Tuesday 26 February 2013

फैसले मुद्दई की मर्जी से तो कानून किस लिए ?


         आईबी के मुताबिक आतंकी करार दिये गये अफजल गुरू को भी फांसी देदी गयी। कस्साब और अफजल गुरू को फांसी दिये जाने पर मुहर तो राष्ट्रपति चुनाव से ही लगा दी गयी थी। और यह साफ हो गया था कि इनकी की दया याचिका खारिज होना तय है। अभी कुछ और ऐसे मुस्लिम नाम जेलों में सड़ाये जा रहे है जिनका भी लगभग यही हाल होना है। अच्छा कदम है ऐसे लोगों को फांसी ही दी जाना चाहिये। आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस की केन्द्र सरकार ने काफी दिमाग़ी कसरत के बाद लोगों को फांसी कराने का रास्ता साफ किया। इन कार्यवाहियों से लगभग सभी सहमत नजर आये खासतौर पर हिन्दोस्तान के मुसलमान इन फांसियों से सहमत दिखाई पड़ रहे हैं। सहमत इसलिए हैं क्योंकि मुसलमान देश का सबसे बड़ा वफादार है, और देश के कानून की इज्जत भी करता रहा है कानून तोड़ने वाला कोई भी हो, मुसलमान और इस्लाम उसको सजा दिये जाने की हमेशा ही वकालत करता है। क्योकि इस्लाम में गुनाहगार को उसके गुनाह के हिसाब से सख्त सजा दिये जाने का कानून है, इसलिए कस्साब और अफजल गुरू को उनके गुनाहों की सजा से बुद्धिजीवी मुस्लिमों के अलावा आम  मुसलमान सहमत है भारत में अगर इस्लामी कानून होता और ये दोनों सच्चे गुनाहगार साबित होते तो सजायें बहुत पहले दी जा चुकी होतीं। 
इस्लाम इंसाफ करते वक्त किसी के जाति धर्म ओर कुर्सी को नहीं देखता सिर्फ ओर सिर्फ इंसाफ करता है। लेकिन हमारे देश में गुनाहगारों को सरकार खर्च पर पाला जाने के साथ ही कटघरे में खरे व्यक्ति के धर्म, जाति और कुर्सी को देखकर ही कार्यवाही की जाती है जिसका जीता जागता सबूत है आतंकी असीमानन्द, प्रज्ञा ठाकुर, सुनील जोशी, संदीप डांगे, लोकेश शर्मा, राजेंद्र उर्फ समुंदर, मुकेश वासानी, देवेन्द्र गुप्ता, चंद्रशेखर लेवे, कमल चैहान, रामजी कालसंगरा समेत दर्जनों असल आतंकियों को सरकारी महमान बनाकर पाला जा रहा है आठ दस साल के लम्बा लम्बा अर्सा गुजर जाने के बावजूद आजतक किसी का फैसला नहीं सुनाया गया, साथ ही गुजरात आतंकवाद के आतंकियों के खिलाफ तो आजतक मुकदमे तक नहीं लिखे गये, केस चलाना तो बड़ी चीज़ है उल्टे सम्मान/पुरूस्कार के साथ ही अभयदान भी दिया गया ओर आजतक दिया जा रहा है। दो-दो न्यायमूर्तियों (नानावटी व रंगनाथ मिश्र) की जांच रिपोर्टों को भी सिर्फ गुजरात आतंकियों को बचाये रखने के लिए लागू नहीं किया। यह सारा खेल केन्द्र में बैठी कांग्रेस खेल रही है। आतंकी असीमानन्द ने तो अदालत में अपनी करतूत कबूल भी करली लेकिन फिर भी अदालत ने आजतक फैसला सुनाने की तरफ कदम नहीं बढ़ाया, क्यों ? क्योंकि इन में से एक भी आतंकी मुसलमान नहीं है। जबकि अफजल गुरू को सिर्फ एक साल तीन दिन, और कस्साब को उससे भी कम वक्त में ही मौत की नींद सुला दिया गया। लेकिन अभी तक हुए धमाकों और आतंकी करतूतों के करने वालों को 2002 से लगातार सरकारी माल चटाया जा रहा है आजतक किसी भी अदालत को फैसला सुनाने की न तो जल्दी ही और न ही दिलचस्पी है, शायद यह कहना गलत न होगा कि अदालतें भी देश के असल आतंकियों की प्राकृतिक मौत का इन्तेजार कर रही हैं क्योंकि जो आतंकी मरता जायेगा उसका केस वहीं खत्म हो जायेगा इससे सजा की बात दबकर रह जायेगी। वैसे जांच एजेंन्सियों ने तो इन असल आतंकियों की सारी करतूतें मुस्लिमों के सिर थोप ही दीं थी वो तो भला हो शहीद हेमन्त करकरे का जिन्होंने देश में होने वाले धमाकों के असल कर्ता धर्ताओं को बेनकाब कर दिया। हालांकि शहीद हेमन्त करकरे ने अपनी इस ईमानदारी और इंसाफ परस्ती का खमियाजा अपनी हत्या कराकर भुगता। गौरतलब पहलू यह है कि आईबी समेत सभी जांच एजेंसियों ने एक बनी बनाई धारणा के तहत हर धमाके का जिम्मेदार मुस्लिमों को ही ठहराकर जेलों में सड़ाया और मौका हाथ लगा तो सीधे कत्ल ही कर दिया लेकिन बेगुनाह फंसाये जाने के बावजूद किसी भी जांच अधिकारी का कत्ल नहीं हुआ और जब धमाकों के असल जिम्मेदार बेनकाब हुए तो बेनकाब करने वाले ईमानदार, इंसाफपरस्त अफसर शहीद हेमन्त करकरे का कत्ल ही कर दिया गया और इसका भी इलजाम अजमल कस्साब के सिर ही मंढ दिया गया। अजमल कस्साब को जल्द से जल्द सज़ा देने दिलाने की भागमभाग में जांच कर्ता और अदालतों ने भी इस बात को जानने की कोशिश नहीं की कि शहीद हेमन्त करकरे की हत्या किसकी गोली से हुई ? क्योंकि सभी को जल्दी थी कस्साब को फांसी देने की। केन्द्र में काबिज कांग्रेस ने कस्साब और अफजल गुरू को फांसी दिये जाने के तमाम रास्ते राष्ट्रपति चुनाव से ही साफ़ कर दिये अगर सिर्फ आतंकियों को सजा देने की ही बात होती तो राजीव गांधी और बेअन्त सिंह के हत्यारों को कई साल पहले ही फांसी दी जा चुकी होती, लेकिन कस्साब व अफजल गुरू को मारने जैसी जल्दी राजीव और बेअन्त सिंह के हत्यारों के मामले में सरकार कानून और अदालतों में से किसी को भी नहीं नहीं है, क्यों ? क्योंकि इन आतंकियों में से कोई भी मुसलमान नहीं है। अजमल कस्साब और अफजल गुरू को सिर्फ और सिर्फ उनके मुसलमान होने की सज़ा दी गयी, हमने पहले भी कई बार कहा है कि भारत का कानून ‘‘धर्मनिर्पेक्षता के लेबल में लिपटा हुआ धर्म आधारित कानून है’’। यहां की न्याय प्रक्रिया कटघरे में खड़े व्यक्ति के धर्म और कुर्सी को देखकर काम करती है, इसका नमूना सारी दुनिया गुजरे बीस साल के अर्से में हरेक मामले में देख रही है। मिसाल के तौर पर बीसों साल पहले पाकिस्तानी मूल की मुस्लिम महिलाओं ने भारतीय पुरूषों से शादियां करके अपने परिवार के साथ यहां रह रही थी जिन्हें देश छोड़कर जाने पर विवश किया गया यहां तक कि उनको उनके मासूम बच्चों से भी दूर कर दिया गया, जबकि गुजरे साल में पाकिस्तान से कई दर्जन पाकिस्तानी गद्दार या कहिये पाकिस्तानी आतंकी भारत आये उन्हें सरकारी महमान बनाकर पाला जा रहा है इन आतंकियों में एक तो वहां की सरकार में मंत्री था, हम इन पाकिस्तानी गद्दारों को आतंकी इसलिए कह सकते हैं कयोंकि सरकार मीडिया लगातार प्रचार करती है कि पाकिस्तान आतंकी देश है और हम भी सरकार व मीडिया की बात को मानकर ही कह रहे हैं कि पाकिस्तान का बच्चा बच्चा आतंकी है वह चाहे मुसलमान हो या हिन्दू। धर्मनिर्पेक्ष संविधान के लेबल में छिपे धर्म आधारित कानून की कारसाज़ी यह है कि मुस्लिम महिलाओं को उनके मासूम बच्चों तक को छोड़कर जाने पर मजबूर किया जाता है और इन आतंकियों को पाला जा रहा है जिन्होंने यहां आकर देश में आग लगाने की भरपूर कोशिशें की, इन्हें देश से बाहर निकालने की बजाये देश का माल चटवाया जा रहा है, क्यों ? क्योंकि इनमें आतंकियों में से एक भी मुसलमान नहीं है।
