Monday, 15 June 2015

मीडिया के दलालीकरण के नतीजे-इमरान नियाजी

मीडीया/पत्रकारिता यानी एक ऐसा स्तम्भ जो इन्साफ, कमजोर, गरीबों की आवाज बुलन्द करता हो, जो सच को सबके सामने लाता हो, सच्चाई और इन्साफ की वकालत करता हो। एक जमाना था जब पत्रकार सच्चाई उजागर करते थे, कमजोर और गरीबों के हक की आवाज उठाते थे, इन्साफ की वकालत करते थे। सच्चे और निस्वार्थ पत्रकार की लड़ाई ही मौजूदा सरकार से रहती थी। हमें अच्छी तरह याद है कि 70 के दशक में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में ‘‘ भ्रष्ट लोगों की दुनिया ’’ नाम से एक साप्ताहिक अखबार प्रकाशित होता था, इसके प्रकाशक व सम्पादक थे श्री राजपाल सिंह राणा। राजपाल सिंह राणा एक ऐसा नाम जिसकी परछाई से भी भ्रष्ट कांप उठते थे। उस समय अगर कोई पत्रकार किसी सरकारी दफ्तर की तरफ से गुजर जाता तो पूरे कार्यालय में सन्नाटा छा जाता था। अफसर हो या कर्मचारी सब राइट टाइम दिखाई पड़ते थे। लेकिन आज पत्रकार महोदय बीच में बैठकर लेनदेन कराते दिखाई पड़ते हैं, ऐसे ही पत्रकार अफसरों कर्मचारियों और नेताओं को असली लगते हैं और जो दलाली नहीं करते वे सब फर्जी। जो दलाली नहीं करते उनसे अफसरान कहते हैं कि हमने तो कभी देखा नहीं। अजीब तमाशा है, दलाली न करो तो फर्जी कहलाओ। बात यह है कि जो पत्रकार दलाली नहीं करते वे बेवजह ही अफसरों की चमचागीरी नहीं करते इसलिए उन्हें दिखाई नहीं पड़ते। आज हर शख्स सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार का रोना रोता है, जबकि सच यह है कि असल भ्रष्टाचार तो मीडिया में है। एक दौर था जब मीडिया भ्रष्टाचार पर निगरानी करती थी लेकिन आज खुद ही भ्रष्टाचार की फैक्ट्री बन चुकी है। खुद को नम्बर वन, बड़ा और वीआईपी कहने वाले अखबार चैनल पत्रकार केवल प्रशासन, नेताओं सरकार को खुश करने की कोशिशों में लगे हैं। 95 फीसद मीडिया आरएसएस की पालतू है, घटनाओं को घुमाओ देकर खबर देने में दिन रात एक किये हुए है। पत्रकारिता में छिछोरों की भीड़ भर गयी। मामला चाहे असल आतंकियों का हो या साजिश का शिकार बनाये गये बेगुनाहों का हो, फर्जी मुठभेढ़ की बात हो या पुलिसिया लूट की, पुलिस द्वारा उगाही का विषय हो या राजमार्गों पर रंगदारी वसूली (टौलटैक्स) का, झूठे मुकदमे लादने का मामला हो या कार्यवाही की गुहार लगाते भटकते फिरने वाले गुलाम हिन्दोस्तानियों का, आजकल मोबाईल एप्स व्हाट्सअप पर पत्रकार नामी लोग ग्रुप बनाने में लगे है इन ग्रुपों में खबरों और जानकारियों का आदान प्रदान करने की बजाये जहर उगलने में लगे है या छिछोरी हरकते करने में। दो दशक से देखा जा रहा है कि मीडिया कर्मियों पर हमलों की तादाद में इजाफा हुआ है। कोई थप्पड़ मार देता है तो कोई गालियां सुना देता है जिसका जब मन चाहा झूठे मुकदमे लाद दिये, यहां तककि अब तो हद हो गयी कि पत्रकारों को कत्ल किया जाने लगा। अब वक्त आ गया यह समझने का कि मीडिया पर हमले क्यों बढ़ते जा रहे हैं, क्यों मीडिया इतनी कमजोर हो गयी कि जो नेता मीडिया से घबराया करते थे वे मीडिया पर हमलावर हो गये? काफी दिमागी कसरत करने के बाद साफ हुआ कि इन सब हालात के लिए खुद मीडिया कर्मी ही पूरी तरह से जिम्मेदार है। मीडिया में दलाली चमचागीरी के चलन के बाद सक ही मीडिया का स्तर गिरता चला गया। आजकल देखा जा रहा है कि पत्रकार का चोला पहनकर दलाली करने वाले की बल्ले बल्ले है, दलाली ओर चमचागीरी करने वालों को ही अफसरान पहचानते हैं। कुछ दिन पहले ही उ0प्र0 के कैबिनेट मंत्री शिवपाल सिंह ने पत्रकारों से अपनी जय जयकार कराने के लिए सिर्फ मौखिक घोषणा करदी कि सूबे में पत्रकारों को सरकारी रंगदारी वसूली यानी टौलटैक्स से छूट रहेगी, बात घोषणा तक ही रह गयी, इसके बाद केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी पत्रकारों को टौल से छूट की बात की हालांकि गडकरी ने बात को अमली जामा पहनाया लेकिन उसमें खेल यह खेला कि यह छूट सिर्फ दलालों और चमचों को ही मिलेगी, सब को नहीं। रेल/जहाज में रिजर्वेशन हों या विदेश यात्रा के लिए पासपोर्ट की बात हो, विधानसभाओं ओर संसद भवन में प्रवेश का मामला हो या सचिवालयों या अन्य स्थानों में घुसने का, हर मोड़ पर खादी वर्दी खिलाडि़यों यहां तक कि फिल्म जगत के लोगों को कोटा छूट सब दिया जाता है लेकिन पत्रकार को चोर उचक्कों की तरह ही रखा जाता है यहां तककि जेल में भी खादी वर्दी पुंजिपतियों को सम्मान दिया जाता है ओर पत्रकार को उसकी औकात बताई जाती है। इन सब की खुली वजह है पत्रकारों में छोटा बड़ा ऊंच नीच हिन्दू मुस्लिम के भेदभाव का चलन और दलाली चमचागीरी का प्रकोप। 
पत्रकारों को अपना खोया हुआ मान सम्मान दुबारा हासिल करने के लिए अपनी सोच बदलनी होगी, दलाली ओर चमचागीरी छोड़नी होगी, बड़े छोटे, असली फर्जी, ऊंच नीच, हिन्दू मुस्लिम का भेदभाव मिटाकर एक जुट होकर नेताओं, अफसरों, की कवरेज, कान्फ्रेंस, आदि बन्द करके हर मामले हकीकत खोजकर हकीकत को ही पेश करना होगा, अपराधिक मामलों में पुलिसिया कहानी को ही  पेश करने की बजाये खुद मामले की जांच करके पेश करनी होगी, कुल मिलाकर पत्रकारों को पत्रकार बनना होगा, पूरी तरह से निगेटिव मुद्रा में आना होगा, तब ही कुछ वजूद बच सकता है सिर्फ संगठन बनाने, ज्ञापन देने धरना प्रदर्शन करने से कुछ नहीं होने वाला। हमारे कुछ साथियों का कहना है कि हम लाला (अखबार/चैनल के मालिक) की नोकरी कर रहे है तो जो वे चाहते हैं वेसा ही लिखते हैं इसपर हमारा कहना है कि लाला की दुकान हमसे चलती है हम लाला की दुकान से नहीं चलते, इसलिए हम सिर्फ सच्चाई ही पेश करें, सोचिये अगर सभी पत्रकार बन्धु एक राय हो जाये तो लाला की दुकान कैसे चलेगी।

