Monday 15 June 2015

अस्पतालों की करतूतों से हिंसक बनते हैं लोग

गुजरे दिनों व्हाट्सअप पर बरेली के एक नामी सर्जन का लेख पढ़ा जोकि डाक्टरों से मारपीट और अस्पतालों में तोड़फोड़ पर आधारित था। बहुत ही अच्छे विचार रखे डाक्टर साहब ने, उनको पढ़कर साफ पता चलता है कि आपने सिर्फ अपने पेशे वालों का एक तरफा बचाव किया, आपने यह नहीं बताया कि इलाज कराने आने वाला कोई व्यक्ति या उसके परिजन क्यों करते है मारपीट तोड़फोड़, क्या सभी पागल है या सभी गुण्डे होते हैं। अजीब बात है अपनी कमी की तरफ नही देख रहे डाक्टर। डाक्टर उन लोगों के खिलाफ लामबन्द होकर कार्यवाही की बात कर रहे है जिनके पैसे से पल रहे हैं। अपनी करतूतों को छिपाने की कोशिश में डाक्टरों ने गुजरी 8 मई को हड़ताल करके लोगों को परेशान किया। डाक्टरों की मांग है कि डाक्टरों अस्पतालों पर तोड़फोड़ करने वालों को सजायें दी जायें डाक्टरों अस्पतालों को सुरक्षा दी जाये। मतलब  "जबर मारे ओर रोने भी न दे" वाली कहावत को सार्थक रूप दिया जाना चाहिये यानी डाक्टर जितनी चाहे मनमानी करें लेकिन भुक्तभोगी चुपचाप हाथ बांधे खड़ा रहे। आईये अब आते है असल मुददे पर, सवाल यह है कि किसी डाक्टर की पिटाई या अस्पताल में तोड़फोड़ की नौबत क्यों आती है? अगर यह सवाल डाक्टरों से पूछा जाये तो उनका जवाब होगा कि पता नही लोग खुद ही करने लगते है। चलिये हम कुछ आप बीती और कुछ आंखों देखी वारदातें बताते हैं फिर हर उस इंसान से पूछेगें कि क्या डाक्टर के साथ मारपीट या तोड़फोड़ गलत हुई ? 
सन् 89 का वाक्या है मेरी सगी बहन के एक वर्षीय बेटे को दिमागी बुखार हुआ उस समय उसके पिता बाहर गये हुए थे मेरी बहिन बच्चे को लेकर तुरन्त जिला अस्पताल पहुंची डाक्टर ने नम्बर आने पर ही देखने का कह दिया और जब उसका नम्बर आया जबतक डाक्टर के घर उसके कुछ मेहमान आने की खबर डाक्टर को मिली जिसे सुनकर वह उठकर चल दिया मेरी बहन गिड़गिड़ती रही लेकिन वह जल्लाद नही पसीजा और चला गया, जबतक हम लोग पहुंचे काफी देर हो चुकी थी हम किसी दूसरे डाक्टर के यहां ले जाने लगे लेकिन कुछ मिनटों बाद ही वह फूल सा बच्चा सदा के लिए खामोश हो गया। अब बताइये कि उस डाक्टर रूपी जल्लाद के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिये। 
6 जनवरी 1999 की बात है बरेली के थाना इज्जत नगर की छावनी अशरफ खां मोहल्ले में एक तीन साल का बच्चा छत से सड़क पर गिर गया, मौजूद लोग तुरन्त नजदीकी अस्पताल लेकर पहुंचे यहां डाक्टर ने कहा पहले पैसा जमा करो फिर देखेगें, बच्चे की हालत लगातार गिरती जा रही थी लोग डाक्टर की खुशामदें कर रहे थे कि कुछ ही देर में पैसा आ जायेगा जबतक इलाज शुरू कीजिये जान बचाईये लेकिन वह जालिम नहीं पसीजा, काफी देर देखने के बाद जब मैंने अपनी भाषा का इस्तेमाल किया तब उसने बच्चे को इलाज देना शुरू किया, साथ ही थोड़ी गुण्डा गर्दी भी दिखाने की कोशिश करता रहा गुण्डागर्दी दिखाने की वजह यह थी कि वह पूर्व व वतमान भाजपाई सांसद संतोष गगंवार का रिश्तेदार कहलाता है।