अब बात करते हैं अफजल गुरू की। अफजल गुरू जो एक अच्छा डाक्टर बनना चाहता था, वह कैसे भटक गया किसने भटकने पर मजबूर किया उसे, या फिर किस हद तक भटका ? ऐसे बहुत से सवाल हैं जिन्हें जानने की कोशिश न तो धर्मनिर्पेक्ष संविधान के नकली लेबल में छिपे धर्म आधारित कानून ने ही कोशिश की और न ही उसकी अदालतों ने, अफजल गुरू कोई सच्चाई न उजागर करदे इसके लिए उसे वकील मुहैया नहीं कराया गया जबकि इसी धर्म आधारित कानून के ही प्रावधान है किः- 1-जो अपना वकील खड़ा करने में सक्षम न हो .....उसे सरकारी खर्च पर वकील मुहैया कराया जायेगा, 2-आरोपी को अपनी सफाई देने का पूरा अवसर दिया जायेगा। 3-दस गुनाहगार भले ही सजा से बच जायें लेकिन एक भी बेगुनाह को सजा नही मिलनी चाहिये। ऐसा किया गया क्या ? इसे कानून के धार्मिक होने का सबूत ही कहा जायेगा कि अफजल के मामले में इन तीनों ही प्रावधानों को दफ्ना दिया गया, न तो अफजल को कोई ढंग का वकील दिया गया, न ही उसे अपनी बात कहने का मौका दिया गया। और उसके बेकसूर होने या कसूरवार होने को जाने बिना ही सीधे मौत की नीन्द सुला दिया गया। आईये खुद अफजल की ही जुबानी उसके दी जा रही अन्याय की मार की कहानीः- ‘‘जहां तक मेरा सवाल है मैं एक ही अफजल को जानता हूं। और वो मैं ही हूं। दूसरा अफजल कौन है। (थोड़ी चुप्पी के बाद) अफजल एक युवा है, उत्साह से भरा हुआ है, बुद्धिमान और आदर्शवादी युवक है। नब्बे के दशक में जैसा कि कश्मीर घाटी के हजारों युवक उस दौर की राजनीतिक घटनाओं से प्रभावित हो रहे थे वो (अफजल) भी हुआ। वो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का सदस्य था और सीमा पर दूसरी ओर चला गया था। लेकिन कुछ ही सप्ताह बाद वो भ्रम का शिकार हो गया और उसने सीमा पार की और वापस इस तरफ आ गया, और एक सामान्य जिंदगी जीने की कोशिश करने लगा, लेकिन सुरक्षा एजेंसियों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया, वो मुझे बार-बार उठाते रहे, प्रताडि़त करके मेरा भुर्ता बना दिया, बिजली के झटके दिए गए, ठंडे पानी में जमा दिया गया, मिर्च सुंघाया गया, और एक फर्जी केस में फंसा दिया गया। मुझे न तो वकील मिला, न ही निष्पक्ष तरीके से मेरा ट्रायल किया गया। और आखिर में मुझे मौत की सजा सुना दी गई। पुलिस के झूठे दावों को मीडिया ने खूब प्रचारित किया और सुप्रीम कोर्ट की भाषा में जिसे देश की सामूहिक चेतना कहते हैं वो मीडिया की ही तैयार की हुई है, देश की उसी सामूहिक चेतना को संतुष्ट करने के लिए मुझे मौत की सजा सुनाई गई। मैं वही मोहम्मद अफजल हूं, जिससे आप मुलाकात कर रहे हैं। मुझे शक है कि बाहर की दुनिया को इस अफजल के बारे में कुछ भी पता है या नहीं, मैं आपसे ही पूछना चाहता हूं कि क्या मुझे मेरी कहानी कहने का मौका दिया गया? क्या आपको भी लगता है कि न्याय हुआ है? क्या आप एक इंसान को बिना वकील दिए हुए ही फांसी पर टांगना पसंद करेंगे? बिना निष्पक्ष कार्रवाई के, बिना ये जाने हुए कि उसकी जिंदगी में क्या कुछ हुआ? क्या लोकतंत्र का यही मतलब है?’’ अफजल ने अपना यह दुख भरी बेबसी की दास्तान जेल में मुलाकात करने गये एक पत्रकार से कहे। शायद इन्हीं शब्दों को न सुनने की कोशिश के तहत उसे न वकील दिया गया और न ही सफाई देने का मौका।
जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 4 अगस्त 2005 के अपने फैसले में साफतौर पर कहा कि ‘‘इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मोहम्मद अफजल किसी आतंकवादी गुट या संगठन का सदस्य है।’’यानी कोर्ट ने माना कि अफजल गुरू (आईबी, एसटीएफ ओर आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस के दिमागों की उत्पत्ति आतंकी संगठनों) का सदस्य नहीं था।’’ तो फिर उसे सजा क्यों दी गयी ? फैसले में अफजल को तर्कसंगत बनाने के लिए आगे कहा गया कि ‘‘और समाज का सामूहिक अन्तःकरण तभी संतुष्ट होगा जब अपराधी को मृत्युदंड दिया जायेगा।’’ हत्या के अनुष्ठान को, जो कि मृत्युदंड वास्तव में है, सही साबित करने की खातिर ‘समाज के सामूहिक अन्तःकरण’ का आह्वान करना भीड़ द्वारा हत्या करने के कानून को मानक बनाने के बहुत नजदीक आ जाता है। यह सोचकर काया कांप जाती है कि यह फार्मूला हमारे ऊपर शिकारी राजनेताओं या सनसनी तलाशते पत्रकारों की ओर से नहीं आया (हालांकि नेताओं और अमरीका व गुजरात पोषित मीडिया ने किया ऐसा ही), बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत की ओर से एक फरमान की तरह जारी हुआ है।
कोर्ट की इस बात से एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि ‘‘क्या कोर्टे किसी के खिलाफ कोई मजबूत सबूत न होते हुए भी सिर्फ ‘‘ समाज के सामूहिक अन्तःकरण को सन्तुष्ट करने के लिए ही किसी को मौत की सजा दे सकती है तो फिर देश क्या दुनिया भर के करोड़ों लोगों के अन्तःकरण को सन्तुष्ट करने के लिए गुजरात आतंकवाद से जुड़े मुख्य लोगों को सजा कयों नही दी जा रही है ? जबकि दुनिया भर में करोड़ों की तादाद में समाज का सामूहिक अन्तःकरण चाहता है कि गुजरात आतंकियों जिन्होंने तीन हजार से ज्यादा बेगुनाह लोगों का कत्लेआम करा और करवाया इनको मौत की सजा दी जाये लेकिन 2002 से लगातार कानून और अदालतें बार बार सबूत मिलने के बावजूद सजा तो दूर आतंकियों के खिलाफ मुकदमे तक नहीं चला सकीं, मुकदमें चलाना या सज़ा देना तो बड़ी बात उल्टे सोनिया गांधी नामक रिमोट से चलने वाली आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस बाहुल्य केन्द्र मनमोहन सिंह सरकार ने गुजरात आतंकवाद के मास्टर माइण्ड को सम्मान व पुरूस्कार दिया और उसकी करतूतों को उजागर करने वाली ‘‘जस्टिस नानावटी ओर रंगनाथ मिश्र आयोगों’’ की रिपोर्टो को भी फाड़कर फेंक दिया, क्यों ? क्योंकि इनमें से एक भी मुसलमान नहीं है और सोने पे सुहागा कि कत्लेआम के शिकार सभी मुसलमान थे।
संसद पर आक्रमण के दूसरे दिन, 14 दिसम्बर 2001 को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने ऐसे कई लोगों का पता लगा लिया है, जिन पर इस षडयंत्र में शामिल होने का संदेह है। एक दिन बाद, 15 दिसम्बर को उसने घोषणा की कि उसने ‘मामले को सुलझा लिया था, पुलिस ने दावा किया कि हमला पाकिस्तान आधारित दो (आईबी और पुलिस के दिमागों से निकले संगठन) आतंकवादी गुटों, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद का संयुक्त अभियान था। इस षडयंत्र में 12 लोगों के शामिल होने की बात कही गयी। आरोपी नंबर 1-जैशे मोहम्मद का गाजी बाबा, आरोपी नंबर 2-जैश-ए-मोहम्मद का ही मौलाना मसूद अजहर, तरीक अहमद (पाकिस्तानी नागरिक), पांच मारे गये ‘पाकिस्तानी आतंकवादी’(आज तक कोई नही जानता कि वे कौन थे) और तीन कश्मीरी मर्द एस.ए.आर. गिलानी, शौकत गुरू और मोहम्मद अफजल। इसके अलावा शौकत की बीबी अफसान गुरू। सिर्फ यही चार गिरफ्तार हुए। हमले के समय मारे गये पांचों लोगों की कोई सामूहिक आईडेंटिफिकेशन नहीं कराई गयी सिर्फ उनके कपड़ों, दाढ़ी, और सिरों पर लगी इस्लामी टोपियों के बल पर ही उन्हें पाकिस्तानी और मुसलमान ठहरा दिया गया।
लगभग साढे तीन साल बाद, 4 अगस्त, 2005 को इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना अंतिम फैसला सुना दिया। कोर्ट कहा ‘संसद पर आक्रमण की कोशिश निःसंदेह भारतीय राज्य और सरकार की, जो उसकी ही प्रतिरूप है, प्रभुसत्ता का अतिक्रमण है मृत आतंकवादियों को जबरदस्त भारत विरोधी भावनाओं से भड़काकर यह कार्रवाई करने के लिए प्रेरित किया गया जैसा कि कार (एक्स.पी डब्लू 1-8) पर पाये गये गृहमंत्रालय के नकली स्टिकर में लिखे हुए शब्दों से भी साबित होता है।’ न्यायालय ने आगे कहा, ‘कट्टर फिदाईनों ने जो तरीके अपनाये वे सब भारत सरकार के खिलाफ जंग छेड़ने की मंशा दर्शाते हैं।’ हमलावरों की कार के अगले शीशे पर जो स्टीकर लगा बताया गया उसपर लिखा था, ‘‘हिन्दुस्तान बहुत खराब मुल्क है और हम हिन्दुस्तान से नफरत करते हैं, हम हिन्दुस्तान को बर्बाद कर देना चाहते हैं और अल्लाह के करम से हम ऐसा करेंगे अल्लाह हमारे साथ है और हम भरसक कोशिश करेंगे। यह मूरख वाजपेयी और आडवाणी हम उन्हें मार देंगे। इन्होंने बहुत से मासूम लोगों की जानें ली हैं और वे बेइन्तहा खराब इन्सान हैं, उनका भाई बुश भी बहुत खराब आदमी है, वह अगला निशाना होगा। वह भी बेकुसूर लोगों का हत्यारा है उसे भी मरना ही है और हम यह कर देंगे।’’ इतनी बड़ी इबारत लिखे स्टीकर का कार के अगले शीशे पर लगा होने के बाद कार चालक को सामने कुछ दिखाई पड़ता हो यह समझमें आना मुश्किल ही है तो वह कार चला कैसे रहा था ?