अस्पतालों की करतूतों से हिंसक बनते हैं लोग

गुजरे दिनों व्हाट्सअप पर बरेली के एक नामी सर्जन का लेख पढ़ा जोकि डाक्टरों से मारपीट और अस्पतालों में तोड़फोड़ पर आधारित था। बहुत ही अच्छे विचार रखे डाक्टर साहब ने, उनको पढ़कर साफ पता चलता है कि आपने सिर्फ अपने पेशे वालों का एक तरफा बचाव किया, आपने यह नहीं बताया कि इलाज कराने आने वाला कोई व्यक्ति या उसके परिजन क्यों करते है मारपीट तोड़फोड़, क्या सभी पागल है या सभी गुण्डे होते हैं। अजीब बात है अपनी कमी की तरफ नही देख रहे डाक्टर। डाक्टर उन लोगों के खिलाफ लामबन्द होकर कार्यवाही की बात कर रहे है जिनके पैसे से पल रहे हैं। अपनी करतूतों को छिपाने की कोशिश में डाक्टरों ने गुजरी 8 मई को हड़ताल करके लोगों को परेशान किया। डाक्टरों की मांग है कि डाक्टरों अस्पतालों पर तोड़फोड़ करने वालों को सजायें दी जायें डाक्टरों अस्पतालों को सुरक्षा दी जाये। मतलब  "जबर मारे ओर रोने भी न दे" वाली कहावत को सार्थक रूप दिया जाना चाहिये यानी डाक्टर जितनी चाहे मनमानी करें लेकिन भुक्तभोगी चुपचाप हाथ बांधे खड़ा रहे। आईये अब आते है असल मुददे पर, सवाल यह है कि किसी डाक्टर की पिटाई या अस्पताल में तोड़फोड़ की नौबत क्यों आती है? अगर यह सवाल डाक्टरों से पूछा जाये तो उनका जवाब होगा कि पता नही लोग खुद ही करने लगते है। चलिये हम कुछ आप बीती और कुछ आंखों देखी वारदातें बताते हैं फिर हर उस इंसान से पूछेगें कि क्या डाक्टर के साथ मारपीट या तोड़फोड़ गलत हुई ? 
सन् 89 का वाक्या है मेरी सगी बहन के एक वर्षीय बेटे को दिमागी बुखार हुआ उस समय उसके पिता बाहर गये हुए थे मेरी बहिन बच्चे को लेकर तुरन्त जिला अस्पताल पहुंची डाक्टर ने नम्बर आने पर ही देखने का कह दिया और जब उसका नम्बर आया जबतक डाक्टर के घर उसके कुछ मेहमान आने की खबर डाक्टर को मिली जिसे सुनकर वह उठकर चल दिया मेरी बहन गिड़गिड़ती रही लेकिन वह जल्लाद नही पसीजा और चला गया, जबतक हम लोग पहुंचे काफी देर हो चुकी थी हम किसी दूसरे डाक्टर के यहां ले जाने लगे लेकिन कुछ मिनटों बाद ही वह फूल सा बच्चा सदा के लिए खामोश हो गया। अब बताइये कि उस डाक्टर रूपी जल्लाद के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिये। 
6 जनवरी 1999 की बात है बरेली के थाना इज्जत नगर की छावनी अशरफ खां मोहल्ले में एक तीन साल का बच्चा छत से सड़क पर गिर गया, मौजूद लोग तुरन्त नजदीकी अस्पताल लेकर पहुंचे यहां डाक्टर ने कहा पहले पैसा जमा करो फिर देखेगें, बच्चे की हालत लगातार गिरती जा रही थी लोग डाक्टर की खुशामदें कर रहे थे कि कुछ ही देर में पैसा आ जायेगा जबतक इलाज शुरू कीजिये जान बचाईये लेकिन वह जालिम नहीं पसीजा, काफी देर देखने के बाद जब मैंने अपनी भाषा का इस्तेमाल किया तब उसने बच्चे को इलाज देना शुरू किया, साथ ही थोड़ी गुण्डा गर्दी भी दिखाने की कोशिश करता रहा गुण्डागर्दी दिखाने की वजह यह थी कि वह पूर्व व वतमान भाजपाई सांसद संतोष गगंवार का रिश्तेदार कहलाता है।
1 मई 1997 को मेरे पिता को ब्रेन हैमरेज हुआ शहर के नामी न्यूरो फिजीशियन को दिखाया गया डाक्टर ने तुरन्त भर्ती करने को कहा उस समय यह डाक्टर एक पुराने और मशहूर अस्पताल में बैठते थे हमने आनन फानन में भर्ती कर दिया, अस्पताल के स्टाफ ने मोटी रकम जमा कराई दवाईयों की लम्बी चैड़ी लिस्ट थमाकर तुरन्त लाने को कहा परिजनों ने तत्काल दवा लाकर देदी इसके बाद तीन घण्टे तक ना डाक्टर ने आकर देखा और न ही दवा देना शुरू की गयी हमने बार बार स्टाफ से कहा कि दवा शुरू करो तो स्टाफ ने कहा कि डाक्टर साहब के आने के बाद शुरू की जायेगी और डाक्टर तीन घण्टे तक नही आया, हालत लगातार गिरती गयी, डाक्टर को फोन पर बात की तो वह बोला कि अभी कुछ गेस्ट आये हुए है कुछ देर में आऊंगा, मतलब यह कि उसके महमान किसी की जान से ज्यादा अहमियत वाले थे। आखिरकार पांच घण्टे गुजर गये और वह नही आया मजबूर होकर हम पिता को घर ले आये और कुछ घण्टों बाद वे हमें छोड़ गये। अब बताईये उस डाक्टर और अस्पताल स्टाफ को कौन सा राष्ट्रीय सम्मान दिया जाना चाहिये था।
13 जून 1999 को थाना इज्जत नगर के क्षेत्र में सड़क दुर्घटना में एक बाईक सवार बुरी तरह घायल हुआ राहगीर उसे करीब के ही एक निजि अस्पताल ले गये जहां पर पहले तो डाक्टर ने इलाज शुरू करने से पहले पुलिस कार्यवाही रट लगाई, इसी बीच पुलिस पहुंच गयी। इसपर डाक्टर ने पैसा जमा कराने की बात की राहगीरों ने बताया कि अभी इसका कोई परिजन नहीं है खबर दी जा चुकी है आते होंगे तब तक ईलाज शुरू करिये लेकिन वह नही माना और इतना समय बर्बाद कर दिया कि घायल ने दम तोड़ दिया। आईएमए  "होली प्रोफेशन के होली लोग" बताये कि इस लालची डाक्टर को कौनसा सम्मान दिया जाना चाहिये।
सन 2001 में मुरादाबाद में रिक्शा चलाकर अपना व अपने बूढ़े पिता की जीविका चलाने वाले युवक की दिल्ली रोड पर एक एक्सीडेंट में मौके पर ही मौत हो गयी इसकी खबर सुनकर उसके लगभग 70-75 वर्षीय पिता को हार्टअटैक आया जिन्हें मोहल्ले के ही एक झोलाछाप को दिखाया हालत को देखकर उसने तुरन्त किसी बड़े अस्पताल ले जाने की सलाह देते हुए अपनी जेब से 200 रूपये भी दिये, उनके पास पड़ोसियों ने कुछ पैसा चन्दा करके मुरादाबाद के एक नामी अस्पताल ले गये जहां डाक्टर ने देखकर भर्ती करने को कहा और पांच हजार रूपये जमा करने को कहा इसपर लोगों ने उसे वास्विकता बताते हुए और पैसा चन्दा करके देने की बात कही लेकिन उस डाक्टर ने एक न सुनी, मौके पर ही एक दरोगा जोकि स्वंय को दिखाने अस्पताल आये हुए थे ने पांच सौ रूपये दिये, लेकिन डाक्टर नहीं माना और कुछ देर बाद अस्पताल की लाबी में ही बुजुर्ग ने दम तोड़ दिया। क्या आईएमए बतायेगा कि उस जल्लाद के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिये।
बरेली के बहेड़ी तहसील के एक गांव की एक प्रसूता महिला को प्रसव पीड़ा के चलते बहेड़ी आया गया, सीएचसी पर महिला डाक्टर के न मिलने पर बहेड़ी में ही एक निजि डाक्टर को दिखाया जिसने तुरन्त आप्रेशन की बात कहकर 10 हजार रूपये जमा करने को कहा, गरीब खेतीहर मजदूर था सरकारी अस्पताल के भरोसे घर से 3 हजार रूपये लेकर चला था। गिड़गिड़ाने लगा और दो दिन में इन्तेजाम करके देने की बात कहने लगा, लेकिन डाक्टर नहीं पसीजी मजबूर होकर वह पत्नी को जिला अस्पताल ले जाने लगा लेकिन रास्ते में ही प्रसूता ने दम तोड़ दिया, उसके साथ उसके गर्भ में सही सलामत मोजूद बच्चा भी खत्म हो गया। 
2010 के अप्रैल माह की 11 तारीख को मेरी सगी बहन की पुत्री अपने पति के साथ बाईक पर बरेली के प्रभा टाकीज के सामने से गुजरे रही थी कि अचानक बेहोश होकर बाईक से गिर गयी, उसके पति व राहगीरों ने आनन फानन में सामने मौजूद अस्पताल पहुंचाया, यहां अस्पताल ने भर्ती करते समय तो पैसे की अड़ नहीं की, लेकिन न्यूरो सर्जन ने तत्काल आप्रेशन को कहा, हमारा परिवार राजी हो गया, आप्रेशन हुआ और आठ रोज तक वह बेहोश पड़ी रही, लूट की हालत यह थी कि हर रोज रूई के दो बड़े बण्डल, छः इंच की बीस बैण्डीज के अलावा दो से तीन हजार रूपये रोज की दवाई मगांई जाती रही, क्योंकि सभी जानते है कि किसी भी अस्पताल में मेडीकल चलाने के लिए सेल पर 18 से बीस फीसद की दर से अस्पताल कमीशन लेता है अतः धरम के दोगुने रेट पर मिल रही थी दवाईयां, हम भी अच्छी तरह जानते थे कि आप्रेशन के मरीज की रोज ड्रेसिंग नहीं होती मगर मजबूरी के चलते लाकर देते रहे। आठवीं रात लगभग डेढ़ बजे उसकी हालत अचानक खराब हुई आईसीयू में काम कर रहे आठवीं से दसवीं तक पढ़े हुए लड़को ने तुरन्त डाक्टर को फोन पर सूचना दी डाक्टर वार्ड के ऊपर ही छत पर रह रहा था, डाक्टर ऊतर कर नहीं आया हम लोगों ने भी कई बार फोन किया लेकिन वह नहीं आया और कुछ देर बाद घायल ने दम तोड़ दिया।
