दिल्ली विधान सभा चुनावों में बीजेपी पर फिरी झाड़ू और गुजरे लोकसभा चुनावों को बारीकी से देखने की जरूरत है। दुनिया भर इसे एक नजर से देखकर ओर आसानी से बीजेपी की शिकस्त मान रही है। शायद किसी की भी नजर गुजरे लोकसभा चुनावों की तरफ नही जा रही हो, आखिर है तो चैंकाने वाली बात कि एक तरफ से झाड़ू ही फेर दी गयी। अगर एक लम्हे के लिए भी गुजरे लोकसभा चुनाव सामने रखकर गौर किया जाये तब बात आसानी से हजम नही हो रही, कि आखिर इतना बड़ा इन्कलाब कैसे आ गया। कया हो गया इवीएम को क्यों नही उगले एक तरफा बीजेपी के वोट, क्यों नहीं नाची इवीएम लोकसभा की तरह बीजेपी के इशारे पर। तआज्जुब की बात है कि केन्द्र में बीजेपी की सरकार होते हुए भी एक मामूली (बीजेपी और कांग्रेस के कथनानुसार) सा इंसान महारथियों पर भारी पड़ गया। कौनसा चमत्कार था या जादू था जो लोकसभा में उम्मीद से कहीं ज्यादा कामयाबी बेजेपी को देता है जबकि उस वक्त बीजेपी पैदल थी और अब जबकि केन्द्र की सत्ता मुटठी में है तो बीजेपी इतनी बुरी तरह हारी, क्या चन्द दिनों में ही बीजेपी को सभी सात सांसद देने वाली दिल्ली ने इस बार विधायकी को ठेंगा दिखा दिया। आखिर क्या बात है कि लोकसभा चुनावों में किसी भी निशान का बटन दबाने से वोट बीजेपी के खाते में पहुंचाने वाली ईवीएम दिल्ली विधानसभा चुनावों में इतनी ईमानदार क्यों बन गयी। क्या दिल्ली की तरह ही दूसरे राज्यों में भी इवीएम इतनी ही ईमानदारी से काम करेगी ? हालात का जकाजा है कि ये सच्चाईयों को समझना जरूरी है। कहां गये 3838850 वोट जिन्होंने दिल्ली से 7 सांसद भाजपा को दिये आज विधायक क्यों नहीं दिये। क्या वास्तव में लोकसभा में इसी गिनती में वोट मिले जिस हिसाब से भाजपा की जीत दिखाई गयी, और अगर हकीकत में ही लोकसभा चुनावों में अपेक्षा से कहीं ज्यादा वोट मिले तो फिर आज इतना बड़ा अन्तर कैसे आ गया वह भी सिर्फ एक साल के अर्से में ही ? ऐसे ही अगिनत सवाल पैदा हो रहे है दिल्ली में भाजपा की प्रचण्ड हार से। आईये तलाशते हैं इन सारे सवालों के जवाब.......। दरअसल लोकसभा चुनावों की ही तरह से दिल्ली चुनावों में बीजेपी के वोट उगलने का सबक ईवीएम को नहीं रटाया गया, यहां ईवीएम अपनी आंखों पर काली पटटी बांधे रही और जो मिला वो बताया ईवीएम ने, जबकि लोकसभा चुनावों में ईवीएम के कान पहले ही मरोड़ दिये गये थे और ईवीएम को मजबूर कर दिया गया था कि मिले कुछ भी लेकिन बताना एक सबक। अब सवाल यह होता है कि जब लोकसभा में ईवीएम को गुलाम बना लिया गया था तो दिल्ली में भी बनाया जा सकता था। जी हां बनाया जा सकता था और इस बार तो सारा का सारा सिस्टम हाथ में है, लेकिन लोकसभा चुनावों के बाद मीडिया, सोशल मीडिया बड़े पैमाने पर ईवीएम की करतूतों की छीछालेदर हुई और लगातार हो ही रही है और इसी कलंक को धोने की कोशिश की गयी है ईवीएम को सीधी राह चलने की आजादी देकर। दरअसल दिल्ली की सरकार या दिल्ली का मुख्यमंत्री सिर्फ नाम का मुख्यमंत्री होता है कदम कदम पर केन्द्र सरकार का मोहताज रहता है किसी भी सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है कानून व्यवस्था, दिल्ली सरकार कानून के मामले में पूरी तरह से केन्द्र की मोहताज होती है, इसी तरह से और भी कई मामले है जिनमें दिल्ली सरकार स्वंय कुछ कर नहीं सकती, कदम कदम पर केन्द्र की मोहताजी भुगतनी