स्टीकर पर लिखी इबारत को देखने के बाद कम से कम यह तो समझ में आ ही जाता है कि गुजरात आतंकवाद और इस मामले में कुछ कनैक्शन है, आपको याद होगा ही कि गुजरात में सरकारी आतंकियों ने इशरत जहां, सोहराबुददीन समेत दर्जनों बेगुनाहों को कत्ल करके कह दिया था कि  ‘‘ये लोग मोदी को मारने आये थे’’। इस स्टीकर में भी कुछ ऐसा ही दिखाई पड़ रहा था।
13 दिसम्बर 2001 को संसंद पर हमले के बाद पुलिस और मीडिया ने दुनिया को जो कहानी समझायी वह अधिकतर अपराधियों के विपरीत थी, ये पांच अपने अपने पीछे सुरागों की जबरदस्त श्रृंखला छोड़ गये, हथियार, मोबाइल फोन, फोन नंबर, पहचान पत्र, फोटो, सूखे मेवों के पैकेट, यहां तक कि एक प्रेम-पत्र भी। यानी कि हमला करने आने वाले अपनी पहचान के साथ साथ अपने ठिकाने भी बता गये कि हमले के बाद हमें इन जगहों से गिरफ्तार कर लेना। 
पुलिस ने अपना आरोप-पत्र एक त्वरित-सुनवाई अदालत में दायर किया जो कि ‘आतंकवाद निरोधक अधिनियम’ (पोटा) के मामलों को निपटाने के लिए स्थापित की गयी थी। निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने 16 दिसम्बर, 2002 (सिर्फ एक साल तीन दिन मंे ही) को गिलानी, शौकत और अफजल को मौत की सजा सुनायी। अफसान गुरू को पांच वर्ष की कड़ी कैद की सजा दी गयी। साल भर बाद उच्च न्यायालय ने गिलानी और अफसान गुरू को बरी कर दिया। लेकिन शौकत और अफजल की मौत की सजा को बरकरार रखा। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी रिहाइयों को यथावत् रखा और शौकत की सजा को 10 वर्ष की कड़ी सजा में तब्दील कर दिया। लेकिन उसने न केवल मोहम्मद अफजल की सजा को बरकरार रखा, बल्कि बढ़ा दिया। उसे तीन आजीवन कारावास और दोहरे मृत्युदंड की सजा दी गयी।
याद दिलादें कि निचली अदालत से राष्ट्रपति तक किसी भी स्तर पर अफजल को उसकी सफाई में कुछ बोलने की इजाजत नहीं दी गयी।
गौरतलब है कि 4 अगस्त, 2005 के अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ-साफ कहा है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मोहम्मद अफजल किसी आतंकवादी गुट या संगठन का सदस्य है। लेकिन न्यायालय ने यह भी कहा है ‘‘जैसा कि अधिकांश षड्यंत्रों के मामले में होता है, उस सांठ-गांठ का सीधा प्रमाण नहीं हो सकता और न है जो आपराधिक षड्यंत्र ठहरती हो। फिर भी, कुल मिलाकर आंके जाने पर परिस्थितियां अचूक ढंग से अफजल और मारे गये ‘फिदायीन’ आतंकवादियों के बीच सहयोग की ओर इशारा करती हैं।’
यानि सीधा कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन परिस्थितिजन्य प्रमाण हैं।
फैसले के एक विवादास्पद पैरे में कहा गया है, ‘इस घटना ने, जिसके कारण कई मौतें हुईं, पूरे राष्ट्र को हिला दिया था और समाज का सामूहिक अन्तःकरण तभी संतुष्ट होगा जब अपराधी को मृत्युदंड दिया जायेगा।’’
हत्या के अनुष्ठान को, जो कि मृत्युदंड वास्तव में है, सही साबित करने की खातिर ‘समाज के सामूहिक अन्तःकरण’ का आह्वान करना भीड़ द्वारा हत्या करने के कानून को मानक बनाने के बहुत नजदीक आ जाता है। यह सोचकर काया कांप जाती हैं कि यह फरमाने हमारे ऊपर शिकारी राजनेताओं या सनसनी तलाशते पत्रकारों की ओर से नहीं आया (हालांकि उन्होंने भी ऐसा किया है), बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत की ओर से एक फरमान की तरह जारी हुआ है।
अफजल को फांसी की सजा देने के कारणों को सही ठहराने की के लिए फैसले में आगे कहा गया ‘‘अपील करने वाला, जो हथियार डाल चुका उग्रवादी है और जो राष्ट्रद्रोही कार्यों को दोहराने पर आमादा था, समाज के लिए एक खतरा है और उसकी जिन्दगी का चिराग बुझना ही चाहिए।’’ यह वाक्य गलत तर्क और इस तथ्य के निपट अज्ञान का मिश्रण है कि आज के कश्मीर में ‘‘हथियार डाल चुका उग्रवादी’ होने का क्या मतलब होता है।’’
अगर बात समाज के सामूहिक अन्तःकरण की ही थी तो फिर उसी समाज से ही ला तादाद बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं, संपादकों, वकीलों और सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण लोगों के एक छोटे-से, लेकिन प्रभावशाली समूह ने नैतिक सिद्धांत के आधार पर मृत्युदंड का विरोध किया था। उनका यह भी तर्क था कि ऐसा कोई व्यावहारिक प्रमाण नहीं है जो सुझाता हो कि मौत की सजा आतंकवादियों के लिए अवरोधक का काम करती है।(कैसे कर सकती है, जब फिदायीनों और आत्मघाती बमवारों के इस दौर में मौत सबसे बड़ा आकर्षण बन गई जान पड़ती हो?) क्या ये लोग उस समाज में से नहीं थे जिनकी चेतना का इतना ख्याल रखा गया कि अदालत ने यह मानकर भी कि कोई सीधा प्रमाण नहीं है, मौत देदी ?
अगर जनमत-संग्रह (ओपिनियन पोल), अमरीका व गुजरात पोषित मीडिया के कथित संपादक के नाम पत्र और टीवी स्टूडियो के सीधे प्रसारण में भाग ले रहे दर्शक भारत में जनता की राय का सही पैमाना हैं तो हत्यारी भीड़ (लिंच माब) में घंटे-दर-घंटे इजाफा हो रहा था। ऐसा लगता था मानो भारतीय नागरिकों की बहुसंख्यक आबादी मोहम्मद अफजल को अगले कुछ वर्षों तक हर दिन फांसी पर चढ़ाये जाते हुए देखना चाहती थी जिनमें सप्ताहांत की छुट्टियां भी शामिल थी। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी, अशोभनीय हड़बड़ी प्रदर्शित करते हुए, चाहते थे कि उसे फौरन से पेश्तर फांसी दे दी जाये, एक मिनट की भी देर किये बिना।
इस बीच कश्मीर में भी लोकमत उतना ही प्रबल था। गुस्से से भरे बड़े-बड़े प्रदर्शन बढ़ती हुई मात्रा में यह स्पष्ट करते जा रहे थे कि अगर अफजल को फांसी दी गयी तो इसके राजनैतिक परिणाम होंगे। कुछ इसे न्याय का विचलन मानकर इसका विरोध कर रहे थे, लेकिन विरोध करते हुए भी वे भारतीय न्यायालयों से न्याय की अपेक्षा नहीं करते। वे इतनी ज्यादा बर्बरता और अदालतों की बेइंसाफी से गुजर चुके हैं कि अदालतों, हलफनामों और इन्साफ पर उनका अब कोई विश्वास नहीं रह गया है। कुल मिलाकर, ज्यादातर कश्मीरी मोहम्मद .....अफजल को एक युद्धबंदी की तरह देखते थे और अब एक शहीद के रूप में।
अफसोस यह है कि इस पागलपन में लगता है अफजल ने व्यक्ति होने का अधिकार गंवा दिया था। वे राष्ट्रवादियों, पृथकतावादियों और मृत्युदंड विरोधी कार्यकर्ताओं सबकी कपोल-कल्पनाओं का माध्यम बन गये थे उन्हें अमरीका व गुजरात पोषित मीडिया के कथित धड़ों और पुलिस, एसटीएफ, आईबी ने भारत का महा-खलनायक बना दिया था।
ऐसे हालात में, जो इतने आशंका भरे हों और जिसका इस हद तक राजनीतिकरण कर दिया गया हो, यह मानने का लालच होता है कि हस्तक्षेप का समय आकर चला गया है। आखिरकार, कानूनी प्रक्रिया चालीस महीने चली और सर्वोच्च न्यायालय ने उन साक्ष्यों को जांचा है जो उसके सामने सिर्फ अभियोजन पक्ष की दी हुई कहानियां मौजूद थीं। उसने आरोपियों में से दो को सजा सुना दी और दो को बरी कर दिया। निश्चय ही यह अपने आप में न्याय की वस्तुपरकता का प्रमाण हैं? इसके बाद कहने को क्या रह जाता है? इसे देखने का एक और तरीका भी है। क्या यह अजीब नहीं है कि अभियोजन पक्ष आधे मामले में इतने विलक्षण ढंग से गलत साबित हुआ और आधे में इतने शानदार तरीके से सही? मामला एक ही था एक ही साथ सुनाया ओर सुना गया फिर भी किसी भी अदालत ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि एक ही मामले में अभियोजन दो दो तरह की कहानी कैसे सुना रहा है ?