इसके सिर्फ दस महीने बाद ही मृतका की मां को ब्रेन हैमरेज हुआ उनके परिवार वाले घबराये तो किसी दलाल ने उसी जालिम जल्लाद को दिखाने की सलाह दी, इस वक्त  तक उसने अपना अस्पताल खोल लिया था परिवार वहीं ले गये भर्ती करने के समय तो डाक्टर ने काफी टाईम खर्च किया भर्ती कर लिया, बेहिसाब दवाईयां लिख लिखकर दी जाती रही, रात लगभग तीन बजे हालत बिगड़ी आईसीयू में काम कर रहे दसवीं तक पढ़े लड़को ने डाक्टर को सूचना दी, डाक्टर ने आकर देखने की बजाये फोन पर ही निर्देश दे डाले हमारे परिवार वालों ने मोबाइल पर बात की तो डाक्टर ने कहा कि दवा बता दी है हालत ज्यादा बिगड़ी तो फिर फोन किया, डाक्टर ने बात करने की बजाये सीधे फोन बन्द कर दिया, वार्ड में काम कर रहे चमचे इन्दरकाम पर बात नही करा रहे थे, आखिर कार कुछ देर तड़पने के बाद मेरी बहिन ने दम तोड़ दिया। वार्ड के नौकरों ने जल्लाद को बताया इसपर उसने हिसाब करके पैसा जमा करा लेने को कहा, यानी उसको मरीज की जान की नहीं बल्कि पैसे की परवाह थी। कोई बता सकता है कि  "होली प्रोफेशन" के इस होली महारथी को कौन सा सम्मान दिया जाना चाहिये।
बरेली के बिहारपुर सिविल लाईन के एक हरिजन व्यक्ति के 19 दिन आयू के नवजात की हालत खराब हुई उसके परिवार वाले शहर के नामी बच्चा रोग विशेषज्ञ को दिखाने ले गये डाक्टर ने बच्चे को तत्काल मशीन में रखने की सलाह दी, पहला बच्चा होने की वजह से पूरा परिवार बहुत परेशान था, डाक्टर की सलाह मानली और बच्चे को मशीन में रखवा दिया। सारा देश जानता है कि अस्पताल वाले अपनी हठधर्मी के चलते मा0 सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को ठेंगा दिखाते हुए मशीन में रखे हुए बच्चे के परिवार वालों को अन्दर फटकने नहीं देते। बच्चे ने कब दम तोड़ दिया किसी को पता ही नही चला, चैथे दिन मैं भी अस्पताल पहुंचा कुछ देर तक वार्ड के बाहर से ही बच्चे को देखता रहा, शक होने पर वार्ड में जाने लगा तो वहां मौजूद स्टाफ ने अन्दर आने से रोकना चाहा मैंने उन्हें समझाया कि कुछ सैकेण्ड में ही बाहर आ जाऊंगा लेकिन वे नही माने, मजबूर होकर मैने अपनी भाषा का इस्तेमाल किया और अन्दर गया जाकर देखा तो बच्चा पता नही कब को मर चुका था उसका शरीर रंग बदल चुका था। मैंने डाक्टर से बात की तो उसने मान लिया कि बच्चा मर चुका है लेकिन उसकी नीचता की हद यह थी कि उसने पैसा जमा करने की बात कही इसपर मैंने उसे आने वाले तूफान से आगाह किया तब कहीं जाकर उसने बच्चे के शव का परिजनों को दिया। कई रोज तक मरे हुए बच्चे को मशीन में रखकर पैसा ऐंठने वाले इस महान आदमी को क्या ईनाम दिया जाना चाहिये?
बरेली के ही एक अस्पताल में जगह जगह लिखा हुआ है कि  "इस अस्पताल में बाहर के मेडीकलों से लाई गयी दवाईयां इस्तेमाल नहीं की जाती" मतलब अस्पताल के ही मेडीकल से ही खरीदना पड़ती है दवाईयां, जहां मनचाहे दाम वसूलना मेडीकल स्टोर की मजबूरी है क्योंकि बिक्री पर 18 से 20 फीसदी कमीशन अस्पताल को दिया जाता है, और सिर्फ इसी कमीशन की वसूली के लिए रोगी को अस्पताल के मेडीकल से ही दवाईयां खरीदने पर मजबूर किया जाता है।
शहर के ही एक मशहूर अस्पताल के आईसीयू के बाहर नोटिस लगा है कि  "डिस्चार्ज की फाइल डिस्चार्ज होने के 6 घण्टे बाद तैयार की जाती है" साधारण मामलों में किसी भी निजि अस्पताल में मरीज को दोपहर एक बजे के बाद ही डिस्चार्ज किया जाता है। कल्पना कीजिये कि अगर कोई रोगी किसी दूरदराज गांव का है और उसे एक बजे डिस्चार्ज करके उसकी फाईल 6 घण्टे बाद यानी लगभग 7 बजे दी गयी तो वह किस तरह पहुंचेगा अपने घर, लेकिन उसकी परेशानी से अस्पताल को कोई लेना देना नही होता।
इसी तरह के हजारों मामले रोज सामने आते है लेकिन चूंकि देश का कानून और वर्दी पैसे वालों की गुलाम है जब कभी ऐसे मामले में भुक्तभोगी कानून के पास मदद के लिए जाता है तो कानून अपने अन्नदाता डाक्टर को ही बचाता नजर आता है कई मामलों में उपभोक्ता फोरम में भी लोग गये लेकिन यहां तो पैसे वालों की ही बल्ले बल्ले का रिवाज है।
हम डाक्टरों के साथ मारपीट करने या तोड़फोड़ करने को सही नही ठहरा रहे,  लेकिन ऐसा करने वालों को गलत भी नहीं ठहरा सकते क्योंकि साफ सी बात है कि कोई भी व्यक्ति बेवजह ही हिंसक नहीं बनता, उसे मजबूर किया जाता है हिंसक बनने पर, और मजबूर करते है डाक्टर और अस्पताल। एक तरफ जिस व्यक्ति का कोई परिजन मौत जिन्दगी के बीच झूला झूल रहा हो और जिस डाक्टर पर वह भरोसा करके आया हो वह उसकी मजबूरी का नाजायज फायदा उठाये तो ऐसी स्थिति में उसका हिंसक बन जाना स्वभाविक है।
हम यह भी नही कह रहे कि सभी डाक्टर मरीजों की मजबूरी का फायदा उठाते  हैं या गुण्डागर्दी करते है, बल्कि डा0 हिमांशु अग्रवाल और कमल राठौर जैसे डाक्टर भी इसी समाज और पेशे में हैं जो अपने महान व्यक्तित्व की वजह से ही लोगों के मनों पर राज करते है लोग मन ही मन उनकी पूजा करते हैं।
आज तमाम डाक्टर यानी पूरा आईएमए एक जुट होकर अपने ही जुल्म के सताये हुए लोगों को ही गलत बताकर कानून से सुरक्षा मांग रहा है। उसी कानून से सुरक्षा मांग रहे है डाक्टर जिस कानून को नोटों के बल पर अपनी जूती में रखते है। आईये किन किन मामलों में कानून डाक्टरों की गुलामी करता है।
1 कानूनन किसी भी अस्पताल के पंजिकरण के लिए आवेदन के साथ अस्पताल में काम करने वाले सभी डाक्टरों के योग्यता प्रमाण पत्र, पैरा मेडीकल स्टाफ के डिप्लोमों की कापियां भी प्रेषित की जानी चाहिये, क्या आजतक किसी ने की, ना ही किसी ने प्रेषित की और ना ही पंजिकरण करने वाले अधिकारी ने कभी किसी से मांगी, हां अगर कुछ मांगा जाता है तो वह है नोटों की गड्डी। शायद ही कोई अस्पताल हो जिसमें कम्पाउण्डर व नर्से दसवीं से ज्यादा पढ़े हों या प्रशिक्षित हों। यह सच्चाई देश भी के स्वास्थ विभागों के साथ साथ सभी प्रशासनिक अफसरान को मालूम है लेकिन सब अपनी अपनी उगाहियों के लिए गुलाम भारतीयों की जान को खतरें में देखकर गदगद होते रहते है।
2 कानून कहता है कि अस्पताल आबादियों के बीच नहीं बनाया जा सकता, और अस्पतालों के आप्रेशन थियेटर व नरसरी किसी भी हालत में बेसमेन्ट में नहीं बनाये जा सकते, लेकिन भारत में खददरधारियों और पूंजी पतियों का गुलाम कानून सिर्फ किताबों में ही दम तोड़ रहा है इसका वास्तविक रूप है ही नहीं। जितने भी अस्पताल है सब आबादियों के बीच ही हैं। विकास प्राधिकरणों को केवल सुविधा शुल्क की दरकार रहती है, आंखों पर नोटों की पटिटयां बांधकर नक्शें पास किये जा रहा हैं। आपको याद होगा ही लगभग दस साल पहले की बात है बरेली विकास प्राधिकरण ने आबादी के बीचो बीच बनाये गये अस्पताल का नक्शा पास करने से मना कर दिया लेकिन चूंकी कानून को जूटी में रखने वाले खददरधारी (तत्कालीन मुख्यमंत्री) को इस अस्पताल का उद्घाटन करना था तो मुख्यमंत्री ने नियम का मुंह काला करके उदघाटन किया और इशारा करके नक्शा भी उसी समय पास करा दिया, नतीजा आज उस अस्पताल की वजह से पूरी सड़क जाम रहती है कालोनी वासी परेशान हैं लेकिन मामला खददरधारी का है इसलिए सह रहे हैं।
3 लगभग आठ साल पहले मा0 सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि अस्पताल के आप्रेशन थियेटरों में कैमरे लगाकर उनके टीवी बाहर लगाये जाये जिससे कि रोगी के परिवार वाले यह देख सके कि उनके मरीज के साथ अन्दर हो क्या रहा है। क्या पूरे देश में किसी भी अस्पताल ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का पालन किया? क्या प्रशासनों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन कराने की कोशिश की ? साफ है कि आजतक नहीं। कहीं राजनैतिक दबाव में जिम्मेदार अफसरान आंख बन्द रखने पर मजबूर है तो कहीं नोटों के दबाव में, कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय को ठेंगा ही दिखाया जा रहा है।
डाक्टरों को मारपीट करने तोड़फोड़ करने वालों के खिलाफ कार्यवाहियों की मांग करते हुए लामबन्द होने की बजाये अपनी सोच बदलें, अपने अन्दर के लालच को खत्म करें, किसी जमाने में मसीहा कहे जाने पेशे को एक बार फिर जल्लाद का चोला उतार कर मसीहा बनायें, ईलाज कराने आने वाले मरीजों की जेबों की जगह उनकी जानों और सेहतों को अहमियत देना शुरू करें, फिर देखें कि लोग पीटने तोड़फोड़ करने की जगह पैर छूने लगेगे। दूसरी बात मारपीट या तोड़फोड़ करने वालों के खिलाफ कानून को जगाने की बजाये खुद कानून का पालन करें।

