले तो वे एक सीधे साधे पढ़े लिखे मेहनतकश इंसान थे। अफजल को तो सजा देदी गई कितनी सही दी गई यह तो खुदा जानता होगा या अफजल या फिर वे लोग ही जानते होंगे जिन्होंने अफजल को फांसी के फंदे पर झुलाया’’। हम यह भी नहीं कहते कि अभियोजन (केन्द्र और दिल्ली की कांग्रेसी सरकार) ने अपनी मर्जी से ही अफजल के खिलाफ जाल बुना था, और अदालतों उसे नजर अंदाज किया। हो सकता है कि अफसरान शहीद हेमन्त करकरे जैसा अपना हाल होने से खौफज़दा हों क्योंकि हेमन्त करकरे ने ईमानदारी से असल आतंकियों को सामने लाकर खड़ा कर दिया उसकी सज़ा उन्हें मौत की नीन्द सुलाकर दी गयी। याद दिलादें कि आईबी, एटीएस ने देश भर में हुए सभी धमाकों के लिए सीधे सीधे बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को जिम्मेदार मानकर मार गिराया या जेलों में डालकर प्रताडि़त किया, यहां तककि अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस में किये गये हमलों के मामलों में भी। बेगुनाह फंसाये जाने के बावजूद किसी ने भी जवाबी कार्यवाही नहीं की कोई जांच अधिकारी नही मारा गया। लेकिन जब ईमानदार शहीद हेमन्त करकरे ने देश भर में धमाके करने वाले असल .....आतंकियों को बेनकाब करके जेल पहुंचाया तो उनकी ही हत्या करदी गयी और इल्ज़ाम थुप गया अजमल कस्साब पर। बम्बई हमले के समय मौके करा फायदा उठाते हुए आतंकियो ने हेमन्त करकरे की हत्या कर दी क्योंकि ये आतंकी जानते थे कि इसका आरोप सीधे सीधे बम्बई हमलावरों पर ही होगा। अफजल को मौत की सजा देदी गई वो कितनी सही थी या कितनी गलत यह तो खुदा और अफजल ही जानते होंगे या फिर मौत देने वाले। सवाल यह है कि फांसी की सज़ा सिर्फ अफजल के लिए ही कयों ? सेना के उन जवानों के लिए कयों नहीं जिनके अत्याचार ने अफजल को आहत करके चरमपंथी बनाया, पीएसी के उन जवानों के लिए क्यों नहीं जिन्होंने 1980 में मुरादाबाद में नरंसहार व बलात्कार किये ओर 1987 में मेरठ में नरसंहार किया, उन आतंकियों के लिए क्यों नहीं जिन्होने गुजरात में तीन हजार से ज्यादा बेगुनाहों का कत्लेआम किया, मक्का मस्जिद, मालेगांव, दरगाह अजमेर, समझौता एक्सप्रेस को उड़ाने की कोशिशें करने वाले आतंकियों के लिए क्यों नहीं ? इस तही के सैकड़ो सवाल दुनिया भर के अमन पसन्दों और इंसाफ पसन्दों के दिमाग़ों में उठते होंगे, लेकिन अफजल की मौत की तमन्ना और अब जश्न मनाने वालों की तादाद बहुत ज्यादा होने की वजह से या अपने ऊपर आतंकी होने या किसी संगठन का सदस्य होने का ठप्पा लगा दिये जाने के खौफ़ से जुबानें बन्द रखना उनकी मजबूरी है।
अफजल को भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सज़ा दी। लेकिन तआज्जुब की बात यह है कि इसी सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह माना था कि ‘‘लगभग 14 ऐसे मामले हैं जिनमें आरोपियों को फांसी की सज़ा गलत सुना दी गयी। 14 अहम जजों के मण्डल ने राष्ट्रपति को बाकायदा चिटठी लिखकर अपील की थी कि ‘‘इन फैसलों को उम्र कैद में बदल दिया जाये।’’