मोहम्मद अफजल की कहानी इसलिए दिल दुखाने वाली है क्योंकि वह मकबूल बट्ट नहीं है। यह ऐसी कहानी है जिसके नियामक तत्व न्यायालय की चारदीवारी से और ऐसे लोगों की सीमित कल्पना से, जो स्वघोषित ‘महाशक्ति’ के सुरक्षित केन्द्र में रहते हैं, बहुत आगे तक फैले हुए हैं। मोहम्मद अफजल की कहानी का उत्स ऐसे युद्ध-क्षेत्र में है जिसके नियम सामान्य न्याय-व्यवस्था के सूक्ष्म तर्कों और नाजुक संवेदनाओं से परे है। इन सभी कारणों से यह महत्त्वपूर्ण है कि हम संसद पर 13 दिसम्बर की अजीब, दुखद और पूरी तरह अमंगलसूचक कहानी को सावधानी से जांचे-परखें। यह सारी बातें बतलाती है कि दुनिया का सबसे बड़ा ‘लोकतंत्र’ किस तरह काम करता है। यह सबसे बड़ी चीजों को सबसे छोटी चीजों से जोड़ती है। यह उन गलियों-पगडंडियों को चिह्नित करती है जो उस सबको जो हमारे पुलिस थानों की अंधेरी कोठरियों में होता है।
गुजरी साल 4 अक्टूबर को अमन व इंसाफ पसन्द लोगों का एक छोटो सा मोहम्मद अफजल को फांसी की सजा दिये जाने के खिलाफ नयी दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर इकट्ठा हुआ था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि मोहम्मद अफजल एक बहुत ही शातिराना शैतानी खेल का महज एक मोहरा थे। अफजल वह राक्षस नहीं थे जैसा कि उन्हें प्रचारित किया गया। वह तो राक्षस के पंजे का निशान भर थे और जब पंजे के निशान को ही‘मिटा’ दिया गया है तो हम कभी नहीं जान पाएंगे कि राक्षस कौन था, और है? शायद असली राक्षस का नाम खुलने से बचाने के लिए ही अफजल के मामले में एक तरफा कार्यवाहियां करके अफजल को ठिकाने लगा दिया। अफसोस यह है कि अब कोई हेमन्त करकरे मौजूद नहीं जो असल राक्षस को बेनकाब करे।
इस विरोध-प्रदर्शन के संयोजक दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी के प्राध्यापक एस.ए.आर. गिलानी थे। जो थोड़े घबराये-से अन्दाज में वक्ताओं का परिचय दे रहा थे और घोषणाएं कर रहा थे। संसद पर आक्रमण के मामले में आरोपी नंबर तीन। उन्हें आक्रमण के एक दिन बाद, 14 दिसम्बर, 2001 को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल द्वारा गिरफ्तार किया गया था। हालांकि गिलानी को गिरफ्तारी के दौरान बर्बर यातनाएं दी गयी थीं, और उनके परिवार (पत्नी, छोटे बच्चे और भाई) को गैर-कानूनी तरीके से हवालात में रखा गया था, फिर भी उन्होंने उस अपराध को स्वीकार करने से मना कर दिया था, जो उन्होंने किया नहीं था। यकीनन ही उनकी गिरफ्तारी के बाद के दिनों में अगर आपने (आरएसएस लाबी द्वारा पोषित) चैनल नहीं देखे होंगे और अखबार नहीं पढ़े होंगे तो आप यह सच जान नहीं पाये होंगे। उन्होंने एक सर्वथा काल्पनिक, अस्तित्वहीन स्वीकारोक्ति के विस्तृत मंनगढ़ं़त विवरण छापे थे। दिल्ली पुलिस ने गिलानी को साजिश के भारतीय पक्ष का दुष्ट सरगना (मास्टर माइंड) कहा था। इसके मनगंढ़त कथा लेखकों ने उनके खिलाफ नफरत-भरा प्रचार-अभियान छेड़ रखा था जिसे अति-राष्ट्रवादी, सनसनी-खोजू मीडिया ने बढ़ा-चढ़ाकर और नमक-मिर्च लगाकर पेश किया था। पुलिस अच्छी तरह जानती थी कि फौजदारी मामलों में यह फर्ज किया जाता है कि जज मीडिया रिपोर्टों का नोटिस नहीं लेते। इसलिए पुलिस को पता था कि उसके द्वारा इन ‘आतंकवादियों’ का निर्मम मनगढ़न्त चरित्र-चित्रण जनमत तैयार करेगा और मुकदमें के लिए माहौल तैयार कर देगा। लेकिन पुलिस कानूनी जांच-परख के दायरे से बाहर होगी।

आरएसएस लाबी द्वारा पोषित समाचार-पत्रों के कुछ विद्वेषपूर्ण, कोरे झूठ जो छापें गयेः-

1-‘‘गुत्थी सुलझी’’ आक्रमण के पीछे जैश’’ नीता शर्मा और अरुण जोशी, द हिंदुस्तान टाइम्स, 16 दिसम्बर, 2001 ।
2-‘दिल्ली में स्पेशल सेल के गुप्तचरों ने अरबी के एक अध्यापक को गिरफ्तार कर लिया है जो कि जाकिर हुसैन कालेज (सांध्यकालीन) में पढ़ाता है। इस बात के साबित हो जाने के बाद कि उसके मोबाइल फोन पर उग्रवादियों द्वारा किया गया फोन आया था।’’
3-‘दिल्ली विश्वविद्यालय का अध्यापक आतंकवादी योजना की धुरी था’, द टाइम्स आफ इंडिया, 17 दिसम्बर, 2001 ।
4-‘संसद पर 13  दिसम्बर का आक्रमण आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा की संयुक्त कार्रवाई था जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय का अध्यापक सैयद ए.आर. गिलानी दिल्ली में सुविधाएं जुटाने वाले (फैसिलिटेटर) प्रमुख लोगों में से एक था। यह बात पुलिस कमिश्नर अजय राज शर्मा ने रविवार को कही।’’
‘प्रोफेसर ने “फियादीन” का मार्गदर्शन किया,’ देवेश के.पांडे, द हिंदू, 17 दिसम्बर, 2001।
5-‘पूछताछ के दौरान गिलानी ने यह राज खोला कि वह षड्यंत्र के बारे में उस दिन से जानता था जब “फियादीन” हमले की योजना बनी थी।’
6-‘डान खाली समय में आतंकवाद सिखाता था,’ सुतीथो पत्रनवीस, द हिंदुस्तान टाइम्स, 17 दिसम्बर, 2001।
7-‘जांच से यह बात सामने आयी है कि सांझ होने तक वह कालेज पहुंचकर अरबी साहित्य पढ़ा रहा होता था। खाली समय में, बंद दरवाजों के पीछे, अपने या फिर संदेह में गिरफ्तार किये गये दूसरे आरोपी शौकत हुसैन के घर पर वह आतंकवाद का पाठ पढ़ता और पढ़ाता था।’
.....8-‘प्रोफेसर की आय’ द हिंदुस्तान टाइम्स, 17 दिसम्बर, 2001ः-
‘गिलानी ने हाल ही में पश्चिमी दिल्ली में 22 लाख का एक मकान खरीदा था। दिल्ली पुलिस इस बात की जांच कर रही है कि उसे इतना पैसा किस छप्पर के फटने से मिला।’
9-‘अलीगढ़ से इग्लैंड तक छात्रों में आतंकवाद के बीज बो रहा था गिलानी,’ सुजीत ठाकुर, राष्ट्रीय सहारा, 18  दिसम्बर, 2001।
10-‘जांच कर रही एजेंसियों के सूत्रों और उनके द्वारा इकट्ठा की गयी सूचनाओं के अनुसार गिलानी ने पुलिस को एक बयान में कहा है कि वह लंबे समय से जैश-ए-मोहम्मद का एजेंट था। गिलानी की वाग्विदग्धता, काम करने की शैली और अचूक आयोजन क्षमता के कारण ही 2000 में जैश-ए-मोहम्मद ने उसे बौद्धिक आतंकवाद फैलाने की जिम्मेदारी सौंपी थी।’
11-‘आतंकवाद का आरोपी पाकिस्तानी दूतावास में जाता रहता था,’ स्वाती चतुर्वेदी, द हिंदुस्तान टाइम्स, 21 दिसम्बर, 2001।
12-‘पूछताछ के दौरान गिलानी ने स्वीकार किया कि उसने पाकिस्तान को कई फोन किये थे और वह जैश-ए-मोहम्मद से संबंध रखने वाले आतंकवादियों के संपर्क में था। गिलानी ने कहा कि जैश के कुछ सदस्यों ने उसे पैसे दिये थे और दो फ्लैट खरीदने को कहा जिन्हें आतंकवादी कार्रवाई के लिए इस्तेमाल किया जा सके।’ सप्ताह का व्यक्ति,’ संडे टाइम्स आफ इंडिया, 23 दिसंबर, 2001।
13-‘एक सेलफोन उसका दुश्मन साबित हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय का सैयद ए.आर. गिलानी 13 दिसम्बर के मामले में गिरफ्तार किया जाने वाला पहला व्यक्ति था। एक स्तब्ध करने वाली चेतावनी कि आतंकवाद की जड़े दूर तक और गहरे उतरती हैं।’
14-जी टीवी ने इन सबको मात कर दिया। उसने ‘13 दिसम्बर’ नाम की एक फिल्म बनायी, एक डाक्यूड्रामा जिसमें यह दावा किया गया कि वह ‘पुलिस की चार्जशीट पर आधारित सत्य’ है। (इसे क्या शब्दावली में अंतर्विरोध नहीं कहा जायेगा?) फिल्म को निजी तौर पर प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी (अपनी बन्द रहने वाली आंखों से) और लाल कृष्ण आडवाणी को दिखलाया गया। दोनों ने फिल्म की तारीफ की। उनके अनुमोदन को मीडिया ने व्यापक स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया।
सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल को साजिश के तहत आतंकी प्रचारित करने के लिए तैयार की गयी इस फिल्म के प्रसारण पर पाबन्दी लगाने की अपील यह कहते हुए खारिज कर दिया कि न्यायाधीश मीडिया से प्रभावित नहीं होते। मा0 न्यायालय की इस बात से सवाल यह पैदा होता है कि ‘‘क्या सर्वोच्च न्यायालय यह मानेगा कि भले ही न्यायाधीश मीडिया की रिपोर्टों से प्रभावित नहीं होते हों, तो क्या ‘समाज का सामूहिक अंतःकरण’ प्रभावित नहीं हो सकता?’’