Saturday, 14 February 2015

दाग धोने की कोशिश में देदी दिल्ली


दिल्ली विधान सभा चुनावों में बीजेपी पर फिरी झाड़ू और गुजरे लोकसभा चुनावों को बारीकी से देखने की जरूरत है। दुनिया भर इसे एक नजर से देखकर ओर आसानी से बीजेपी की शिकस्त मान रही है। शायद किसी की भी नजर गुजरे लोकसभा चुनावों की तरफ नही जा रही हो, आखिर है तो चैंकाने वाली बात कि एक तरफ से झाड़ू ही फेर दी गयी। अगर एक लम्हे के लिए भी गुजरे लोकसभा चुनाव सामने रखकर गौर किया जाये तब बात आसानी से हजम नही हो रही, कि आखिर इतना बड़ा इन्कलाब कैसे आ गया। कया हो गया इवीएम को क्यों नही उगले एक तरफा बीजेपी के वोट, क्यों नहीं नाची इवीएम लोकसभा की तरह बीजेपी के इशारे पर। तआज्जुब की बात है कि केन्द्र में बीजेपी की सरकार होते हुए भी एक मामूली (बीजेपी और कांग्रेस के कथनानुसार) सा  इंसान महारथियों पर भारी पड़ गया। कौनसा चमत्कार था या जादू था जो लोकसभा में उम्मीद से कहीं ज्यादा कामयाबी बेजेपी को देता है जबकि उस वक्त बीजेपी पैदल थी और अब जबकि केन्द्र की सत्ता मुटठी में है तो बीजेपी इतनी बुरी तरह हारी, क्या चन्द दिनों में ही बीजेपी को सभी सात सांसद देने वाली दिल्ली ने इस बार विधायकी को ठेंगा दिखा दिया। आखिर क्या बात है कि लोकसभा चुनावों में किसी भी निशान का बटन दबाने से वोट बीजेपी के खाते में पहुंचाने वाली ईवीएम दिल्ली विधानसभा चुनावों में इतनी ईमानदार क्यों बन गयी। क्या दिल्ली की तरह ही दूसरे राज्यों में भी इवीएम इतनी ही ईमानदारी से काम करेगी ? हालात का जकाजा है कि ये सच्चाईयों को समझना जरूरी है। कहां गये 3838850 वोट जिन्होंने दिल्ली से 7 सांसद भाजपा को दिये आज विधायक क्यों नहीं दिये। क्या वास्तव में लोकसभा में इसी गिनती में वोट मिले जिस हिसाब से भाजपा की जीत दिखाई गयी, और अगर हकीकत में ही लोकसभा चुनावों में अपेक्षा से कहीं ज्यादा वोट मिले तो फिर आज इतना बड़ा अन्तर कैसे आ गया वह भी सिर्फ एक साल के अर्से में ही ? ऐसे ही अगिनत सवाल पैदा हो रहे है दिल्ली में भाजपा की प्रचण्ड हार से। आईये तलाशते हैं इन सारे सवालों के जवाब.......। दरअसल लोकसभा चुनावों की ही तरह से दिल्ली चुनावों में बीजेपी के वोट उगलने का सबक ईवीएम को नहीं रटाया गया, यहां ईवीएम अपनी आंखों पर काली पटटी बांधे रही और जो मिला वो बताया ईवीएम ने, जबकि लोकसभा चुनावों में ईवीएम के कान पहले ही मरोड़ दिये गये थे और ईवीएम को मजबूर कर दिया गया था कि मिले कुछ भी लेकिन बताना एक सबक। अब सवाल यह होता है कि जब लोकसभा में ईवीएम को गुलाम बना लिया गया था तो दिल्ली में भी बनाया जा सकता था। जी हां बनाया जा सकता था और इस बार तो सारा का सारा सिस्टम हाथ में है, लेकिन लोकसभा चुनावों के बाद मीडिया, सोशल मीडिया बड़े पैमाने पर ईवीएम की करतूतों की छीछालेदर हुई और लगातार हो ही रही है और इसी कलंक को धोने की कोशिश की गयी है ईवीएम को सीधी राह चलने की आजादी देकर। दरअसल दिल्ली की सरकार या दिल्ली का मुख्यमंत्री सिर्फ नाम का मुख्यमंत्री होता है कदम कदम पर केन्द्र सरकार का मोहताज रहता है किसी भी सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है कानून व्यवस्था, दिल्ली सरकार कानून के मामले में पूरी तरह से केन्द्र की मोहताज होती है, इसी तरह से और भी कई मामले है जिनमें दिल्ली सरकार स्वंय कुछ कर नहीं सकती, कदम कदम पर केन्द्र की मोहताजी भुगतनी पड़ती है। यानी लाचार और बेबस। मतलब सिर्फ नाम का मुख्यमंत्री। बस यही वजह है दिल्ली चुनाव में ईवीएम को आजादी से काम करने दिया गया। दिल्ली चुनाव नतीजों ने कम से कम यह तो साफ कर ही दिया कि गुजरे लोकसभा चुनावों में दिल्ली से सातों संासद भाजपा के निर्वाचित घोषित किया जाना अपने आप में एक बड़ा खेल था। किसी भी सूरत में हजम न होने वाली बात है कि जिन क्षेत्रों से सात सांसद दिये हो उनमें से सिर्फ नौ महीने के अन्दर ही एक भी विधायक भाजपा को नहीं मिल सका और जो हारे वे भी इतने लम्बे फासले से। ये फासले खुद ही बता रहे है कि लोकसभा चुनावों में इवीएम ने नतीजे दिये नहीं थे बल्कि लिये गये थे क्योंकि एक साथ 3838850 वोटरों की पसन्द बदल जाना समझ में आने से परे है। अगर मान भी लिया जाये कि दिल्ली का मतदाता मोदी सरकार से नाखुश है तब भी एक साथ इतना बड़ा इन्कलाब तो आना पूरी तरह से समझ से बाहर है, कुछ फीसद या ज्यादा से ज्यादा पचास फीसद वोटरों में बदलाव आ सकता है लेकिन सौ फीसदी वोटरों की पसन्द सिर्फ नौ महीने में ही बदल जाना मुश्किल नहीं बल्कि नामुम्किन सी बात है। हरेक बिन्दू को बारीकी से समझने के बाद साफ हो जाता है कि कि 2014 में हुए लोकसभा चुनावों के नतीजे इवीएम से दिलवाये गये थे यानी भाजपा को पूर्ण बहुमत मतदाताओं से नही मिला बल्कि सिर्फ ईवीएम से मिला। इस बाबत न्यूज मीडिया और सोशल मीडिया में अच्छी खासी छीछालेदर भी हुई यह और बात है कि ईवीएम से छेड़छाड़, किसी भी बटन को दबाने पर वोट भाजपा के खाते में डालने की ईवीएम की करतूत की तमाम तस्वीरों वीडियो, खबरों को देखने पढ़ने सुनने के बावजूद चुनाव आयोग के कान तले जूं नहीं रेंगी। इस हकीकत को कबूल कर लेने में शायद कोई बुराई नहीं है कि मोजूदा केन्द्र की भाजपा सरकार वोट से नहीं बल्कि ईवीएम को गुलाम बनाकर बनी है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों को निष्पक्षता के साथ बताने की ईवीएम को आजादी देने के पीछे भी लोकसभा चुनाव में ईवीएम की करतूत के मामले को दबाने का प्रयास भी लगता है जिससे कि अब भाजपा लाबी कह सकेगी कि  "अगर लोकसभा चुनाव में गड़बड़ की होती तो अब भी कर सकते थे", बस यही कहने के लिए दिल्ली की कुर्सी पर दिल्ली की जनता की पसन्द का व्यक्ति बैठाने की जनता की कोशिश को ज्यों का त्यों रखा गया। खैर वजह कोई भी हो कम से कम भारत पहली बार किसी ईमानदार, शरीफ और सादगी से जीने वाला शासक तो मिला, धन्य है दिल्ली के वोटर।