अफजल के मामले में ऐसी कोई अपील नहीं हुई हालांकि उसके मामले की असंगतियां सबसे प्रखरता से दिखती रहीं। अदालतों ने भी माना कि ‘‘पुलिस ने मामले की ठीक से जांच नहीं की।’’ इंदिरा जयसिंह और नंदिता हक्सर जैसी वकीलों ने कहा कि ‘‘अगर अफजल को कायदे का वकील मिल गया होता तो उसे फांसी नहीं होती।’’ उसे वकील तक नहीं मिला क्योंकि वकीलों ने खुद को ही अदालत और जज समझ रखा था और मामले की हकीकत जाने बिना ही तय कर लिया था कि संसद पर हमले के आरोपितों को वे कोई कानूनी मदद नहीं देंगे। दोषी साबित होने पर मदद न करने का फैसला तो समझ में आता है लेकिन सिर्फ आरोप लगाने भर पर ही इस तरह की बात वकील के पेशे को ही कलंकित करती है। शायद देश भर के वकील भी शहीद हेमन्त करकरे के हश्र से डरे हुए थे। एक तरह से यह पुलिस के लिए सुनहरा मौका था कि वह जिसे चाहती उसे संसद भवन का आरोपित बना डालती और बनाया भी। इन सबके बावजूद सोनिया रिमोट से चलने वाली और गुजरात में बेगुनाहों के कत्लेआम से खुश होकर मास्टर माइण्ड को सम्मान व पुरूस्कार देने वाली आरएसएस की एजेण्ट केन्द्र की कांग्रेस बाहुल्य मनमोहन सिंह सरकार ने राष्ट्रपति को यही सलाह दी कि वे अफजल माफी याचिका खारिज कर दें, कांग्रेस बाहुल्य सरकार की यह सलाह जब लम्बे समय तक लटकी रही तो कांग्रेस ने इस बार राष्ट्रपति चुनाव में अपनी चाल कामयाब करके अफजल की मौत की नीन्द सुलाने के अपने इरादे को कामयाबी की मंजिल तक पहुंचा दिया। जाहिर है, अफजल को सजा किसी जुर्म की नहीं मिली, बल्कि अुजल को सजा उसकी पहचान की मिली जो उस पर आरएसएस एजेण्टों द्वारा थोप दी गई यानी एक आतंकवादी की पहचान, जिसने देश की संप्रभुता पर हमला किया। यह पहचान उस पर चिपकाना इसलिए भी आसान हो गया कि वह मुसलमान था, कश्मीरी था और ऐसा भटका हुआ नौजवान था जिसने आत्मसमर्पण किया था। अगर बात सिर्फ और सिर्फ आतंकवादी होने की ही होती तो फिर गुजरात आतंक, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस ब्लास्टों के मामलों में भी बहुत पहले ही फांसियां दी जा चुकी होती। लेकिन यहां तो फांसी की जगह सम्मान पुरूस्कार के साथ अभयदान भी जारी है।
अगर बात सिर्फ आतंकियों को सज़ा देने की ही होती तो असीमानन्द, प्रज्ञा ठाकुर, समेत अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस और गुजरात आतंक के कर्ताधर्ताओं को कभी की सी दी जा चुकी होती लेकिन अफजल को फांसी संसद हमले की नहीं दी गयी बल्कि उनको फांसी उनकी पहचान यानी मुसलमान ओर कश्मीरी होने की दी गयी। अब अगर कोई भी यह कहे कि ‘‘अफजल को मौत सिर्फ संसद हमले की ही दी गयी है तो थ्र वह यह भी बताये कि ‘‘अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस और गुजरात आतंक के हीरो को कितने दिन के अन्दर दे दी जायेगी फांसी।

संदर्भ के लिए देखें-