13 दिसम्बर’ नामक फिल्म एक बड़ी साजिश के तहत त्वरित-सुनवाई अदालत द्वारा गिलानी, अफजल और शौकत को मृत्युदंड दिये जाने से कुछ दिन पहले जी टीवी के राष्ट्रीय नेटवर्क पर दिखलायी गयी। गिलानी ने इसके बाद 18 महीने जेल में काटे कई महीने फांसीवालों के लिए निर्धारित कैदे-तन्हाई में।
हाईकोर्ट द्वारा उसे और अफसान गुरू को निर्दोष पाये जाने पर छोड़ा गया। सर्वोच्च न्यायालय ने रिहाई के आदेश को बरकरार रखा। उसने संसद पर आक्रमण के मामले से गिलानी को जोड़ने या किसी आतंकवादी संगठन से उनका संबंध होने का कोई प्रमाण नहीं पाया। आरएसएस लाबी द्वारा पोषित एक भी अखबार या पत्रकार या टीवी चैनल ने अपने झूठों के लिए उनसे (या किसी और से) माफी मांगने की जरूरत महसूस नहीं की। लेकिन एस.ए.आर. गिलानी पर ढाये जा रहे जुल्मों का अंत यहीं नहीं हुआ। उनकी रिहाई के बाद स्पेशल सेल के पास साजिश तो रह गयी पर कोई ‘सरगना’ (मास्टर माइंड) नहीं बचा। 
इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि गिलानी अब एक आजाद इंसान थे। प्रेस से मिलने, वकीलों से बात करने और अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब देने के लिए आजाद। सर्वोच्च न्यायालय की अंतिम सुनवाई के दौरान 8 फरवरी, 2005 की शाम को गिलानी अपने वकील से मिलने उसके घर जा रहा थे। घोर-अंधेरे से एक रहस्यमय बंदूकधारी प्रकट हुआ और उसने गिलानी पर पांच गोलियां दागी। खुश किस्मती से वे बच गये। साफ तौर पर जाहिर है कोई इस बात को लेकर चिंतित था कि गिलानी क्या जानते थे और क्या कहने वाले थे। दुनिया भर के तमाम अमनपसन्दों की सोच थी कि पुलिस इस उम्मीद में इस मामले की जांच को सर्वोच्च प्राथमिकता देगी कि इससे संसद पर हुए आक्रमण के मामले में नये महत्त्वपूर्ण सुराग मिलेंगे। उलटे स्पेशल सेल ने गिलानी से इस तरह व्यवहार किया मानो अपनी हत्या के प्रयत्न का मुख्य संदेहास्पद व्यक्ति वह खुद ही हो। स्पेशल सेल नेे उनका कंप्यूटर जब्त कर लिया और उनकी कार ले गये। सैकड़ों कार्यकर्ता अस्तपाल के बाहर जमा हुए और उन्होंने हत्या के प्रयास की जांच की मांग की, जिसमें कि स्पेशल सेल पर भी जांच की मांग शामिल थी। आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस की केन्द्र व दिल्ली सरकार और धर्मनिर्पेक्षता के लेबल में छिपे धर्म आधारित कानून ने आजतक यह जानने की कोशिश ही नहीं कि आखिर गिलानी पर कातिलाना हमला किसने किया और क्यों?
साजिशों के शिकार एस.ए.आर. गिलानी की दूसरी ओर, पत्रकारों और फोटोग्राफरों की भीड़ में, हाथ में छोटा टेप रिकार्डर लिये, पूरी तरह सामान्य दिखने की कोशिश करता हुआ एक और गिलानी था। इफ्तेखार गिलानी। वह भी कैद भुगत चुका था। उसे 9 जून, 2002 को गिरफ्तार किया गया था और पुलिस हिरासत में रखा गया था। उस समय वह जम्मू के दैनिक ‘कश्मीर टाइम्स’ का संवाददाता था। उस पर ‘सरकारी गोपनीयता अधिनियम’ (आफीशियल सीक्रेट्स ऐक्ट) के तहत आरोप लगाया गया था। उसका ‘अपराध’ यह था कि उसके पास ‘भारत-अधिकृत कश्मीर’ में भारतीय सेना की तैनाती को लेकर कुछ पुरानी सूचनाएं थी। (ये सूचनाएं, बाद में पता चला, एक पाकिस्तानी शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित आलेख था जो इंटरनेट पर खुल्लमखुल्ला उपलब्ध था।) इफ्तेखार गिलानी के कंप्यूटर को जब्त कर लिया गया। इंटेलिजेंस ब्यूरों के अधिकारियों ने उसकी हार्डडिस्क के साथ छेड़-छाड़ की, डाउनलोड फाइलों को उलट-पुलट किया। जिससे कि यह एक भारतीय दस्तावेज-सा लगे इसके लिए ‘भारत-अधिकृत कश्मीर’ को बदल कर ‘जम्मू और कश्मीर’ किया गया और ‘केवल संदर्भ के लिए। प्रसार के लिए पूरी तरह निषिद्ध।’ ये शब्द जोड़ दिये गये, जिससे यह ऐसा गुप्त दस्तावेज लगे जिसे गृहमंत्रालय से उड़ाया गया हो।
दूसरी तरफ आरएसएस लाबी के अखबारों और चैनलों ने एक बार फिर स्पेशल सेल के झूठों का पुलिन्दा नमक मिर्च लगाकर सुर्खियों में रखा। इन मुस्लिम दुश्मन अखबारों की कुछ लाईने देखेंः-
..... ‘हुर्रियत के कट्टरपंथी नेता सैयद अली शाह गिलानी के 35 वर्षीय दामाद, इफ्तेखार गिलानी ने, ऐसा विश्वास है कि शहर की एक अदालत में यह मान लिया है कि वह पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी का एजेंट था।’-नीता शर्मा, द हिंदुस्तान टाइम्स, 11 जून, 2002।
‘इफ्तिखार गिलानी हिजबुल मुजाहिदीन के सैयद सलाहुद्दीन का खास आदमी था। जांच से पता चला है कि इफ्तिखार भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की गतिविधियों के बारे में सलाहुद्दीन को सूचना देता था। जानकार सूत्रों ने कहा कि उसने अपने असली इरादों को अपने पत्रकार होने की आड़ में इतनी सफाई से छिपा रखा था कि उसका पर्दाफाश करने में कई वर्ष लग गये।’-प्रमोद कुमार सिंह, द पायनियर, जून 2002
‘गिलानी के दामाद के घर आयकर के छापों में बेहिसाब संपत्ति और संवेदनशील दस्तावेज बरामद’।-हिंदुस्तान, 10 जून, 2002। (जबकि पुलिस की चार्जशीट में उसके घर से मात्र 3450 रुपये बरामद होने की बात दर्ज थी, ) इसी के साथ आरएसएस गुलाम दूसरी मीडिया रिपोर्टों में कहा गया कि उसका एक तीन कमरों वाला फ्लैट है, 22 लाख रुपये की अघोषित आय है, उसने 79 लाख रुपये के आयकर की चोरी की है तथा वह और उसकी पत्नी गिरफ्तारी से बचने के लिए घर से भागे हुए हैं। अखबारों के इतने बड़े बड़े साजिशी झूठों के बावजूद आजतक इन अखबारों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया गया न ही धर्म आधारित कानून ने और न ही प्रेस परिषद ने।
यकीन किया जा सकता है कि अबतक की बातों से आपको यह समझ आ गयी होगी कि अफजल गुरू के मामले में कानून का दूर दूर तक इस्तेमाल नहीं किया गया, सिर्फ ‘‘समाज के सामूहिक अन्तःकरण और कुछ खास की मर्जी के मुताबिक ही हुआ सब कुछ। 
एस.ए.आर. गिलानी और इफतिखार गिलानी दोनों इस मामले में खुश किस्मत रहेैं कि वे दिल्ली में रहने वाले कश्मीरी हैं और उनके साथ मध्यवर्ग के मुखर संगी-साथी हैं पत्रकार (सच्चे पत्रकार दलाल नहीं) और विश्वविद्यालय के अध्यापक, जो उन्हें अच्छी तरह जानते थे और संकट की घड़ी में उनके साथ खड़े हो गये थे। एस.ए.आर. गिलानी की वकील नन्दिता हक्सर ने एक ‘अखिल भारतीय एस.ए.आर. गिलानी बचाव समिति’ बनायी। गिलानी के पक्ष में खड़े होने के लिए कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों ने एकजुट होकर अभियान चलाया। जाने-माने वकील राम जेठमलानी, के.जी. कन्नाबिरन और वृंदा ग्रोवर अदालत में उसकी तरफ से पेश हुए। उन्होंने मुकदमें की असली सूरत उजागर कर दी गढ़े गये सबूतों से खड़ा किया गया बेहूदा अटकलों, फर्जी बातों और कोरे झूठों का पुलिन्दा। सो बेशक, न्यायिक वस्तुनिष्ठता मौजूद है। लेकिन वह एक शर्मीला जन्तु है जो हमारी कानूनी व्यवस्था की भूल-भुलैया में कहीं गहरे में रहता है, बिरले ही नजर आता है। इसे इसकी मांद से बाहर लाने और करतब दिखाने के लिए नामी वकीलों की पूरी टोली की जरूरत होती है। यानी गंगा को हिमालय की गोद से बाहर लाने वाला भागीरथ। मोहम्मद अफजल के साथ कोई भागीरथ नहीं था।