पड़ती है। यानी लाचार और बेबस। मतलब सिर्फ नाम का मुख्यमंत्री। बस यही वजह है दिल्ली चुनाव में ईवीएम को आजादी से काम करने दिया गया। दिल्ली चुनाव नतीजों ने कम से कम यह तो साफ कर ही दिया कि गुजरे लोकसभा चुनावों में दिल्ली से सातों संासद भाजपा के निर्वाचित घोषित किया जाना अपने आप में एक बड़ा खेल था। किसी भी सूरत में हजम न होने वाली बात है कि जिन क्षेत्रों से सात सांसद दिये हो उनमें से सिर्फ नौ महीने के अन्दर ही एक भी विधायक भाजपा को नहीं मिल सका और जो हारे वे भी इतने लम्बे फासले से। ये फासले खुद ही बता रहे है कि लोकसभा चुनावों में इवीएम ने नतीजे दिये नहीं थे बल्कि लिये गये थे क्योंकि एक साथ 3838850 वोटरों की पसन्द बदल जाना समझ में आने से परे है। अगर मान भी लिया जाये कि दिल्ली का मतदाता मोदी सरकार से नाखुश है तब भी एक साथ इतना बड़ा इन्कलाब तो आना पूरी तरह से समझ से बाहर है, कुछ फीसद या ज्यादा से ज्यादा पचास फीसद वोटरों में बदलाव आ सकता है लेकिन सौ फीसदी वोटरों की पसन्द सिर्फ नौ महीने में ही बदल जाना मुश्किल नहीं बल्कि नामुम्किन सी बात है। हरेक बिन्दू को बारीकी से समझने के बाद साफ हो जाता है कि कि 2014 में हुए लोकसभा चुनावों के नतीजे इवीएम से दिलवाये गये थे यानी भाजपा को पूर्ण बहुमत मतदाताओं से नही मिला बल्कि सिर्फ ईवीएम से मिला। इस बाबत न्यूज मीडिया और सोशल मीडिया में अच्छी खासी छीछालेदर भी हुई यह और बात है कि ईवीएम से छेड़छाड़, किसी भी बटन को दबाने पर वोट भाजपा के खाते में डालने की ईवीएम की करतूत की तमाम तस्वीरों वीडियो, खबरों को देखने पढ़ने सुनने के बावजूद चुनाव आयोग के कान तले जूं नहीं रेंगी। इस हकीकत को कबूल कर लेने में शायद कोई बुराई नहीं है कि मोजूदा केन्द्र की भाजपा सरकार वोट से नहीं बल्कि ईवीएम को गुलाम बनाकर बनी है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों को निष्पक्षता के साथ बताने की ईवीएम को आजादी देने के पीछे भी लोकसभा चुनाव में ईवीएम की करतूत के मामले को दबाने का प्रयास भी लगता है जिससे कि अब भाजपा लाबी कह सकेगी कि "अगर लोकसभा चुनाव में गड़बड़ की होती तो अब भी कर सकते थे", बस यही कहने के लिए दिल्ली की कुर्सी पर दिल्ली की जनता की पसन्द का व्यक्ति बैठाने की जनता की कोशिश को ज्यों का त्यों रखा गया। खैर वजह कोई भी हो कम से कम भारत पहली बार किसी ईमानदार, शरीफ और सादगी से जीने वाला शासक तो मिला, धन्य है दिल्ली के वोटर।
Saturday 14 February 2015
Monday 9 February 2015
धोबी का कुत्ता, घर का रहा न घाट का
गुजरे दस साल के अर्से में कांग्रेस की हालत को देखकर कहावत "धोबी का कुत्ता घर का रहा न घाट का" याद आ रही है। कांग्रेस को इस हाल पर पहुंचाने की जिम्मेदार खुद कांग्रेस है। कांग्रेस जो जन्म से ही गददारी करती रही। सबसे पहले जवाहर लाल नेहरू ने देश का बटवारा कराया। अगर जवाहर लाल ने महात्मा गांधी की बात मानी होती तो शायद देश के टुकड़े न होते लेकिन जवाहर लाल मुसलमान को मजबूत होता नहीं देखना चाहते थे इसलिए जवाहर लाल ने कांग्रेस कमेटी में मुस्लिम विरोधी प्रस्ताव पास कराकर प्रधान मंत्री की कुर्सी पर कब्जा जमाने का रास्ता साफ कर लिया। जवाहर लाल का मन इतने से भी नहीं भरा तो जवाहरलाल ने निजाम हैदराबाद पर सेना से आक्रमण कराकर हजारों बेगुनाह मुस्लिमों की लाशें बिछवादीं। 