Monday, 9 February 2015

धोबी का कुत्ता, घर का रहा न घाट का
गुजरे दस साल के अर्से में कांग्रेस की हालत को देखकर कहावत "धोबी का कुत्ता घर का रहा न घाट का" याद आ रही है। कांग्रेस को इस हाल पर पहुंचाने की जिम्मेदार खुद कांग्रेस है। कांग्रेस जो जन्म से ही गददारी करती रही। सबसे पहले जवाहर लाल नेहरू ने देश का बटवारा कराया। अगर जवाहर लाल ने महात्मा गांधी की बात मानी होती तो शायद देश के टुकड़े न होते लेकिन जवाहर लाल मुसलमान को मजबूत होता नहीं देखना चाहते थे इसलिए जवाहर लाल ने कांग्रेस कमेटी में मुस्लिम विरोधी प्रस्ताव पास कराकर प्रधान मंत्री की कुर्सी पर कब्जा जमाने का रास्ता साफ कर लिया। जवाहर लाल का मन इतने से भी नहीं भरा तो जवाहरलाल ने निजाम हैदराबाद पर सेना से आक्रमण कराकर हजारों बेगुनाह मुस्लिमों की लाशें बिछवादीं। 1965 में पाकिस्तान से हुए युद्व के दौरान भी देश के मुसलमान को जमकर सताया गया यह अलग बात है कि 1965 में कुर्सी पर जवाहरलाल न होकर लाल बहादुर शास्त्री थे लेकिन थे तो कांग्रेसी ही। इसके बाद इन्दिरा गांधी ने अपनी सरकार के दौरान बम्बई दंगे में मुस्लिमों का कत्लेआम कराया गया। इन्दिरा गांधी ने एक बड़ी ही साजिशी योजना के तहत नसबन्दी का हथियार इस्तेमाल किया यह भी मुस्लिम के खिलाफ एक सोची समझी साजिश ही थी। इस्लाम में नस्बन्दी की मनाही होने के बावजूद इन्दिरा गांधी ने जबरन मुस्लिमों की नसबन्दियां कराई जिससे नाराज हुए मुस्लिम ने 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस को उसकी औकात पर पहुंचा दिया। जनता पार्टी की सरकार लूट खसोट की बन्दर बाट के चलते ढाई साल में ही चल बसी। इन्दिरा गांधी ने मुस्लिमों को अपने घडि़याली आसुओं के झांसे में लिया और एक बार फिर कांग्रेस बरसरे रोजगार हो गयी, लेकिन अपनी दगाबाज फितरत नहीं बदल सकी और मुरादाबाद दंगे में इन्दिरा गांधी और कांग्रेस की ही उ0प्र0 सरकार ने पीएसी के हाथों जमकर मुस्लिमों पर जुल्म कराकर 1977 के चुनावों में हुई हार का बदला लिया। राजीव गांधी ने बैठते ही नया गुल खिलाया और बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाकर उसमें नमाज की जगह पूजा कराना शुरू करदी। हालांकि राजीव गांधी ने इराक पर आतंकी हमले के दौरान आतंकियों के जहाजों को ईंधन देने पर चन्द्र शेखर के कान मरोड़े जिससे एक बार भी मुस्लिम कांग्रेस के झांसे में आ गये और दे दिया कांग्रेस को लूट खसोट का मौका, लेकिन इस बार कांग्रेसी प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव ने मुस्लिमों से गददारी की सारी हदें ही पार करते हुए बाबरी मस्जिद को आतंक के हवाले करने में पूरी साजिश रची, कांग्रेसी प्रधान मंत्री की इस करतूत से एक बार फिर मुस्लिम ने कांग्रेस को सही जगह पर पहुंचा दिया।इस बीच केन्द्र में बीजेपी का कब्जा हो गया और बीजेपी की राज्य व केन्द्र सरकारों ने गुजरात में बेगुनाह मुसलमानों पर आतंकी मला कराकर हजारों बेकसूरों का कत्लेआम कराया क्योंकि इस समय कांग्रेस औकात पर थी तो गुजरात आतंक पर मन ही मन खुश होती रही कोई जश्न नहीं मना सकी और केन्द्र में अटल बिहारी सरकार भी मन ही मन गदगद होती रही लेकिन खुलकर गुजरात आतंक का जश्न नहीं मनाया। गुजरात आतंक से झल्लाये मुस्लिमों को लगा कि कांग्रेस ही बेहतर है और कांग्रेस में नौटंकीबाजों की कमी नहीं रही इस बार सोनिया गांधी ने ड्रामा करके मुस्लिमों को झांसे में ले लिया और बेचारा सीधा शरीफ मुस्लिम वोट फिर फंस गया कांग्रेसी जाल में। सत्ता में आते ही कांग्रेस ने गुजरात आतंक में शहीद बेगुनाहों की लाशों पर अपनी खुशी का इजहार करते हुए गुजरात आतंक के मास्टर माइण्ड को सम्मान व पुरूस्कार दिया, अगर यही जश्न बाजपेई सरकार मनाती तो शायद कुछ हद तक ठीक होता, यही नहीं कांग्रेस सरकार के पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने गोधरा साजिश को बेनकाब करने के लिए नानावटी आयोग गठित करके जांच कराई जांच ने सारा सच सामने लाकर रख दिया जिसपर कानूनी कार्यवाही करने की बजाये सोनिया नामक रिमोट से चलने वाली कांग्रेस की मनमोहन सिंह
सरकार उस रिपोट्र को ही दफ्ना दिया। इसके साथ ही असम में आतंकियों के हाथों किये गये मुस्लिम कत्लेआम को रोकने की बजाये उलटे उसपर करराहने वालों की आवाज बन्द करने की कोशिश यानी असम आतंक की खबरें आरएसएस पोषित न्यूज मीडिया तो दे नहीं रहा था इसलिए लोग सोशल मीडिया के सहारे ही खबर दे रहे थे इसलिए सोशल को बन्द करने के लिए कांग्रेसी सरकार ने हाथ पैर मारे। अफजल गुरू को ठिकाने लगाने के लिए बड़े बड़े हथकण्डे अपनाये कांग्रेस की सरकार ने और लगा दिया ठिकाने, पाकिस्तान से आये सैकड़ों आतंकियों को सरकारी खर्च पर पाला गया और आज तक बादस्तूर पाला जा रहा है जबकि बीसों साल पहले पाकिस्तानी महिलाओं को जो कि यहां शादियां करके रह रही थी कई कई बच्चे थे, उनको उनके मासूम बच्चों तक को छोड़कर देश से निकाला गया। मुजफ्फर नगर में मुस्लिमों पर साजिश के तहत आतंक बरपाया गया कांग्रेस और कांग्रेस की केन्द्र सरकार मौज मस्ती में रही। रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट भी दीमक के हवाले करदी। कांग्रेस की असलियत धीरे धीरे जाहिर होती गयी ओर कांग्रेस जगह जगह से बाहर की जाती रही। जीता जागता प्रमाण है दिल्ली विधान सभा के लिए कुछ ही महीनों के अन्तराल से हुए दोनों चुनावों में कांग्रेस की हालत। कांग्रेस की इस हालत को देखते हुए ये कहावतें साकार नजर आ रही है कि "धोबी का कुत्ता, घर का रहा ना घाट का।", दूसरी कि "ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम", दरअसल कांग्रेस हमेशा से ही आरएसएस के एजेण्ट के रूप में रही और आरएसएस के इशारे पर ही थिरकती रही। कांग्रेस के इस हाल को देखकर कम से कम इतना तो समझ आ ही गया कि "देर आयद दुरूस्त आयद" देरी से ही सही पर कम से कम देश के मुस्लिमों की आंखे खुली तो, शुक्र है कि मुसलमानों ने कांग्रेस के असल रूप को पहचाना तो।

Monday, 26 January 2015

ब्रिटिश संविधान के रूपान्तर दिवस की खुशियां मनाते गुलाम

लो, 64वीं बार, एक बार फिर मनाने लगे जश्न ब्रिटिश कानून के हिन्दी रूपान्तर  (गणतंत्र) दिवस का। बड़ी ही धूम मची है ऐसा लगता है मानों कोई धार्मिक त्योहार हो या घर घर में शादी हो। सबसे ज्यादा चैकाने वाली बात यह है कि गणतंत्र के इस जश्न को सबसे ज्यादा धूम से मनाने वाले वे लोग है जिनके लिए कानून में 15 अगस्त 1947 से पहले और आज में कोई फर्क नही आया। जो हाल ब्रिटिश की गुलामी में था हिन्दोस्तानियों का वही हाल देसियों की गुलामी में आकर है। 15 अगस्त 1947 से पहले और बाद में फर्क सिर्फ इतना हुआ कि पहले विदेशियों की गुलामी में थे और अब 64 साल से देसियों की गुलामी में जीना पड़ रहा है। किसी भी तरह का जश्न मनाने से पहले यह जानना जरूरी है कि जिस बात का हम जश्न मना रहे हैं आखिर वह है क्या, हमसे उसका क्या ताआल्लूक (सम्बन्ध) है उसने हमे कया दिया है, या हमें क्यों मनाना चाहिये उसका जश्न?...... तो आईये सबसे पहले यह जाने कि आजादी और गुलामी कया है? गुलामी का मतलब है कि हम अपनी मर्जी से जीने का कोई हक (अधिकार) नहीं, हम अपनी मर्जी से खा नहीं सकते पहन नही सकते, पढ़ नहीं सकते रहने के लिए घर नहीं बना सकते, अपने ही वतन में घूम फिर नहीं सकते। अगर कहीं जाते हैं तो उसका टैक्स देना पड़ता है। तलाशियां देनी पड़ती हैं। कुछ खरीदते या बेचते हैं तो उसका टैक्स देना पड़ता है। इसी तरह की सैकड़ों बाते हैं जो यह बताती है कि हम किसी की गुलामी में है। आजादी उसे कहते हैं जिसमें लोग अपनी मर्जी के मालिक होते हैं। जैसा चाहें खायें पहने जैसे चाहें जियें, कहीं घूमें फिरें वगैरा वगैरा। 