1 मई 1997 को मेरे पिता को ब्रेन हैमरेज हुआ शहर के नामी न्यूरो फिजीशियन को दिखाया गया डाक्टर ने तुरन्त भर्ती करने को कहा उस समय यह डाक्टर एक पुराने और मशहूर अस्पताल में बैठते थे हमने आनन फानन में भर्ती कर दिया, अस्पताल के स्टाफ ने मोटी रकम जमा कराई दवाईयों की लम्बी चैड़ी लिस्ट थमाकर तुरन्त लाने को कहा परिजनों ने तत्काल दवा लाकर देदी इसके बाद तीन घण्टे तक ना डाक्टर ने आकर देखा और न ही दवा देना शुरू की गयी हमने बार बार स्टाफ से कहा कि दवा शुरू करो तो स्टाफ ने कहा कि डाक्टर साहब के आने के बाद शुरू की जायेगी और डाक्टर तीन घण्टे तक नही आया, हालत लगातार गिरती गयी, डाक्टर को फोन पर बात की तो वह बोला कि अभी कुछ गेस्ट आये हुए है कुछ देर में आऊंगा, मतलब यह कि उसके महमान किसी की जान से ज्यादा अहमियत वाले थे। आखिरकार पांच घण्टे गुजर गये और वह नही आया मजबूर होकर हम पिता को घर ले आये और कुछ घण्टों बाद वे हमें छोड़ गये। अब बताईये उस डाक्टर और अस्पताल स्टाफ को कौन सा राष्ट्रीय सम्मान दिया जाना चाहिये था।
13 जून 1999 को थाना इज्जत नगर के क्षेत्र में सड़क दुर्घटना में एक बाईक सवार बुरी तरह घायल हुआ राहगीर उसे करीब के ही एक निजि अस्पताल ले गये जहां पर पहले तो डाक्टर ने इलाज शुरू करने से पहले पुलिस कार्यवाही रट लगाई, इसी बीच पुलिस पहुंच गयी। इसपर डाक्टर ने पैसा जमा कराने की बात की राहगीरों ने बताया कि अभी इसका कोई परिजन नहीं है खबर दी जा चुकी है आते होंगे तब तक ईलाज शुरू करिये लेकिन वह नही माना और इतना समय बर्बाद कर दिया कि घायल ने दम तोड़ दिया। आईएमए  "होली प्रोफेशन के होली लोग" बताये कि इस लालची डाक्टर को कौनसा सम्मान दिया जाना चाहिये।
सन 2001 में मुरादाबाद में रिक्शा चलाकर अपना व अपने बूढ़े पिता की जीविका चलाने वाले युवक की दिल्ली रोड पर एक एक्सीडेंट में मौके पर ही मौत हो गयी इसकी खबर सुनकर उसके लगभग 70-75 वर्षीय पिता को हार्टअटैक आया जिन्हें मोहल्ले के ही एक झोलाछाप को दिखाया हालत को देखकर उसने तुरन्त किसी बड़े अस्पताल ले जाने की सलाह देते हुए अपनी जेब से 200 रूपये भी दिये, उनके पास पड़ोसियों ने कुछ पैसा चन्दा करके मुरादाबाद के एक नामी अस्पताल ले गये जहां डाक्टर ने देखकर भर्ती करने को कहा और पांच हजार रूपये जमा करने को कहा इसपर लोगों ने उसे वास्विकता बताते हुए और पैसा चन्दा करके देने की बात कही लेकिन उस डाक्टर ने एक न सुनी, मौके पर ही एक दरोगा जोकि स्वंय को दिखाने अस्पताल आये हुए थे ने पांच सौ रूपये दिये, लेकिन डाक्टर नहीं माना और कुछ देर बाद अस्पताल की लाबी में ही बुजुर्ग ने दम तोड़ दिया। क्या आईएमए बतायेगा कि उस जल्लाद के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिये।
बरेली के बहेड़ी तहसील के एक गांव की एक प्रसूता महिला को प्रसव पीड़ा के चलते बहेड़ी आया गया, सीएचसी पर महिला डाक्टर के न मिलने पर बहेड़ी में ही एक निजि डाक्टर को दिखाया जिसने तुरन्त आप्रेशन की बात कहकर 10 हजार रूपये जमा करने को कहा, गरीब खेतीहर मजदूर था सरकारी अस्पताल के भरोसे घर से 3 हजार रूपये लेकर चला था। गिड़गिड़ाने लगा और दो दिन में इन्तेजाम करके देने की बात कहने लगा, लेकिन डाक्टर नहीं पसीजी मजबूर होकर वह पत्नी को जिला अस्पताल ले जाने लगा लेकिन रास्ते में ही प्रसूता ने दम तोड़ दिया, उसके साथ उसके गर्भ में सही सलामत मोजूद बच्चा भी खत्म हो गया। 