1965 में पाकिस्तान से हुए युद्व के दौरान भी देश के मुसलमान को जमकर सताया गया यह अलग बात है कि 1965 में कुर्सी पर जवाहरलाल न होकर लाल बहादुर शास्त्री थे लेकिन थे तो कांग्रेसी ही। इसके बाद इन्दिरा गांधी ने अपनी सरकार के दौरान बम्बई दंगे में मुस्लिमों का कत्लेआम कराया गया। इन्दिरा गांधी ने एक बड़ी ही साजिशी योजना के तहत नसबन्दी का हथियार इस्तेमाल किया यह भी मुस्लिम के खिलाफ एक सोची समझी साजिश ही थी। इस्लाम में नस्बन्दी की मनाही होने के बावजूद इन्दिरा गांधी ने जबरन मुस्लिमों की नसबन्दियां कराई जिससे नाराज हुए मुस्लिम ने 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस को उसकी औकात पर पहुंचा दिया। जनता पार्टी की सरकार लूट खसोट की बन्दर बाट के चलते ढाई साल में ही चल बसी। इन्दिरा गांधी ने मुस्लिमों को अपने घडि़याली आसुओं के झांसे में लिया और एक बार फिर कांग्रेस बरसरे रोजगार हो गयी, लेकिन अपनी दगाबाज फितरत नहीं बदल सकी और मुरादाबाद दंगे में इन्दिरा गांधी और कांग्रेस की ही उ0प्र0 सरकार ने पीएसी के हाथों जमकर मुस्लिमों पर जुल्म कराकर 1977 के चुनावों में हुई हार का बदला लिया। राजीव गांधी ने बैठते ही नया गुल खिलाया और बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाकर उसमें नमाज की जगह पूजा कराना शुरू करदी। हालांकि राजीव गांधी ने इराक पर आतंकी हमले के दौरान आतंकियों के जहाजों को ईंधन देने पर चन्द्र शेखर के कान मरोड़े जिससे एक बार भी मुस्लिम कांग्रेस के झांसे में आ गये और दे दिया कांग्रेस को लूट खसोट का मौका, लेकिन इस बार कांग्रेसी प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव ने मुस्लिमों से गददारी की सारी हदें ही पार करते हुए बाबरी मस्जिद को आतंक के हवाले करने में पूरी साजिश रची, कांग्रेसी प्रधान मंत्री की इस करतूत से एक बार फिर मुस्लिम ने कांग्रेस को सही जगह पर पहुंचा दिया।इस बीच केन्द्र में बीजेपी का कब्जा हो गया और बीजेपी की राज्य व केन्द्र सरकारों ने गुजरात में बेगुनाह मुसलमानों पर आतंकी मला कराकर हजारों बेकसूरों का कत्लेआम कराया क्योंकि इस समय कांग्रेस औकात पर थी तो गुजरात आतंक पर मन ही मन खुश होती रही कोई जश्न नहीं मना सकी और केन्द्र में अटल बिहारी सरकार भी मन ही मन गदगद होती रही लेकिन खुलकर गुजरात आतंक का जश्न नहीं मनाया। गुजरात आतंक से झल्लाये मुस्लिमों को लगा कि कांग्रेस ही बेहतर है और कांग्रेस में नौटंकीबाजों की कमी नहीं रही इस बार सोनिया गांधी ने ड्रामा करके मुस्लिमों को झांसे में ले लिया और बेचारा सीधा शरीफ मुस्लिम वोट फिर फंस गया कांग्रेसी जाल में। सत्ता में आते ही कांग्रेस ने गुजरात आतंक में शहीद बेगुनाहों की लाशों पर अपनी खुशी का इजहार करते हुए गुजरात आतंक के मास्टर माइण्ड को सम्मान व पुरूस्कार दिया, अगर यही जश्न बाजपेई सरकार मनाती तो शायद कुछ हद तक ठीक होता, यही नहीं कांग्रेस सरकार के पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने गोधरा साजिश को बेनकाब करने के लिए नानावटी आयोग गठित करके जांच कराई जांच ने सारा सच सामने लाकर रख दिया जिसपर कानूनी कार्यवाही करने की बजाये सोनिया नामक रिमोट से चलने वाली कांग्रेस की मनमोहन सिंह
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