विधान सभा में सरकारी प्रवक्ताओं दलालों की कुटाई पर मातम - इमरान नियाज़ी
अपनी बात कहने से पहले कहना यह है कि इसको पढ़कर ना तिल्मिलाईये ना कूदिये बल्कि शान्त दिमाग़ से समझिये।
दुनिया के इतिहास में पहली बार गुज़रे दिनों उ0प्र0 विधान सभा में कुछ मीडियाई दलालों की कुटाई हुई। इस कुटाई से मीडिया के उस तबक़े में सबसे ज़्यादा मातम बर्पा है जिसको विधान सभा में घुसने तो क्या विधान सभा गेट पर भी जाने नहीं दिया जाता। मातम करने वाले तबके को कुटने वाला तबका कभी पत्रकार या मीडिया कर्मी तक नहीं माना जाता। यानी पाक्षिक/साप्ताहिक अखबार न्यूज़ पोर्टल आदि से जुड़े मीडिया कर्मी। कूटा गया वर्ग खुद को बड़ा पत्रकार समझने की बीमारी से पीड़ित है। दूसरा बड़ा पहलू यह है कि विधान सभी में केवल पालतू और चाटू मीडिया को इन्ट्री देने का प्रावधान है। अब कुछ महा ज्ञानी कहेंगे कि विधानसभा या संसद में केवल मान्यता प्राप्त को ही इन्ट्री होती है। इसके जवाब में यह जानना ज़रूरी है कि मान्यता मिलती किसको है ? जी हां हमारे देश की यह विडम्बना रही है कि मीडिया जगत में सरकार सिर्फ उन्हीं को देती है जो सरकार के पालतू बनकर चम्चा गीरी करते हैं, जो कभी सरकार से सवाल पूछने की गलती नहीं करते, जिन्हें देश की जनता की समस्यायें नहीं दिखती, जिन्हें कभी स्थानीय मुद्दे नहीं दिखते, जो खद्दर धारियों और अफ़सरों के गुणगान करने वाले सरकारी भोपू बनकर रहते हैं। बाक़ी जो सरकार से सवाल पूछे, जो जनता की समस्याओं को उठाये, जो खद्दरधारियों और अफ़सरान को सलाम ना ठोकते हों, जो दलाली ना करते हों, उन्हें कभी मान्यता नहीं दी जाती। हम यह बात सिर्फ़ हवा में नहीं कह रहे बल्कि सैकड़ों सबूत मौजूद हैं। दूसरा पहलू यह कि ये वही पालतू हैं जो उनको फ़र्ज़ी बताते फिरते हैं जो आज ज़ोर शोर से कुटाई का मातम करते दिख रहे हैं। साथ ही जब जब पाक्षिक/साप्ताहिक अखबार या पोर्टल वालों पर सरकारी आतंक होता है तब ये पालतू जमकर मुजरे करते दिखते हैं। लेकिन आज जब पालतुओं पर दाब पड़ी तब वे ही सब मातम करते दिख रहे हैं जिन्हें ना तो सरकार ही सम्मान देती है और ना ही खुद को बड़ा ओर असली समझने वाले पालतू। यहां एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि जिनको वैल्यू नहीं दी जाती वे आज मामत क्यों कर रहे हैं। इसकी सच्चाई इकलौती और बेहद कड़वी है। दरअसल गुज़रे दस एक दशक के दौरान पत्रकारों की बाढ़ आई हुई है। इनमें 99 फ़ीसदी वे महामुनि शामिल हैं जोकि एण्ड्राइड फोन से पत्रकार बनते हैं। लगभग 80 फ़ीसद ने डिग्री कालेज तो बड़ी बात है कभी इन्टर कालेज के अन्दर जाकर नहीं देखा। लेकिन बन गये बड़े ही काबिल और वरिष्ठ पत्रकार। पांच से दस हज़ार रूपये का एक मोबाइल खरीदा और बन गये बड़े पत्रकार और करने लगे दलाली। जिन्हें पत्रकार शब्द का सहीं अर्थ नहीं मालूम होता है लेकिन दिन भर कापी पेस्ट करके तोप चलाते फिरते हैं। अब दूसरा बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि आखिर ये मोबाइल मेडेड स्वंयभू पत्रकार मातम कर क्यों रहे हैं। इसका सीधा और इकलौता जवाब है कि इन बेचारों को मालूम ही नहीं है कि पत्रकार बनकर फिरने और पत्रकार होने में कितना अन्तर है।
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