2010 के अप्रैल माह की 11 तारीख को मेरी सगी बहन की पुत्री अपने पति के साथ बाईक पर बरेली के प्रभा टाकीज के सामने से गुजरे रही थी कि अचानक बेहोश होकर बाईक से गिर गयी, उसके पति व राहगीरों ने आनन फानन में सामने मौजूद अस्पताल पहुंचाया, यहां अस्पताल ने भर्ती करते समय तो पैसे की अड़ नहीं की, लेकिन न्यूरो सर्जन ने तत्काल आप्रेशन को कहा, हमारा परिवार राजी हो गया, आप्रेशन हुआ और आठ रोज तक वह बेहोश पड़ी रही, लूट की हालत यह थी कि हर रोज रूई के दो बड़े बण्डल, छः इंच की बीस बैण्डीज के अलावा दो से तीन हजार रूपये रोज की दवाई मगांई जाती रही, क्योंकि सभी जानते है कि किसी भी अस्पताल में मेडीकल चलाने के लिए सेल पर 18 से बीस फीसद की दर से अस्पताल कमीशन लेता है अतः धरम के दोगुने रेट पर मिल रही थी दवाईयां, हम भी अच्छी तरह जानते थे कि आप्रेशन के मरीज की रोज ड्रेसिंग नहीं होती मगर मजबूरी के चलते लाकर देते रहे। आठवीं रात लगभग डेढ़ बजे उसकी हालत अचानक खराब हुई आईसीयू में काम कर रहे आठवीं से दसवीं तक पढ़े हुए लड़को ने तुरन्त डाक्टर को फोन पर सूचना दी डाक्टर वार्ड के ऊपर ही छत पर रह रहा था, डाक्टर ऊतर कर नहीं आया हम लोगों ने भी कई बार फोन किया लेकिन वह नहीं आया और कुछ देर बाद घायल ने दम तोड़ दिया।
इसके सिर्फ दस महीने बाद ही मृतका की मां को ब्रेन हैमरेज हुआ उनके परिवार वाले घबराये तो किसी दलाल ने उसी जालिम जल्लाद को दिखाने की सलाह दी, इस वक्त  तक उसने अपना अस्पताल खोल लिया था परिवार वहीं ले गये भर्ती करने के समय तो डाक्टर ने काफी टाईम खर्च किया भर्ती कर लिया, बेहिसाब दवाईयां लिख लिखकर दी जाती रही, रात लगभग तीन बजे हालत बिगड़ी आईसीयू में काम कर रहे दसवीं तक पढ़े लड़को ने डाक्टर को सूचना दी, डाक्टर ने आकर देखने की बजाये फोन पर ही निर्देश दे डाले हमारे परिवार वालों ने मोबाइल पर बात की तो डाक्टर ने कहा कि दवा बता दी है हालत ज्यादा बिगड़ी तो फिर फोन किया, डाक्टर ने बात करने की बजाये सीधे फोन बन्द कर दिया, वार्ड में काम कर रहे चमचे इन्दरकाम पर बात नही करा रहे थे, आखिर कार कुछ देर तड़पने के बाद मेरी बहिन ने दम तोड़ दिया। वार्ड के नौकरों ने जल्लाद को बताया इसपर उसने हिसाब करके पैसा जमा करा लेने को कहा, यानी उसको मरीज की जान की नहीं बल्कि पैसे की परवाह थी। कोई बता सकता है कि  "होली प्रोफेशन" के इस होली महारथी को कौन सा सम्मान दिया जाना चाहिये।
बरेली के बिहारपुर सिविल लाईन के एक हरिजन व्यक्ति के 19 दिन आयू के नवजात की हालत खराब हुई उसके परिवार वाले शहर के नामी बच्चा रोग विशेषज्ञ को दिखाने ले गये डाक्टर ने बच्चे को तत्काल मशीन में रखने की सलाह दी, पहला बच्चा होने की वजह से पूरा परिवार बहुत परेशान था, डाक्टर की सलाह मानली और बच्चे को मशीन में रखवा दिया। सारा देश जानता है कि अस्पताल वाले अपनी हठधर्मी के चलते मा0 सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को ठेंगा दिखाते हुए मशीन में रखे हुए बच्चे के परिवार वालों को अन्दर फटकने नहीं देते। बच्चे ने कब दम तोड़ दिया किसी को पता ही नही चला, चैथे दिन मैं भी अस्पताल पहुंचा कुछ देर तक वार्ड के बाहर से ही बच्चे को देखता रहा, शक होने पर वार्ड में जाने लगा तो वहां मौजूद स्टाफ ने अन्दर आने से रोकना चाहा मैंने उन्हें समझाया कि कुछ सैकेण्ड में ही बाहर आ जाऊंगा लेकिन वे नही माने, मजबूर होकर मैने अपनी भाषा का इस्तेमाल किया और अन्दर गया जाकर देखा तो बच्चा पता नही कब को मर चुका था उसका शरीर रंग बदल चुका था। मैंने डाक्टर से बात की तो उसने मान लिया कि बच्चा मर चुका है लेकिन उसकी नीचता की हद यह थी कि उसने पैसा जमा करने की बात कही इसपर मैंने उसे आने वाले तूफान से आगाह किया तब कहीं जाकर उसने बच्चे के शव का परिजनों को दिया। कई रोज तक मरे हुए बच्चे को मशीन में रखकर पैसा ऐंठने वाले इस महान आदमी को क्या ईनाम दिया जाना चाहिये?