9 फरवरी 2013 की तड़के ही संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरु को खुफिया तरीके से फांसी दे दी गई और उनकी लाश को तिहाड़ जेल में मिट्टी में दबा दिया गया। क्या उन्हें मकबूल भट्ट की बगल में दफनाया गया? (एक और कश्मीरी, जिन्हें 1984 में तिहाड़ में ही फांसी दी गई थी। मनमानी का हाल यह है कि अफजल की बीवी और बेटे को इत्तला नहीं दी गई थी। ‘अधिकारियों ने स्पीड पोस्ट और रजिस्टर्ड पोस्ट से परिवार वालों को सूचना भेज दी है,’ गृह सचिव ने प्रेस को बताया, ‘जम्मू कश्मीर पुलिस के महानिदेशक को कह दिया गया है कि वे पता करें कि सूचना उन्हें मिल गई है कि नहीं।’ ये कोई बड़ी बात नहीं है, देश की डाक को सिर्फ पचास रूपये खर्च करके किसी की भी चिटठी को समय निकलने तक रोका जा सकता है और फिर वो तो (सरकार और आईबी की भाषा में) बस एक कश्मीरी दहशतगर्द के परिवार वाले हैं।
जनहित और देश विकास से जुड़े हरेक मुददे पर एक दूसरे की टांग खिंचाई के लिए ही वजूद में रहने वाले राजनैतिक दल अफजल को मारने और मारे जाने की खुशी में एक साथ झूमते दिखाई पड़े। अदालतों ने कुछ लोगों की पसन्द ‘‘सामूहिक अन्तःकरण’’ का नाम देकर हम पर उंड़ेल दी-धर्मात्माओं सरीखे उन्माद और तथ्यों की नाजुक पकड़ की वही हमेशा की खिचड़ी। यहां तक कि वो इन्सान मर चुका था और चला गया था, झुंड बनाकर शेर का शिकार करने वालों कोे बुजदिलों की तरह आपस में एक दूसरे का हौसला बढ़ाने की जरूरत पड़ रही थी। शायद उनकी अन्तरात्मा की गहराई उनको धित्कार रही थी कि वे सब एक भयानक रूप से गलत काम के लिए जुटे हुए हैं।
पुलिस की कहानी के मुताबिक ‘‘13 दिसंबर 2001 को पांच हथियारबंद लोग इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस के साथ एक सफेद एंबेस्डर कार से संसद भवन के दरवाजों से दाखिल हुए, जब उन्हें ललकारा गया तो वो कार से निकल आए और गोलियां चलाने लगे। उन्होंने आठ सुरक्षाकर्मियों और माली को मार डाला। इसके बाद हुई गोलीबारी में पांचों हमलावर मारे गए। पुलिस हिरासत में तैयार किये गए कबूलनामों के अनेक वर्जनों में से एक में अफजल गुरु ने उन लोगों की पहचान मोहम्मद, राणा, राजा, हमजा और हैदर के रूप में की, (आज तक भी, सारी दुनिया उन लोगों के बारे में कुल मिला कर इतना ही जानती है जितना कि पुलिस ने कबूलनामें में लिखा) आजतक देखा यह गया है कि किसी भी मामले में अदालतें पुलिस के सामने दिये गये बयानों को ही सही नहीं मान लेती और अदालते अपने समक्ष बयान कराती हैं लेकिन अफजल को तो अपने बचाव में कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया गया। तत्कालीन गृहमंत्री एल.के. अडवाणी ने कहा कि ‘‘वे ‘पाकिस्तानियों जैसे दिखते थे।’ चुंकि आडवाणी खुद एक सिन्धी है इसलिए आडवाणी से बेहतर कौन जान सकता है कि ठीक ठीक पाकिस्तानी दिखना क्या होता है। सिर्फ अफजल के कबूलनामे के आधार पर (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बाद में ‘खामियों’ और ‘कार्यवाही संबंधी सुरक्षा प्रावधानों के उल्लंघनों’ के आधार पर खारिज कर दिया था) परमाणु युद्ध की बातें करके सरकार ने भारत के हजारों करोड़ रुपए ठिकाने लगा दिये।
हमले के अगले ही दिन, 14 दिसंबर, 2001 को दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मामले को सुलझा लिया है। 15 दिसंबर को उसने दिल्ली में प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और श्रीनगर में फल बाजार से शौकत गुरु और अफजल गुरु को गिरफ्तार किया और गिलानी को मास्टर माइण्ड की उपाधि भी दे डाली। बाद में उन्होंने शौकत की बीवी अफशां गुरु को गिरफ्तार किया। आरएसएस लाबी पोषित मीडिया ने जोशोखरोश से स्पेशल सेल की तैयार की हुई कहानी का प्रचार प्रसार किया। जिनमें कुछेक की सुर्खियां आप ऊपर पढ़ चुके हैं जीटीवी ने दिसंबर 13 नाम से एक ‘डाक्यूड्रामा’ प्रसारित किया, जो कि ‘पुलिस के आरोप पत्र पर आधारित था ......उसकी पुनर्प्रस्तुति थी। सवाल यह है कि अगर पुलिस की कहानी सही है, तो फिर अदालतें किस लिए हैं ? तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी और एल.के. आडवाणी ने बड़ी ही बेहयाई के साथ सरेआम फिल्म की तारीफ की। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि मीडिया जजों को प्रभावित नहीं करेगा। फिल्म फास्ट ट्रेककोर्ट द्वारा अफजल, शौकत और गीलानी को फांसी की सजा सुनाए जाने के सिर्फ कुछ दिन पहले ही दिखाई गई। उच्च न्यायालय ने प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और अफशां गुरु को आरोपों से बरी कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी रिहाई को बरकरार रखा। लेकिन 5 अगस्त, 2005 के अपने फैसले में इसने मोहम्मद अफजल को तिहरे आजीवन कारावास और दोहरी फांसी की सजा सुनाई।
आरएसएस पोषित कुछ पत्रकारों द्वारा फैलाए जाने वाले झूठों के उलट, अफजल गुरु ’13 दिसंबर, 2001 को संसद भवन पर हमला करने वाले लोगों में नहीं थे और न ही वे उन लोगों में से थे जिन्होंने ‘सुरक्षाकर्मी पर गोली चलाई और मारे गए छह सुरक्षाकर्मियों में तीन का कत्ल किया।’ (यह बात भाजपा के राज्यसभा सांसद चंदन मित्रा ने 7 अक्तूबर, 2006 को ‘‘द पायनियर’’ में लिखी थी)। यहां तक कि पुलिस का आरोप पत्र भी उनको इसका आरोपी नहीं बताता है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कहता है कि ‘‘सबूत परिस्थितिजन्य है, ‘अधिकतर साजिशों की तरह, आपराधिक साजिश के समकक्ष सबूत नहीं है और न हो सकता है।’’ लेकिन उसने आगे कहा, ‘‘हमला, जिसका नतीजा भारी नुकसान रहा और जिसने संपूर्ण राष्ट्र को हिला कर रख दिया, और समाज की सामूहिक चेतना केवल तभी संतुष्ट हो सकती है जबकि आरोपी को फांसी की सजा दी जाये’’। सिर्फ अफजल के मामले में ही समाज की सामूहिक चेतना का ख्याल रखा गया। गुजरात आतंकवाद, अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस धमाके करने वाले देश के असली आतंकियों के मामले में समाज की सामूहिक चेतना को नजर अंदाज किया गया और आजतक बादस्तूर किया जा रहा है।
अब सवाल यह उठता है कि ‘‘संसद हमले के मामले में हमारी सामूहिक चेतना का किसने निर्माण किया? क्या ये वे तथ्य होते हैं, जिन्हें हम अखबारों से हासिल करते हैं? फिल्में, जिन्हें हम टीवी पर देखते हैं?