1. संसद के हमले और उसके बाद की अदालती कार्रवाई के लिए देखें, नन्दिता हक्सर, फ्रेमिंग गिलानी, हैंगिंग अफजल-पेट्रिआटिजम इन द नेम आफ टेरर ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2007 )या प्रफुल्ल बिदवई, 13 डिसेम्बर-ए रीडर- द स्ट्रेंज केस आफ दी अटैक आन दी इंडियन पार्लियामेंट (नयी दिल्ली-पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2006 )य सैयद बिस्मिल्लाह गिलानी, मैन्युफैक्चरिंग टेरिज्म- कश्मीरी एनकाउंटर्स विद मीडिया एंड द ला (नई दिल्ली, प्रॉमिला, 2006 ), निर्मलांशु मुखर्जी, डिसेम्बर 13 रू टेरर ओवर डेमोक्रेसी ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2005 )य पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स, बैलेंसिंग एक्ट-हाई कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 डिसेम्बर, 2001 केस (नयी दिल्ली -19 दिसम्बर, 2003, पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स, ट्रायल ऑफ एरर्स-ए क्रिटिक आफ द पोटा कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 दिसम्बर केस (नई दिल्ली, 15 फरवरी, 2003)।
2. न्यायाधीश एस.एन. ढींगरा, विशेष पोटा अदालत का फैसला, मोहम्मद अफजल बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र), 16 दिसम्बर, 2002।
3. गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का बयान, 18 दिसम्बर, 2001 । पाठ भारतीय दूतावास (वाशिंगटन) की बेबसाइट पर उपलब्ध है-http://www-indianembassy-org/new/parliament_doc_12_01-html (29 मार्च, 2009 को देखा गया) (अब यह उपलब्ध नहीं है)।
4. देखें, सूजन मिलिगन, ‘डिस्पाइट डिप्लोमेसी, कश्मीर ट्रूप्स ब्रोस’, बास्टन ग्लोब, 20 जनवरी, 2002,।1-फराह स्टॉकमैन एंड ऐंटनी शदीद, ‘सेक्शन फ्यूएलिंग आयर बिटवीन इंडिया एंड पाकिस्तान’, बास्टन ग्लोब, 28 दिसम्बर, 2001, पृ.। 3-जाहिद हुसैन, ‘टिट फार टैट बैन्स रेज टेन्शन आन कश्मीर’, द टाइम्स (लंदन), 28 दिसम्बर, 2001, और गुलाम हसनैन और निकोलस रफर्ड, ‘पाकिस्तान रेजेज कश्मीर न्यूक्लियर स्टेक्स’, संडे टाइम्स (लंदन), 30 दिसम्बर, 2001।
5. ढींगरा, विशेष पोटा कोर्ट का फैसला।
6. देखें, सोमिनी सेनगुप्ता, ‘इंडियन ओपिनियन स्प्लिट्स आन काल फार एक्सीक्यूशन’, इंटरनेशनल हेरल्ड ट्रिब्यून,     9 अक्टूबर, 2006, और सोमिनी सेनगुप्ता और हरी कुमार, ‘डेथ सेंटेस इन टेरर अटैक पुट्स इंडिया आन ट्रायल’, न्यूयार्क टाइम्स, 10 अक्टूबर, 2006, पृ.-3 ।
7. ‘आडवाणी क्रिटिसाइज्ड डिले इन अफजल एक्जुक्यूशन’, द हिंदू, 13 नवम्बर, 2006।
8. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक संस्थापक मकबूल बट्ट को 11 फरवरी, 1984 को दिल्ली में फांसी दी गयी। देखें, ‘इंडिया हैंग्स कश्मीरी फार स्लेयिंग बैंकर’, न्यूयार्क टाइम्स, 12 फरवरी, 1984, सेक्शन 1, पृ- 7। मकबूल बट्ट के बारे में विवरण इंटरनेट पर उपलब्ध है -http://www-maqboolbutt-com vkSj http://www-geocities-com/jklf&kashmir/maqboolstory-html (29 मार्च, 2009 को देखा गया) ( अब यह साइट बंद हो गई है)।