आईये अब देखें कि जिस  "गणतन्त्र "  के नाम पर हम जश्न मना रहे हैं उसमें हमारे लिए कुछ है  या नही.......? 64 साल के लम्बे अर्से में देखा यह गया है कि हिन्दोस्तान का आम आदमी ज्यों का त्यों गुलाम ही है ठीक वैसे ही हालात हैं जैसे 15 अगस्त 1947 से पहले थे। 15 अगस्त 1947 के बाद से फर्क सिर्फ इतना हुआ है कि 1947 से पहले हम विदेशियों के गुलाम थे और इसके बाद से देसियों के गुलाम बना दिये गये हैं। हिन्दोस्तानियों पर बेशुमार कानून लादे गये और लगातार लादे जा रहे हैं आजतक कोई भी ऐसा कानून नहीं बना जिसमें आम आदमी को आजादी के साथ जीने का अधिकार दिया गया हो, खादी और वर्दी को आजादी देने के लिए हर रोज नये से नया कानून बनाया जाता रहा है, ऐसे कानूनों की तादाद इतनी हो गयी कि गिनती करना मुश्किल है। किसी भी विषय को उठाकर देखिये, आम आदमी को कदम कदम पर उसके गुलाम होने का एहसास कराने वाले ही नियम मिलेंगे, वे चाहे आय का विषय हो या व्यय का, खरीदारी का मामला हो या बिक्री का, वतन के अन्दर घूमने फिरने की बात हो या फिर रहने बसने की, इबादतों का मामला हो या रोजी रोजगार का, सफर करने की बात हो या ठहरने की। कोई भी मामला ऐसा नहीं जिसमें आम जनता को उसके गुलाम होने का एहसास नहीं कराया जाता। किसी भी नजरिये से देख लीजिये। आप अपने घर से निकलये आपको हर पन्द्रह बीस किलोमीटर की दूरी पर टौल टैक्स देना होता है, जबकि ये टैक्स वर्दी और खादी से नहीं लिये जा सकते, रेल रिजर्वेशन कराये तो वहां भी खादी और वर्दी के लिए किराये में बड़ी रियायत के साथ कोटा मौजूद रहता है। आम हिन्दोस्तानी को उसके गुलाम होने का एहसास कराये जाने का एक सबूत यह भी है कि खददरधारी जब पैदल होते हैं और दर बदर वोट की भीख मांगते हैं तब ये खददरधारी जिन गुलामों के बिना किसी खौफ, और वर्दी वालों की लम्बी चैड़ी फौज को साथ लिये बिना ही उस ही गुलाम जनता के बीच फिरते दिखाई पड़ते हैं जो गुलाम जनता इन्हें कुर्सी मिलते ही दुश्मन लगने लगती है, गुलाम वोटरों से इन्हें बड़ा खतरा होता है। यानी कुर्सी मिलते ही गुलाम जनता को उसकी औकात ओर गुलाम होने का एहसास कराया जाता है। ट्रेनों में सुरक्षा बलों के जवान और सिविल पुलिस वर्दीधारी, गुलाम भारतीयों को बोगी से उतारकर पुरी बोगी पर कब्जा करके कुछ सीटों पर आराम से खुद लेटते हैं बाकी सीटें पैसे लेले कर सवारियों को बैठने की इजाजत देते है यह कारसाजी लखनऊ के स्टेशनों पर अकसर रात में देखी जाती है। अगर बात की जाये विदेश यात्रा के लिए पासपोर्ट बनवाने की तो यहां भी खददर धारियों को पासपोर्ट पहले दिया जाता है और आवेदनों की जांच बाद में जबकि गुलामों को पुलिस, एलआईयू का पेट भरना जरूरी होता है तब कहीं जाकर पासपोर्ट मिल पाता है, साल भर पहले तक तो पासपोर्ट बनाने का काम सरकारी दफ्तरों में किया जाता था गुलामों को सरकारी बाबुओं की झिड़कियां खानी पड़ती थी, लेकिन लगभग साल भर पहले यह काम भी कमीशन खाने के चक्कर में निजि हाथों में दे दिया गया। बिजली उपभोग का मामला देखिये गुलाम जनता का कोई उपभोक्ता बिल जमा करने में देरी करदे तो तुरन्त उसे सलाई से वंचित करते हैं जबकि खददरधारियों और वर्दीधारियों के यहां बिजली सप्लाई निःशुल्क है, गुलाम जनता के लोग पड़ोस के घर से सप्लाई लेले तो दोनों के खिलाफ बिजली चोरी का मुकदमा ओर वर्दीधारियों के यहां खुलेआम कटिया पड़ी रहती है बरेली की ही पुरानी पुलिस लाईन में सैकड़ों की तादाद में कटिया डाली हुई हैं सारे ही थानों में ऐसे ही उपभोग की जाती है बिजली कभी कहीं की लाईन नहीं काटी जाती। किसी विधायक सांसद, मंत्री आदि के यहां आजतक चैकिंग ही नहीं की गयी क्योंकि वे गुलाम नहीं रहे। गुलाम जनता के मासूम बच्चे भूखे पेट सो सो कर कुपोषण की गिरफ्त में आ जाते हैं जबकि खददरधारियों, और वर्दीधारियों के घरों पर पाले जा रहे कुत्ते भी दूध, देसी घी, के साथ खाते हैं फिर भी सोच यहकि हम आजाद हैं। बात गणतंत्र की है जी कानून की किताबे उठाकर देखिये सारा का सारा संविधान ज्यों का त्यों ब्रिटिशों का ही बनाया हुआ है कोई भी अन्तर नहीं किया गया केवल उसका हिन्दी रूपान्तर समझा जा सकता है, मिसाल के तौर पर किसी गुलाम के खिलाफ अगर मामूली कहा सुनी की भी रिपोर्ट दर्ज हो तो उसे पासपोर्ट नहीं दिया जाता जबकि ब्रिटिशों के एजेण्टों (खददरधारियों) के खिलाफ कितने ही कत्लेआम के मुकदमें हों बलात्कार लूट अपहरण के मामले चल रहे हों उसे विदेशी तफरी कराने में देर नही की जाती, गुलाम जेल में रहते हुए वोट नहीं दे सकता लेकिन खददरधारी जेल में रहते हुए चुनाव लड़ सकता है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेन्दर मोदी तक ऐसे हजारों सबूत मौजूद है कि इन लोगों पर हत्या बलात्कार अपहरण लूट यहां तक कि कत्लेआम तक के मुकदमें रहे ओर हैं भी लेकिन इनपर कोई कानूनी रोक नही रही। जी हां ठीक  वैसे ही जिस तरह ब्रिटिश शासन में सारी पाबन्दियां और सजायें गुलाम भारतीयों के लिए ही थी ब्रिटिशों पर कोई पाबन्दी नहीं थी अदालतों में ब्रिटिशों के खिलाफ कभी कोई सजा नही होती थी वैसे ही आज भी नही हो रही। देखिये हैदराबाद कत्लेआम से गुजरात आतंकवाद तक के मामले, बम्बई व संसद हमले के ड्रामें को देखिये ओर मालेगांव,समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद, अजमेर दरगाह धमाकों के मामलों में फर्क देखिये। आप किसी हाईवे पर किसी भी रंगदारी वसूली केन्द्र (टौल प्लाजा) पर लगे बड़े बड़े बोर्डों को पढि़ये जिनपर साफ साफ लिखा होता है कि खादी ओर खाकी को छूट है। किसी भी नजरिये से देखा जाये आम आदमी गुलाम और खादी, वर्दी मालिक दिखाई पड़ती है। एक छोटा सा उदाहरण देखें शहरों में जगह जगह वाहन चैकिंग के नाम पर उगाही किये जाने का नियम है, गुलाम जनता का कोई भी शख्स किसी भी मजबूरी के तहत अगर दुपहिया पर तीन सवारी बैठाकर जा रहा है तो उसका तुरन्त चालान या गुलामी टैक्स की मोटी वसूली जबकि वर्दी वाले खुलेआम तीन सवारी लेकर घूमते रहते है किसी की हिम्मत नहीं जो उन्हें रोक सके। सबसे बड़ी बात तो यह कि वर्दी वालों को अपने निजि वाहनों पर भी हूटर घन घनाने का कानून, जबकि गुलाम जनता को तेज आवाज के हार्न की भी इजाजत नहीं, हम दावे के साथ कह रहे हैं कि वर्दीधारियों द्वारा इस्तेमाल की जा रहे पुराने वाहन या तो चोरी के होते हैं या लावारिस बरामद हुए होते हैं और इन वाहनों के कागजात तो होने का सवाल ही पेदा नही होता सबूत के तोर पर गुजरे महीनें पंजाब में पकड़ी गयी कई दर्जन कारें जो यूपी ओर दिल्ली से चुराई जाती थी और इन्हें पंजाब लेकर जाते थे वर्दी धारी। गौरतलब पहलू यह है कि कई सालों से चल रहे इस धंधे में एक भी गाड़ी रास्तों कदम कदम पर रोज की जानी वाली चैंकिगों के दोरान नहीं पकड़ी गयी, कयोंकि किसी भी चैकिंग के दौरान चोरी करके ले जायी जा रही इन कारों को चैकिंग से आजाद रखा जाता है क्योंकि। राजमार्गो पर हर पन्द्र-बीस किमी की दूरी पर सरकारी हफ्ता वसूली बूथ लगाये गये हैं इनपर बड़े बड़े होर्डिंग लगाये गये हैं जिनपर साफ साफ लिखा गया है कि किस किस के वाहन को छूट है इनमें खादी व वर्दी धारी मुख्य हैं। किसी भी पर्यटन स्थल पर देख लीजिये वहां प्रवेश के नाम पर उगाही, यहां पर भी गांधी की खादीधारियों एंव पुलिस को छूट होने का संदेश लिखा रहता है। लेखिन फिर भी गुलाम जनता खुश हैं। खददरधारी कत्लेआम करे, और वर्दीधारी सरेआम कत्ल करें तो सजा तो दूर गिरफ्तारी तक करने का प्रावधान नहीं जबकि गुलाम जनता के किसी शख्स एक दो कत्ल कर दे तो उसको आनन फांनन में फांसी के बहाने कत्ल कर दिया जाता है। अदालतें भी खादी, वर्दी वालों के सामने बेबस ओर लाचार दिखाई पड़ती है जबकि गुलाम जनता के लिए पूरी शक्ति व सख्ती दिखाती देखी गयी हैं। लेकिन हमारा नारा वही कि आजाद हैं। 15 अगस्त की रात ब्रिटिशों के जाने के बाद गांधी जी ने घोषणा की थी कि 'आज से हम आजाद हें', गांधी के इस  "हम" से बेचारे सीधे साधे हिन्दोस्तानी समझ बैठे कि सब भारतीय। लेकिन गांधी के "हम"  मतलब था कि गांधी की खादी पहनने वाले और उनको लूट, मनमानी करने में ताकत देने वाली वर्दी। आम हिन्दोस्तानी ज्यों का त्यों गुलाम ही रखा गया, फर्क सिर्फ इतना हुआ कि 15 अगस्त 1947 से पहले विदेशी मालिक थे और अब देसी मालिक हैं देश के। यह हिन्दोस्तानियों का कितना बड़ापन है कि गुलाम रहकर भी आजादी का जश्न मनाते हैं कितने महान हैं और कितनी महान है इनकी सोच। लेकिन हर बात की एक हद होती है 200 साल तक ब्रिटिशों की मनमानी गुण्डागर्दी, लूटमार को बर्दाश्त करते रहे और जब बर्दाश्त से बाहर हुआ तो  चन्द दिनों में ही हकाल दिया ब्रिटिशों को। 

Friday, 11 April 2014

कम से कम जम्हूरियत में इतनी आजादी तो है-हमको खुद करना है अपने कातिल का इन्तेखाब


गुलाम "लोक" से रोजी की भीक मांगता मालिक "तंत्र"