वे लोग जिनकी चेतना को खुश करने के लिए ही अफजल को फांसी पर झुलाया गया, वे जरूर यह दलील देंगे कि ठीक यही तथ्य, कि अदालत ने एस.ए.आर. गीलानी को छोड़ दिया और अफजल को दोषी ठहराया, यह साबित करता है कि सुनवाई मुक्त और निष्पक्ष थी। तो थी क्या?
फास्ट-ट्रेक कोर्ट में मई, 2002 में सुनवाई शुरू हुई। दुनिया 9/11 के बाद के उन्माद में थी। अमेरिकी सरकार अफगानिस्तान में अपने ‘आतंक’ पर टकटकी बांधे थी। गुजरात का आतंकवाद चल रहा था। एक आपराधिक मामले के सबसे अहम चरण में, जब सबूत पेश किए जाते हैं, जब गवाहों से सवाल-जवाब किए जाते हैं, जब दलीलों की बुनियाद रखी जाती है-उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में आप केवल कानून के नुक्तों पर बहस कर सकते हैं, आप नए सबूत नहीं पेश कर सकते-अफजल गुरु भारी सुरक्षा वाली कालकोठरी में बंद थे। उनके पास कोई वकील नहीं था। अदालत द्वारा नियुक्त जूनियर वकील एक बार भी जेल में अपने मुवक्किल से नहीं मिला, उसने अफजल के बचाव में एक भी गवाह को नहीं बुलाया और न ही अभियोग पक्ष द्वारा पेश किए गए गवाहों का क्रास-एक्जामिनेशन किया। जज ने इस स्थिति के बारे कुछ कर पाने में अपनी अक्षमता जाहिर की।
शुरुआत से ही, केस अपनी मंजिल बताने लगा। अनेक मिसालों में से कुछेक यों हैंः-
1-पुलिस अफजल तक कैसे पहुंची? पुलिस का कहना है कि एस.ए.आर. गीलानी ने उनके बारे में बताया। लेकिन अदालत के रिकार्ड दिखाते हैं कि अफजल की गिरफ्तारी का संदेश गीलानी को उठाए जाने से पहले ही आ गया था। यानी अभियोजन पक्ष सिरे से ही झूठा साबित हुआ। उच्च न्यायालय ने इस अहम बिन्दू को ‘भौतिक विरोधाभास’ कहकर टाल दिया और इसे यों ही कायम रहने दिया। क्या यह अजीब नहीं था ?
2-अफजल के खिलाफ सबसे ज्यादा आरोप लगाने वाले दो सबूत एक सेलफोन और एक लैपटॉप था, जिसे उनकी गिरफ्तारी के वक्त जब्त किया गया। अरेस्ट मेमो पर दिल्ली के बिस्मिल्लाह के दस्तखत हैं जो गीलानी के भाई हैं। 
3-सीजर मेमो पर जम्मू-कश्मीर पुलिस के दो कर्मियों के दस्तखत हैं, जिनमें से एक (गुजरात आतंक का गुलाम) अफजल के उन दिनों का उत्पीड़क था, (कानूनन जनता में से दो लोगों की गवाही कराई जाना चाहिये) जब वे एक आत्मसमर्पण किए हुए ‘चरमपंथी’ हुआ करते थे। 
4-कंप्यूटर और सेलफोन को सील नहीं किया गया, जैसा कि एक सबूत के मामले में किया जाता है। सुनवाई के दौरान यह सामने आया कि लैपटाप के हार्डडिस्क को गिरफ्तारी के बाद उपयोग में लाया गया था। इसमें गृह मंत्रालय के फर्जी पास और फर्जी पहचान पत्र होना बताये गये, जिसे आतंकवादियों ने संसद में घुसने के लिए इस्तेमाल किया था। और संसद भवन का एक जीटीवी वीडियो क्लिप। इस तरह पुलिस के मुताबिक, अफजल ने सभी सूचनाएं डीलीट कर दी थीं, यानी कि बस सबसे ज्यादा दोषी ठहराने वाली चीजें रहने दी थीं। जिनको आरोप पत्र में चीफ आफ आपरेशन कहा गया है।
5-अभियोग पक्ष के एक गवाह कमल किशोर ने अफजल की पहचान की और अदालत को बताया कि 4 दिसंबर 2001 को उसने वह महत्वपूर्ण सिम कार्ड अफजल को बेचा था, जिससे मामले के सभी अभियुक्त के संपर्क में थे। लेकिन अभियोग पक्ष के अपने काल रिकार्ड दिखाते हैं कि सिम 6 नवंबर 2001 से काम कर रहा था। इस भाड़े के गवाह के खिलाफ अदालत ने कोई कार्यवाही नही की जबकि उसकी गवाही पुलिस अपने काल रिकार्ड ने ही झूठी साबित करदी थी। याद दिलादें कि कमल से अफजल की शिनाख्त नहीं कराई गयी बल्कि पुलिस अफजल को उसकी दुकान पर लेकर पहुंची और कहा कि ‘‘यह अफजल है संसद पर हमला करने वाला।’’
6-पुलिस के इस गवाह के मुताबिक उसने सिम अफजल को 4 दिसम्बर 2001 को बेचा और पुलिस रिकार्ड में सिम 6 नवम्बर 2001 से ही काम कर रहा था। तो 6 नवम्बर 2001 से इस सिम का इस्तेमाल करके अभियुक्तो के सम्पर्क में कौन था ? गवाह कमल किशोर या फिर पुलिस।
ऐसी ही और भी बातें हैं, और भी बातें, झूठों के अंबार और मनगढ़ंत सबूत। अदालत ने उन पर गौर किया, लेकिन शायद अदालतें शहीद हेमन्त करकरे जैसा हश्र होने से खौफज़दा थीं इसलिए अफजल के खिलाफ कोई मजबूत सबूत न मिलने पर भी अफजल को मौत की नीन्द सुलाना उनकी मजबूरी थी, अतः वो ही करती गयी जो अभियोजन चाहता गया। अफजल गुरू को अपनी सफाई में कुछ कहने का मोका नपहीं दिया, सम्भवतः सबको खौफ था कि अगर अफजल को उनका पक्ष रखने का मौका दिया गया तो यकीनन वे सच्चाई खोल देगों ओर .....फिर असल आतंकियों को बचा पाना नामुमकिन हो जायेगा। क्या निष्पक्ष न्यायप्रक्रिया का यही असल रूप है अगर इतिहास को देखें तो पता चलता है कि इस तरह की न्याय प्रक्रिया तो ब्रिटिशों ने भी नहीं अपनाई थी अगर ब्रिटिश इसी तरह की न्याय प्रक्रिया अपनाते तो शायद गांधी जी सरीखे सैकड़ों भारतीयों को रोज फांसी पर झुलाते। इतिहास तो बताता है कि गांधी जी समेत कई लोग कई बार ब्रिटिश अदालतों से बरी किये गये थे।
खैर अब इन बातों से क्या फायदा, कानून और अदालतों ने कांग्रेसी सरकार और उसके आकाओं को खुश कर ही दिया कोई ठोस सबूत न होते हुए भी अफजल को फांसी पर लटकाकर। शायद अदालतें शहीद हेमन्त करकरे के हश्र से खौफज़दा थीं, मतलब यहकि हमेशा से ही हर धमाके के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराकर सरेआम कत्ल करने या जेल में डालकर अमानवीय प्रताड़ना देने का प्रावधान ध्र्मनिर्पेक्षता के लबादे में छिपे धर्म आधरित संविधान में बनाया गया है इसी प्रावधान के तहत दरगाह अजमेर, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस में किये गये धमाकों का जिम्मेदार भी दर्जनों मेस्लिम नौजवानों को बनाया गया जिनमें अभी भी कुछेक जेलों में सड़ाये जा रहे हैं भला हो ईमानदारी के प्रतीक हेमन्त करकरे का जिन्होंने असली आतंकियों को बेनकाब कर दिया हांलाकि उन्हें उनकी ईमानदारी की सज़ा इन आतंकियों ने बहुत जल्दी ही देदी। शायद यही डर सबको सता रहा था और सब वो ही करते गये जो आतंकी असीमानन्द, प्रज्ञा ठाकुर गैंग के लोग चाह रहे थे।
अब इन बातो से क्या फर्क पड़ता है अफजल को आरएसएस लाबी और उसकी पालतू मीडिया धड़ों को चेतना सन्तुष्ट करने के लिए मौत दे ही दी गयी। नहीं रहा वो शख्सए हमें उम्मीद है कि खुद और अपने गुर्गों को बचाने के लिए अफजल को मरवाने के लिए दबाव बनाये रही लाबी की खूनी प्यास बुझ गयी होगी या अभी बाकी है, लगता तो ऐसा ही है। 