बरेली के ही एक अस्पताल में जगह जगह लिखा हुआ है कि  "इस अस्पताल में बाहर के मेडीकलों से लाई गयी दवाईयां इस्तेमाल नहीं की जाती" मतलब अस्पताल के ही मेडीकल से ही खरीदना पड़ती है दवाईयां, जहां मनचाहे दाम वसूलना मेडीकल स्टोर की मजबूरी है क्योंकि बिक्री पर 18 से 20 फीसदी कमीशन अस्पताल को दिया जाता है, और सिर्फ इसी कमीशन की वसूली के लिए रोगी को अस्पताल के मेडीकल से ही दवाईयां खरीदने पर मजबूर किया जाता है।
शहर के ही एक मशहूर अस्पताल के आईसीयू के बाहर नोटिस लगा है कि  "डिस्चार्ज की फाइल डिस्चार्ज होने के 6 घण्टे बाद तैयार की जाती है" साधारण मामलों में किसी भी निजि अस्पताल में मरीज को दोपहर एक बजे के बाद ही डिस्चार्ज किया जाता है। कल्पना कीजिये कि अगर कोई रोगी किसी दूरदराज गांव का है और उसे एक बजे डिस्चार्ज करके उसकी फाईल 6 घण्टे बाद यानी लगभग 7 बजे दी गयी तो वह किस तरह पहुंचेगा अपने घर, लेकिन उसकी परेशानी से अस्पताल को कोई लेना देना नही होता।
इसी तरह के हजारों मामले रोज सामने आते है लेकिन चूंकि देश का कानून और वर्दी पैसे वालों की गुलाम है जब कभी ऐसे मामले में भुक्तभोगी कानून के पास मदद के लिए जाता है तो कानून अपने अन्नदाता डाक्टर को ही बचाता नजर आता है कई मामलों में उपभोक्ता फोरम में भी लोग गये लेकिन यहां तो पैसे वालों की ही बल्ले बल्ले का रिवाज है।
हम डाक्टरों के साथ मारपीट करने या तोड़फोड़ करने को सही नही ठहरा रहे,  लेकिन ऐसा करने वालों को गलत भी नहीं ठहरा सकते क्योंकि साफ सी बात है कि कोई भी व्यक्ति बेवजह ही हिंसक नहीं बनता, उसे मजबूर किया जाता है हिंसक बनने पर, और मजबूर करते है डाक्टर और अस्पताल। एक तरफ जिस व्यक्ति का कोई परिजन मौत जिन्दगी के बीच झूला झूल रहा हो और जिस डाक्टर पर वह भरोसा करके आया हो वह उसकी मजबूरी का नाजायज फायदा उठाये तो ऐसी स्थिति में उसका हिंसक बन जाना स्वभाविक है।
हम यह भी नही कह रहे कि सभी डाक्टर मरीजों की मजबूरी का फायदा उठाते  हैं या गुण्डागर्दी करते है, बल्कि डा0 हिमांशु अग्रवाल और कमल राठौर जैसे डाक्टर भी इसी समाज और पेशे में हैं जो अपने महान व्यक्तित्व की वजह से ही लोगों के मनों पर राज करते है लोग मन ही मन उनकी पूजा करते हैं।
आज तमाम डाक्टर यानी पूरा आईएमए एक जुट होकर अपने ही जुल्म के सताये हुए लोगों को ही गलत बताकर कानून से सुरक्षा मांग रहा है। उसी कानून से सुरक्षा मांग रहे है डाक्टर जिस कानून को नोटों के बल पर अपनी जूती में रखते है। आईये किन किन मामलों में कानून डाक्टरों की गुलामी करता है।