15 अगस्त 1947 को गांधी ने कहा था कि अब हमारा लोकतन्त्र बनेगा। मतलब गांधी ने लोगों को बताया था कि लोक के के खून पसीने की कमाई से तन्त्र ऐश करेगा। लोक अब विदेशियों की गुलामी में नहीं रहा अब उसको देसियों का गुलाम बनाया दिया गया है। बस उसी क्षण से भारत को लोक ब्रिटिशों की गुलामी से छूटकर देसियों की गुलामी में आ गया। "लोक" मतलब भारत के वो लोग जो दिन रात मेहनत करके अपनी जीविका चलाते हैं ब्रिटिशों के कब्जे से देश को निकालने के जिए अपना खून दिया चैन दिया यहां तककि उनके परिवार के परिवार भेंट चढ़ा दिये, और "तन्त्र" वो लोग जिन्होंने ब्रिटिशों को आजादी के परवानों के ठिकाने बताकर उनपर गोलियां बरसवाई गिरफ्तार करायाए फांसी पर लटकवाया और अब खुद उन्हीं देश वासियों को लूट लूटकर माल विदेशों में जमा करें, गुलाम गरीब "लोक" की खून पसीने की गाढ़ी कमाई से जिनके परिवार देश विदेश में गुलछररे उड़ायें, ऐसे लोगों की टीम तन्त्र कहलाती है। यानी जहां गुलाम को गुलामी में ही जीने पर मजबूर रखा जाये और ब्रिटिशों के एजेण्टों, देश का माल उड़ाने वालों, अपने आतंकी गैंग से सामूहिक नरसंहार कराने वालों को नियम कानून की तमाम पाबन्दियों से आजाद रखकर मनमानी करने की खुली छूट मिले लोगों के हाथ में देश की बागडोर रखी जाने की पद्धति को ही लोकतन्त्र कहा जाता है। यही है भारत को महान लोकतन्त्र।
ऐसा भी नहीं है कि साल के सभी तीन सौ पैंसठ दिन "लोक" गुलाम ही रखा जाता हो, साल भर में कमो बेश  एक महीने के लिए लोक को इज्जतदार और शक्तियां दी जाती हैं ये शष्क्ति  केवल वोट डालने तक ही सीमित रखी जाती है इसके अलावा लोक को उसकी ओकात पर ही रखा जाता है साथ ही वोट देने की शश्क्ति का प्रयोग भी लाठी दिखाकर कराया जाता है। गुलाम लोक से रोजगार देने की भीख मांगने हर दिन एक न एक तन्त्र आता है लेकिन गुलाम लोक की क्या औकात कि तन्त्र के मंच के करीब तक फटक सके, एक  कदम भी गुलाम ने आगे बढ़ाने की कोशिश की तो तुरन्त सुरक्षा के बहाने उसे उसकी गुलामी का एहसास कराने के लिए लठिया दिये जाने का कानून है महान लोक - तन्त्र का। एक बार फिर गुलाम वोटर मतदान होने तक के लिए काफी इज्जतदार और कीमती माने जाने लगे। गुलाम भी मोहल्ले, गांव बस्ती के दलालों के चुंगल में आसानी से फंस कर "तन्त्र" नामक सांप को दूध पिलाने के लिए कड़ी धूप में लम्बी लम्बी कतारों में खड़े होंगे, वहां भी तन्त्र के जीवनों की बागडोर संभालने वाली 15 अगस्त 1947 को खादी के साथ साथ आजाद की जानी वाली वर्दी की लाठियों का नाश्ता  करने पर मजबूर होंगे। हो भी रहा है गुलामों के साथ ऐसा ही। इस बार बड़ी ही जोर शोर से चुनाव आयोग प्रचार कर रहा है कि वोट जरूर दें यह आपका फर्ज है...। कैसा फर्ज ? यही कि गुलाम जिसको वोट देकर मालामाल बनने का मौका दें उन्ही के इषारों पर कत्ल किये जाये आबरूयें लुटवायें, जेलों में सड़ें, पुलिसिया जुल्म का षिकार बनाये जाये। किसी अफसर के पास किसी काम से जाये तो सरकारी चमचागीरी में मीडीया उन्हें "फरयादी" कहे। दरअसल वोट देना गुलामों का न तो फर्ज है और न ही  षैक। वोट देना गुलामों की मजबूरी है। वोट नहीं देगें तो जो हार गया उसके गुण्डों के हाथों आबरूयें लुटाना पड़ेगी, कत्ल होना पड़ेगा, पिटना पड़ेगा, घर दुकान से बेदखल होना पड़ेगा और जो जीत गया उसके इशारों पर पुलिसिया जुल्म का शिकार बनना तय है, इन हालात में गुलाम वोटर करें तो क्या करें। आखिर गुलाम हैं गुलामी तो करना ही है। गुलाम वोटर सिर्फ इसी पर बेहद खुश  हो जाते है कि कम से कम चुनावों के दौरान तो उन्हें इज्जतदार और इंसान समझा जाता है, कम से कम "तन्त्र" गुलामों से मीठी मीठी बाते तो कर ही लेता है, कम से कम "तन्त्र" के रोजगार दाता गुलाम वोटरों से "तन्त्र" की जान को खतरा तो नहीं रहता, जब "तन्त्र" गुलामों के दरवाजों पर रोजगार की भीख मांगने पहुंचते हैं तो उस वक्त गुलामों को चोर उचक्कों की श्रेणी में रखकर तलाशि यां तो नहीं ली जाती, कम से कम "तन्त्र" की सभा में पहुंचने के लिए गुलाम वोटरों खासकर महिला गुलामों को हजारों लोगों के सामने अपने शरीर की तला  शी तो नहीं देनी पड़ती। मतदान निबटने के साथ ही गुलामों को उनकी असल ओकात बताने का सिलसिला षुरू हो जाता है गुलामों में मतदान के नतीजे जानने का शौक होता है मतगणना स्थल पहुंचते हैं वहां ‘‘ तन्त्र ’’ की जीवन रक्षक लाठियां गुलामों के स्वागत के लिए तैयार रहती है और कुछ कुछ देर के बाद स्वागत करती भी रहती हैं। गुलाम "लोक"  देश के बेरोजगार मालिक  "तन्त्र" को अपना वोट देकर करोड़ों कमाने वाला रोजगार दे देगें, बस इवीएम का बटन दबने के साथ ही गुलाम लोक अपनी असल औकात पर पहुंचा दिया जायेगा। और यहीं से शुरू हो जाती है तन्त्र के मनमानी करने ओर मालामाल बनने का सफर। चाहे राष्ट्रपति चुनने का मामला हो या गुलाम लोक के खून पसीने की कमाई को भत्ते का नाम देकर उसमें बढ़ौत्तरी करके मालामाल बनने का, मुख्य मार्गों पर सरकारी हफ्ता वसूली को कानूनी शक्ल देने की मनमानी हो या फिर सुरक्षा की बात हो तन्त्र नामक एक शख्स की जानमाल लाखों गुलाम लोक की जानमाल से ज्यादा कीमती माने जाने का कानून बनाने की या फिर कानून की मदद लेने की। सब कुछ तन्त्र की सहूलत, और फायदे के हिसाब से किया जायेगा। गुजरे 65 साल से तन्त्र ने कभी भी देसियों के गुलाम लोक के लिए सोचा तक नहीं, जब किया जो किया तन्त्र ने अपने और अपने परिवार के फायदे का काम किया। जिस तन्त्र को गुलाम लोक वोट की भीख देकर मालामाल बनने का मौका देते हैं वही तन्त्र उसी गुलाम लोक का कत्लेआम कराने से नही झिझकता। किसी ने शायद ठीक ही कहा है कि-
कमसे कम जम्हूरियत में इतनी आजादी तो है-हमको खुद करना है अपने कातिल का इन्तेखाब।