9. लक्ष्मी बालकृष्णन, ‘रीलिविंग अ नाइटमेयर’, द हिंदू, 12 दिसम्बर, 2002, पृ. 2 । बिदवई तथा अन्य, 13 दिसम्बर ‘ए रीडर’ में शुद्धब्रत सेनगुप्ता, ‘मीडिया ट्रायल एंड कोर्टरूम ट्रिब्युलेशन्स’, इन बिदवई, पृ. 46 भी देखें।
10. प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया, ‘एस सी (सुप्रीम कोर्ट) अलाउज जी (टीवी ) टू एयर फिल्म आन पार्लियामेंट अटैक’, प्दकपंपदवि.बवउ, 13 दिसम्बर, 2002 ।
11. ‘फाइव बुलेट्स हिट गिलानी, सेज फॉरेंसिक रिपोर्ट’, हिंदुस्तान टाइम्स, 25 फरवरी, 2005 ।
12. देखें, ‘पुलिस फोर्स’, इंडियन एक्सप्रेस, 15 जुलाई, 2002य ‘एडिटर्स गिल्ड सीक्स फेयर ट्रायल फार इफतेखार’, इडियन एक्सप्रेस, 20 जून, 2002, ‘कश्मीर टाइम स्टेफर्स डिटेंशन इश्यू रेज्ड इन लोकसभा’, बिजनेस रिकार्डर, 4 अगस्त, 2002 ।
13. इफ्ेतखार गिलानी, ‘माई डेज इन प्रिजन’ ( नयी दिल्ली रू पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2005 )। 2008 में इस किताब के उर्दू अनुवाद को साहित्य अकादमी से भारत का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार मिला।-http://www-indiane-press-com/news/iftikhar&gilani&wins&sahitya&akademi&award/424871  ।
14. दूरदर्शन ( नई दिल्ली ), ‘कोर्ट रीलीजेज कश्मीर टाइम्स जर्नलिस्ट फ्राम डिटेंशन’, बीबीसी मानिटरिंग साउथ एशिया, 13 जनवरी, 2003 ।
15. स्टेटमेंट आफ सैयद अब्दुल रहमान गिलानी, नयी दिल्ली, 4 अगस्त, 2005 । इंटरनेट पर उपलब्ध-http://www-revolutionarydemocracy-org/parl/geelanistate-htm ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया )। बशरत पीर, ‘विक्टिम्स आफ डिसेम्बर 13, द गार्डियन, (लंदन), 5 जुलाई, 2003, पृ. 29 ।
प्रस्तुति-रवि कुमार
(यह आलेख अरुंधति राय के लेखों के संग्रह, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और नीलाभ द्वारा संपादित पुस्तक “कठघरे में लोकतंत्र” से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है. यह अंग्रेजी की मूलकृतिListening of Grasshopper से अनूदित है. यह लेख सबसे पहले ३० अक्तूबर, २००६ को ‘आउटलुक’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. )
16. ‘स्पेशल सेल एसीपी फेसेज चार्जेज आफ एक्सेसेज, टार्चर’, हिंदुस्तान टाइम्स, 31 जुलाई, 2005। सिंह की बाद में (मार्च, 2008 में) - एक विवाद में जो व्यापक रूप से विश्वास किया जाता है कि अपराधियों की दुनिया और जमीन-जायदाद से संबंधित था - हत्या कर दी गयी। देखें, प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया, ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट राजबीर सिंह शाट डेड’, हिंदुस्तान टाइम्स, 25 मार्च, 2008 ।
17. देखें लेख, ‘टेरेरिस्ट्स वर क्लोज-निट रिलिजियस फेनैटिक्स’ और ‘पुलिस इम्प्रेस विद स्पीड बट शो लिटल एविडेंस’, टाइम्स ऑफ इंडिया, 21 दिसम्बर, 2001 । इंटरनेट पर उपलब्ध - ीhttp://timesofindia-indiatimes-com/articleshow/1600576183-cms और  http://timesofindia-indiatimes-com/articleshow/1295243790-cms ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया )।