1 कानूनन किसी भी अस्पताल के पंजिकरण के लिए आवेदन के साथ अस्पताल में काम करने वाले सभी डाक्टरों के योग्यता प्रमाण पत्र, पैरा मेडीकल स्टाफ के डिप्लोमों की कापियां भी प्रेषित की जानी चाहिये, क्या आजतक किसी ने की, ना ही किसी ने प्रेषित की और ना ही पंजिकरण करने वाले अधिकारी ने कभी किसी से मांगी, हां अगर कुछ मांगा जाता है तो वह है नोटों की गड्डी। शायद ही कोई अस्पताल हो जिसमें कम्पाउण्डर व नर्से दसवीं से ज्यादा पढ़े हों या प्रशिक्षित हों। यह सच्चाई देश भी के स्वास्थ विभागों के साथ साथ सभी प्रशासनिक अफसरान को मालूम है लेकिन सब अपनी अपनी उगाहियों के लिए गुलाम भारतीयों की जान को खतरें में देखकर गदगद होते रहते है।
2 कानून कहता है कि अस्पताल आबादियों के बीच नहीं बनाया जा सकता, और अस्पतालों के आप्रेशन थियेटर व नरसरी किसी भी हालत में बेसमेन्ट में नहीं बनाये जा सकते, लेकिन भारत में खददरधारियों और पूंजी पतियों का गुलाम कानून सिर्फ किताबों में ही दम तोड़ रहा है इसका वास्तविक रूप है ही नहीं। जितने भी अस्पताल है सब आबादियों के बीच ही हैं। विकास प्राधिकरणों को केवल सुविधा शुल्क की दरकार रहती है, आंखों पर नोटों की पटिटयां बांधकर नक्शें पास किये जा रहा हैं। आपको याद होगा ही लगभग दस साल पहले की बात है बरेली विकास प्राधिकरण ने आबादी के बीचो बीच बनाये गये अस्पताल का नक्शा पास करने से मना कर दिया लेकिन चूंकी कानून को जूटी में रखने वाले खददरधारी (तत्कालीन मुख्यमंत्री) को इस अस्पताल का उद्घाटन करना था तो मुख्यमंत्री ने नियम का मुंह काला करके उदघाटन किया और इशारा करके नक्शा भी उसी समय पास करा दिया, नतीजा आज उस अस्पताल की वजह से पूरी सड़क जाम रहती है कालोनी वासी परेशान हैं लेकिन मामला खददरधारी का है इसलिए सह रहे हैं।
3 लगभग आठ साल पहले मा0 सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि अस्पताल के आप्रेशन थियेटरों में कैमरे लगाकर उनके टीवी बाहर लगाये जाये जिससे कि रोगी के परिवार वाले यह देख सके कि उनके मरीज के साथ अन्दर हो क्या रहा है। क्या पूरे देश में किसी भी अस्पताल ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का पालन किया? क्या प्रशासनों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन कराने की कोशिश की ? साफ है कि आजतक नहीं। कहीं राजनैतिक दबाव में जिम्मेदार अफसरान आंख बन्द रखने पर मजबूर है तो कहीं नोटों के दबाव में, कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय को ठेंगा ही दिखाया जा रहा है।
डाक्टरों को मारपीट करने तोड़फोड़ करने वालों के खिलाफ कार्यवाहियों की मांग करते हुए लामबन्द होने की बजाये अपनी सोच बदलें, अपने अन्दर के लालच को खत्म करें, किसी जमाने में मसीहा कहे जाने पेशे को एक बार फिर जल्लाद का चोला उतार कर मसीहा बनायें, ईलाज कराने आने वाले मरीजों की जेबों की जगह उनकी जानों और सेहतों को अहमियत देना शुरू करें, फिर देखें कि लोग पीटने तोड़फोड़ करने की जगह पैर छूने लगेगे। दूसरी बात मारपीट या तोड़फोड़ करने वालों के खिलाफ कानून को जगाने की बजाये खुद कानून का पालन करें।

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