बस यही है लोकतन्त्र। 


Monday, 27 January 2014

गुलाम गणों में "गणतन्त्र" की धूम


हिन्दोस्तानी अवाम 1950 से लगातार 26 जनवरी का जश्न मनाते आ रहे हैं, खूब जमकर खुशियां मनाते है हैं नाचते गाते हैं मानों ईद या दीवाली हो। 74 साल के लम्बे अर्से में आजतक शायद ही किसी ने यह सोचा हो कि किस बात की खुशियां मना रहे है। क्या है 26 जनवरी की हकीकत, यह जानने की किसी ने कोशिश नहीं की। बस सियारी हू हू हू हू कर रहे हैं। क्या है 26 जनवरी को जश्न का मतलब, गणतन्त्र या खादी और वर्दीतन्त्र। गणतन्त्र के मायने कया हैं। कया 26 जनवरी वास्तविक रूप में गणतन्त्र दिवस है? है तो केसे है? कोई बता सकता है कि 26 जनवरी को जिस संविधान को लागू किया गया था उसमें गण की क्या औकात है या गण के लिए क्या है? जाहिर है कि शायद ही कोई बता सके कि 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान में गण के लिए कुछ है। कुछ है ही नहीं तो कोई बता भी क्या सकेगा। इसलिए हम दावे के साथ कह सकते हैं कि 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस नहीं बल्कि वर्दीतन्त्र और खादीतन्त्र दिवस है।
गण का मतलब हर खास और आम यानी अवाम। और गणतन्त्र का मतलब है अवाम का अपनी व्यवस्था। ऐसी व्यवस्था जिसमें अवाम की कोई इज्जत हो, अवाम को आजादी से जीने का हक हो, जनता को अपना दुख दर्द कहने का हक हो, जनता को बिना किसी धर्म जाति रंग क्षेत्र के भेदभाव किये न्याय मिले आदि आदि। लेकिन क्या गण 26 जनवरी को जिस गणतन्त्र के नाम पर उछल कूद रहे हैं उसमें गण को यह सब चीजें दीं हैं? नाम को भी नहीं, क्योंकि यह गणतन्त्र है ही नहीं। यह तो खादीतन्त्र और वर्दीतन्त्र है। दरअसल 15 अगस्त 1947 की रात जब ब्रिटिश भारत छोड़कर गये तो गांधी ने ऐलान किया कि 'आज से  "हम"  आजाद हैं।' गांधी के इस हम शब्द को गुलाम जनता ने समझा कि वे (गुलाम जनता) आजाद हो गये। जबकि ऐसा नहीं था गांधी के "हम"  शब्द का अर्थ था गांधी की खादी पहनने वाले और खादी के जीवन को चलाने वाली वर्दी। यानी खादी और वर्दी आजाद हुई थी। गण तो बेवजह ही कूदने लगे और आजतक कूद रहे हैं। कम से कम गांधी जी के "हम"  का अर्थ समझ लेते तब ही कूदते। खैर, मेरे देशवासी सदियों से सीधे साधे रहे है और इनकी किस्मत में गुलामी ही है लगभग ढाई सरौ साल तक ब्रिटिशों ने गुलाम बनाकर रखा। जैसे तैसे ब्रिटिशों से छूटे तो कुछ ही लम्हों में देसियों ने गुलाम बना लिया, रहे गुलाम ही। कहा जाता है कि 26 जनवरी 1950 को हमारे देश का संविधान लागू किया गया था उसी का जश्न मनाते हैं। अच्छी बात है संविधान लागू होने का जश्न मनाना भी चाहिये। लेकिन सवाल यह है कि किसको मनाना चाहिये जश्न? क्या उन गुलाम गणों को जिनको इस संविधान में जरा सी भी इज्जत या हक नहीं दिया गया, जो ज्यों के त्यों गुलाम ही बनाये रखे गये हैं? या उनको जिनको हर तरह की आजादी दी गयी है देश के मालिक की हैसियतें दीं गयीं हैं, जिन्हें खुलेआम हर तरह की हरकतें करने की छूट दी गयी है? जिनके आतंक को सम्मान पुरूस्कार दिये जाते हों या जिनके हाथों होने वाले सरेआम कत्लों को मुठभेढ़ का नाम दिया जाता हो। हमारा मानना है कि गुलाम गणों को कतई भी कूदना फांदना नहीं चाहिये। 15 अगस्त और 26 जनवरी की खुशियां सिर्फ खादी और वर्दीधारियों को ही मनाना चाहिये क्योंकि 26 जनवरी 1950 को जिस संविधान को लागू किया गया वह सिर्फ खादी और वर्दीधारियों को ही आजादी, मनमानी करने का अधिकार देता है। गुलाम जनता (गण) पर तो कानून ब्रिटिश शासन का ही है। देखिये खददरधारियों को संविधान से मिली आजादी के कुछ जीते जागते सबूत। केन्द्र की मालिक खादी ने मनमाना फैसला करते हुए पासपोर्ट बनाने का काम निजि कम्पनी को दे दिया, यह कम्पनी गुलाम को जमकर लूटने के साथ साथ खुली गुण्डई भी कर रही है। कम्पनी भी लूटमार करने पर मजबूर है क्योंकि उसकी कमाई का आधा माल तो खददरधारियों को जा रहा है।
केन्द्र व राज्यों की मालिक खादी ने सड़को को बनाने और ठीक करके गुलामों से हफ्ता वसूली का ठेका निजि कम्पनियों को दे दिया। ये कम्पनियां पूरी तरह से गैर कानूनी उगाही कर रही है एक तरफ तो टौलटैक्स की बसूली ही पूरी तरह से गैरकानूनी है ही साथ ही गरीब गुलामों के मुंह से निवाला भी छीनने की कवायद है। अभी हाल ही में रेल मंत्री ने मनमाना किराया बढ़ाकर गुलामों को अच्छी तरह लूटने की कवायद को अनजाम दे दिया और तो और इस कवायद में खादीधारी (रेलमंत्री) रेलमंत्री ने गुलाम गणों की खाल तक खींचने का फार्मूला अपनाते हुए पहले से खरीदे गये टिकटों पर भी हफ्ता वसूली करने का काम शुरू करा दिया। 26 जनवरी 1950 को लागू किये जाने वाले ब्रिटिश संविधान में आजाद हुई खादी और गुलाम गणों के बीच का फर्क का सबूत यह भी है कि हवाई जहाज के किराये में भारी कमी के साथ ही इन्टरनेट प्रयोग भी सस्ता करने की कवायद की जा रही है तो गरीब गुलाम गणों के मुंह का निवाला भी छीनने के लिए महीने में दो तीन बार डीजल के दाम बढ़ा दिये जाते हैं क्योंकि 15 अगस्त 1947 को गांधी जी द्वारा बोले गये शब्द  "हम"  यानी खददरधारी अच्छी तरह जानते हैं कि  डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर गरीब गुलाम गणों के निवालों पर पड़ता है जबकि हवाई यात्रा या इन्टरनेट का प्रयोग गरीब गुलाम गण नही कर सकते। देश के किसी भी शहर में जाकर देखिये छावनी क्षेत्र में प्रवेश पर गुलाम गणों से प्रवेश  "कर" तो लिया ही जाता है साथ ही अब तो हाईवे पर भी सेना उगाही की जाती है। वर्दीधारी किसी को सरेआम कत्ल करते हैं
तो उसे मुठभेढ़ का नाम देकर कातिलों को ईनाम दिये जाते हैं अगर विरोध की आवाज उठे तो जांच के ड्रामें में मामला उलझाकर कातिलों का बचाव कर लिया जाता है। हजारों ऐसे मामले हैं। साल भर पहले ही कश्मीर में सेना ने एक मन्दबुद्धी गरीब गुलाम नौजवान को कत्ल कर दिया ड्रामा तो किया कि आतंकी था लेकिन चन्द घण्टों में ही सच्चाई सामने आ गयी लेकिन आजतक कातिलों के खिलाफ मुकदमा नही लिखा गया, कश्मीर में पहले भी सेना द्वारा घरों में घुसकर कश्मीरी बालाओं से बलात्कार की करतूतों के खिलाफ आवाज उठाने वाले को आतंकी घोषित करके मौत के घाट उतार दिया गया।
बरेली के पूर्व कोतवाल ने हिरासत में एक लड़के को मार दिया विरोध के बाद जांच का नाटक शुरू हुआ वह भी ठण्डा पड़ गया। यही अगर कोई गुलाम गण करता तो अब तक अदालतें उसे जमानत तक न देती। बरेली के थाना सीबी गंज के पूर्व थानाध्यक्ष वीएस सिरोही फिरौती वसूलता था इस मामले की शिकायतों सबूतों के बावजूद आजतक उसके खिलाफ कार्यवाही की हिम्मत किसी की नही हुई क्योंकि वह वर्दीधारी है उसे 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये ब्रिटिश संविधान ने इन सब कामों की आजादी दी है जो गुलाम गणों के लिए दण्डनीय अपराध माने गये हैं। रेलों में फौजी गुलामों गणों को नीचे उतारकर पूरी पूरी बोगियां खाली कराकर फिर 50-100 रूपये की दर से पूरी पूरी सीटें देकर कुछेक यात्रियों को सोते हुए सफर करने के लिए देने के साथ ही भी खुद आराम से सोते हुए सफर करते हैं, रेल में खददरधारियों के साथ साथ उनके कई कई चमचों तक को फ्री तफरी करने के अधिकार दिये जाते है जबकि गुलाम गणों को प्लेटफार्म पर जाने तक के लिए गुण्डा टैक्स अदा करना पड़ता है। स्टेशनों, विधानसभा, लोकसभा, सचिवालय समेत किसी भी जगह में प्रवेश करने पर गुलाम गणों को चोर उचक्का मानकर तलाशियां ली जाती हैं प्रवेश के लिए गुलामों को पास बनवाना पड़ता है वह इधर से ऊधर धक्के दुत्कारे सहने के बाद जबकि खददरधारियों और वर्दीधारियों को किसी पास की आवश्यक्ता नही होती, कहीं कफर्यु लग जाये तो गुलाम गणों को धर से बाहर निकलने पर मालिकों (वर्दी) के हाथों पिटाई और अपमानित होना पड़ता है जबकि खददरधारियों और वर्दीधारियों को खुलेआम घूमने, अपने सगे सम्बंधियों को इधर ऊधर लाने ले जाने की छूट रहती है खादी ओर वर्दी को छूट होने के साथ साथ उनके साथ चल रहे सगे सम्बंधियों मित्रों चमचों तक को पास की जरूरत नहीं होती। वर्दी जब चाहे जिससे चाहे जितनी चाहे गुलाम गणों से बेगार कराले पूरी छूट है जैसे लगभग एक साल पहले बरेली में तैनात एक पुलिस अधिकारी का कोई रिश्तेदार मर गया उसकी अरथी के साथ पुलिस अधिकारी के दूसरे रिश्तेदारों को शमशान भूमि तक जाना था, किसी पुलिस अफसर के रिश्तेदार  पैदल अरथी के साथ जावें यह वर्दी के लिए शर्म की बात है बस इसी सोच और परम्परा के चलते कोतवाली के कई सिपाही ओर दरोगा दौड़ गये चैराहा अय्यूब खां टैक्सी स्टैण्ड पर और वहां रोजी रोटी की तलाश में खड़ी दो कारों को आदेश दिया कि साहब के रिश्तेदारों को लेकर जाओ, टैक्सी वाले बेचारे गुलाम गण मजबूर थे देश के मालिकों की बेगार करने को, यहां तककि डीजल के पैसे तक नहीं दिये गये और रात ग्यारह बजे छोड़ा गया, क्योंकि 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान ने वर्दी को गुलाम गणों से बेगार कराने का अधिकार दिया है। 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान में खादी और वर्दी को दी गयी आजादी और गण को ज्यों का त्यों गुलाम बनाकर रखने का एक छोटा सा सबूत और बतादें।
सभी जानते है कि देश भर में अकसर दुपहिया वाहनों की चैकिंग के नाम पर उगाही करने का प्रावधान है इन चैकिंगों के दौरान गुलाम गणों से बीमा, डीएल, वाहन के कागज और हैल्मेट के नाम पर सरकारी व गैरसरकारी उगाहियां की जाती है लेकिन आजतक कभी किसी वर्दीधरी को चैक नहीं किया गया जबकि हम दावे के साथ कह सकते है कि 65 फीसद वर्दी वाले वे वाहन चलाते हैं जो लावारिस मिला हुई है चोरी में बरामद हुई होती हैं। लगभग एक साल पहले बरेली के थाना किला की चैकी किला पर उगाही की जा रही थी इसी बीच थाना सीबी गंज का एक युवक ऊधर से गुजरा वर्दी वालों ने रोक लिया उसके पेपर्स देखे और सब कुछ सही होने पर उसके पेपर उसे वापिस दे दिये साथ ही उसका चालान भी भर दिया उगाही की ताबड़तोड़ की यह हालत थी कि चालान पत्र पर गाड़ी की आरसी जमा करने का उल्लेख किया जबकि उसकी आरसी, डीएल, बीमा आदि उसको वापिस भी दे दिया। गुजरे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान चुनाव आयोग ने मतदाताओं की खरीद फरोख्त को रोकने के लिए ज्यादा रकम लेकर चलने पर रोक लगा दी इसके तहत चैपहिया वाहनों की तलाशियां कराई गयी इस तलाशी अभियान में भी सिर्फ गुलाम गणों की ही तलाशियां ली गयी। चुनाव आयोग ने खददरधारियों पर रोक लगाने की कोशिश की लेकिन खददरधारियों ने उसका तोड़ तलाश लिया। खददरधारियों ने पैसा लाने ले जाने के लिए अपने वाहनों का प्रयोग नही किया बल्कि  "पुलिस, यूपीपी, उ0प्र0पुलिस, पुलिस चिन्ह"  बने वाहनों का इस्तेमाल किया या वर्दीधारी को साथ बैठाकर रकम इधर से ऊधर पहुंचाई, क्योकि खददरधारी जानते है कि वर्दी और वर्दी के वाहन चैक करने की हिम्मत तो किसी में है ही नहीं। चुनाव आयोग के अरमां आसुंओं में बह गये।
इस तरह के लाखों सबूत मौजूद है यह साबित करने के लिए कि 15 अगस्त 1947 को  "गण" आजाद नहीं हुए बल्कि सिर्फ मालिकों के चेहरे बदले ओर 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान में  "गण" के लिए कुछ नहीं जो कुछ अधिकार ओर आजादी दी गयी है वह सिर्फ वर्दी ओर खादी को दी गयी है। इसलिए हमारा मानना है कि  "गण्तन्त्र"  नहीं बल्कि खादीतन्त्र और वर्दीतन्त्र है।