18. एमिली वैक्स और रमा लक्ष्मी, ‘इंडियन आफिशयल पाइंट्स टू पाकिस्तान’, वाशिंगटन पोस्ट, 6 दिसम्बर, 2008, पृ. ।8 ।
19. मुखर्जी, 13 दिसम्बर, पृ. 43 ।
20. श्री एस.एन. ढींगरा की अदालत में आपराधिक मामलों की धारा 313 के तहत मोहम्मद अफजल का बयान, एएसजे, नयी दिल्ली, राज्य बनाम अफजल गुरू और अन्य, एफआईआर 417ध्01 सितम्बर, 2002 । इंटरनेट पर उपलब्ध-http://www-outlookindia-com/article-aspÛ\232880 vkSj http://www-revolutionarydemocracy-org/afzal/azfal6-htm ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया )।
21. एजाज हुसैन, ‘किलर्स इन खाकी’, इंडिया टुडे, 11 जून, 2007 । ‘पीयूडीआर पिक्स सेवरल होल्स इन पुलिस वर्जन आन प्रगति मैदान एनकाउंटर’, द हिंदू, 3 मई, 2005, और पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स, एन अनफेयर वरडिक्ट - ए क्रिटिक आफ स रेड फोर्ट जजमेंट ( नयी दिल्ली, 22 दिसम्बर, 2006 )  और क्लोज एनकाउंटर रू ए रिपोर्ट आन पुलिस शूट-आउट्स इन डेल्ही ( नयी दिल्ली, 21 अक्टूबर, 2004 ) भी देखें।
22. देखें, ‘ए न्यू काइंड आफ वार’, एशिया वीक, 7 अप्रेल, 2000, और रणजीत देव राज, ‘टफ टाक कंटीन्यूज डिस्पाइट पीस डिमांड्स’, इंटर प्रेस सर्विस, 19 अप्रेल, 2000 ।
23. देखें, ‘फाइव किल्ड आफ्टर छत्तीसिंहपुरा मैसेकर वर सिवियन्स’, प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया, 16 जुलाई, 2002 और ‘ज्यूडिशियल प्रोब आर्डर्ड इनटू छत्तीसिंहपुरा सिख मैसेकर’, 23 अक्टूबर, 2000 ।
24. पब्लिक कमिशन आन हयूमन राइट्स, श्रीनगर, 2006, ‘स्टेट आफ ह्यूमन राइट्स इन जम्मू एंड कश्मीर 1990-2005श्, पृ. 21 ।
25. ‘प्रोब इनटू अलेज्ड फेक किलिंग आर्डर्ड’, डेली एक्सेल्सियर ( जनिपुरा ), 14 दिसम्बर, 2006 ।
26. एम.एल.काक, ‘आर्मी क्वायट आन फेक सरेंडर बाई अल्ट्राज’, द ट्रिब्यून ( चंडीगढ़ ), 14 दिसम्बर, 2006 ।
प्रस्तुति - रवि कुमार
27. ‘स्टार्म ओवर अ सेंटेस’, द स्टेट्समेन ( इंडिया ), 12 फरवरी, 2003 ।
28. जो विश्लेषण आगे दिया जा रहा है वह भारत के सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली उच्च न्यायालय और पोटा विशेष अदालत के फैसलों पर आधारित है।
29. मुखर्जी, डिसेम्बर 13 । पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स, ट्रायल आफ एरर्स एंड बेलेंसिंग एक्ट।
30. ‘ऐज मर्सी पेटिशन लाइज विद कलाम, तिहार बाइज रोप फार अफजल हैंगिंग’, इंडियन एक्सप्रेस, 16 अक्टूबर, 2006 ।
( यह आलेख अरुंधति रॉय के लेखों के संग्रह, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और नीलाभ द्वारा संपादित पुस्तक “कठघरे में लोकतंत्र” से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है. यह अंग्रेजी की मूलकृति Listening of Grasshopper से अनूदित है. यह लेख सबसे पहले ३० अक्घ्तूबर, २००६ को ‘आउटलुक’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. )