13 दिसम्बर 201 को संसद पर हमला किसने और क्यों करवाया ? इस सवाल को आजतक किसी (न ही सामूहिक चेतना वालों ने और न ही अदालतों ने) ने भी खोजने या जानने कोशिश की, न ही इस हमले के उद्देश्य का कोई ठोस सबूत ही मिल पाया, बस अफजल को फांसी पर झुला दिया गया। संसद पर हमला कराने वालों के और उनके उद्देश्य के बारे में जानने से बचने के लिए ही शायद अफजल को सफाई देने का मौका नहीं दिया गया, बस अदालतें वह करती गयीं जो अभियोजन पक्ष और कथित मीडिया धड़े चाहते थे। दुनिया का यह एक इकलौता मुकदमा था जिसमें आरोपी के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिला, सिर्फ अभियोजन की कहानी को ही सच मान लिया गया और उसे फांसी देदी गयी। अफजल को फांसी की खबर सुनकर दुनिया भर के इंसाफ पसन्द और अमन पसन्द लोगों के अलावा लोग बड़े ही खुश दिखाई दिये। तरह तरह की चर्चायें, और केन्द्र सरकार की तारीफें भी होने लगीं। कहीं भी किसी के मन में भी यह सवाल नहीं उठा कि ‘‘क्या वास्तव में अफजल गुरू संसद हमले के दोषी थे। क्या यह कृत्य देश की सुरक्षा एजेंसिंयों की नाकामी को ढकने की कोशिश तो नहीं था। इस मामले में प्रोफेसर गिलानी बड़े ही खुश नसीब निकले, अगर देश भर के इंसाफ पसन्द बुद्धिजीवियों ने गिलानी की गिरफ्तारी का विरोध नहीं किया होता तो उन्हें भी इसी तरह ठिकाने लगा दिया गया होता हालांकि आरएसएस लाबी द्वारा पोषित मीडिया धड़ों ने तो पूरा जोर लगाया था कि गिलानी न बच सकें। गौर कीजिये कि वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने गिलानी का मुकददमा लड़ने का इरादा क्यों किया, बजरंगदल और शिवसेना ने उनके बम्बई स्थित दफ्तर पर पथराव किया फिर भाजपा ने जेठमलानी को राज्यसभा का सदस्य क्यों बना लिया ? हो सकता पर हमला उन्हीं आतंकियों ने कराया हो जिन्होंने दरगाह अजमेर, मक्का मस्जिद, मालेगांव, और समझौता एक्सप्रेस पर हमले किये या कराये थे ? हो सकता है कि इसके पीछे उन्हीं दलों का हाथ हो जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की पूजा करते हैं उसकी किताब ‘‘गांधी वध’’ को धर्मग्रन्थ के बराबर सम्मान देते हैं उसका प्रचार प्रसार करते हैं।
अफजल के दोस्तों का कहना है कि वे खूनखराबे के खिलाफ रहते थे वे ऐसा काम कर ही नहीं सकते। यह तो सच है कि अफजल 1990 में कश्मीर में भारतीय सेना द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कारों के खिलाफ आवाज उठायी थी सबही जानते हैं कि अफजल शिक्षित थे वे इसीलिए आईएएस की तैयारी कर रहे हो ताकि वह 1990 में सेना के उन जवानों को कानूनी सजा दिला सके जिन्होंने कश्मीरी महिलाओं का सामूहक बलात्कार किया था। सवाल यह पैदा होता है कि ‘‘क्या संविधान की धर्मनिर्पेक्षता का मतलब, सेना के जवानों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार के खिलाफ कानून को जगाने वाले को आतंकी करार देकर ठिकाने लगाना है ? यह सवाल शायद ही किसी के दिमाग में खटक रहा हो क्योंकि कथित मीडिया ने तो हमले के अगले ही पल आतंकी घोषित कर दिया था। आम आदमी को तो मीडिया ने भ्रमित कर दिया था लेकिन क्या आईबी ने इस सच्चाई को जानने की कोशिश की कि ‘‘आखिर इस हमले के पीछे किसका हाथ था और उसका उददेश्य क्या था ?’’ हो सकता है कि इस हमले के पीछे उन्हीं का हाथ हो जो अफज़ल की फांसी की मांग जोर शोर से कर रहे थे या उनका कारनामा हो जिन्होंने अफजल को कोई ठोस सबूत न मिलने के बावजूद आतंकी प्रचारित किया हो, या फिर वे भी हो सकते हैं जिन्होंने अफजल को उसकी सफाई में कुछ बोलने ही नही दिया या फिर वे जो अफजल के मारे जाने पर ही सजा से बचे हों। यानी ‘‘जो छिंदला वही डोली के संग रहा हो’’। और अगर मान भी लिया जाये कि अफजल गुरू आतंकवादी था तब भी यह जानना जरूरी है कि ‘‘उसका एक माज़ी (भूतकाल) रहा होगा, यह तो सभी जानते हैं कि 1990 में सेना के जवानों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार के बाद वे चरमपंथियों’’ में शामिल हो गये थे आरएसएस पोषित टीवी चैनलों व अखबारों ने चीख चीखकर सुर्खियों उन्हें आतंकीवादी घोषित कर दिया था। लेकिन 1990 में सेना के जवानों द्वारा कश्मीरी महिलाओं के साथ किये गये बलात्कार से पहले तो वे एक सीधे साधे पढ़े लिखे मेहनतकश इंसान थे। अफजल को तो सजा देदी गई कितनी सही दी गई यह तो खुदा जानता होगा या अफजल या फिर वे लोग ही जानते होंगे जिन्होंने अफजल को फांसी के फंदे पर झुलाया’’। हम यह भी नहीं कहते कि अभियोजन (केन्द्र और दिल्ली की कांग्रेसी सरकार) ने अपनी मर्जी से ही अफजल के खिलाफ जाल बुना था, और अदालतों उसे नजर अंदाज किया। हो सकता है कि अफसरान शहीद हेमन्त करकरे जैसा अपना हाल होने से खौफज़दा हों क्योंकि हेमन्त करकरे ने ईमानदारी से असल आतंकियों को सामने लाकर खड़ा कर दिया उसकी सज़ा उन्हें मौत की नीन्द सुलाकर दी गयी। याद दिलादें कि आईबी, एटीएस ने देश भर में हुए सभी धमाकों के लिए सीधे सीधे बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को जिम्मेदार मानकर मार गिराया या जेलों में डालकर प्रताडि़त किया, यहां तककि अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस में किये गये हमलों के मामलों में भी। बेगुनाह फंसाये जाने के बावजूद किसी ने भी जवाबी कार्यवाही नहीं की कोई जांच अधिकारी नही मारा गया। लेकिन जब ईमानदार शहीद हेमन्त करकरे ने देश भर में धमाके करने वाले असल .....आतंकियों को बेनकाब करके जेल पहुंचाया तो उनकी ही हत्या करदी गयी और इल्ज़ाम थुप गया अजमल कस्साब पर। बम्बई हमले के समय मौके करा फायदा उठाते हुए आतंकियो ने हेमन्त करकरे की हत्या कर दी क्योंकि ये आतंकी जानते थे कि इसका आरोप सीधे सीधे बम्बई हमलावरों पर ही होगा। अफजल को मौत की सजा देदी गई वो कितनी सही थी या कितनी गलत यह तो खुदा और अफजल ही जानते होंगे या फिर मौत देने वाले। सवाल यह है कि फांसी की सज़ा सिर्फ अफजल के लिए ही कयों ? सेना के उन जवानों के लिए कयों नहीं जिनके अत्याचार ने अफजल को आहत करके चरमपंथी बनाया, पीएसी के उन जवानों के लिए क्यों नहीं जिन्होंने 1980 में मुरादाबाद में नरंसहार व बलात्कार किये ओर 1987 में मेरठ में नरसंहार किया, उन आतंकियों के लिए क्यों नहीं जिन्होने गुजरात में तीन हजार से ज्यादा बेगुनाहों का कत्लेआम किया, मक्का मस्जिद, मालेगांव, दरगाह अजमेर, समझौता एक्सप्रेस को उड़ाने की कोशिशें करने वाले आतंकियों के लिए क्यों नहीं ? इस तही के सैकड़ो सवाल दुनिया भर के अमन पसन्दों और इंसाफ पसन्दों के दिमाग़ों में उठते होंगे, लेकिन अफजल की मौत की तमन्ना और अब जश्न मनाने वालों की तादाद बहुत ज्यादा होने की वजह से या अपने ऊपर आतंकी होने या किसी संगठन का सदस्य होने का ठप्पा लगा दिये जाने के खौफ़ से जुबानें बन्द रखना उनकी मजबूरी है।
अफजल को भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सज़ा दी। लेकिन तआज्जुब की बात यह है कि इसी सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह माना था कि ‘‘लगभग 14 ऐसे मामले हैं जिनमें आरोपियों को फांसी की सज़ा गलत सुना दी गयी। 14 अहम जजों के मण्डल ने राष्ट्रपति को बाकायदा चिटठी लिखकर अपील की थी कि ‘‘इन फैसलों को उम्र कैद में बदल दिया जाये।’’
अफजल के मामले में ऐसी कोई अपील नहीं हुई हालांकि उसके मामले की असंगतियां सबसे प्रखरता से दिखती रहीं। अदालतों ने भी माना कि ‘‘पुलिस ने मामले की ठीक से जांच नहीं की।’’ इंदिरा जयसिंह और नंदिता हक्सर जैसी वकीलों ने कहा कि ‘‘अगर अफजल को कायदे का वकील मिल गया होता तो उसे फांसी नहीं होती।’’ उसे वकील तक नहीं मिला क्योंकि वकीलों ने खुद को ही अदालत और जज समझ रखा था और मामले की हकीकत जाने बिना ही तय कर लिया था कि संसद पर हमले के आरोपितों को वे कोई कानूनी मदद नहीं देंगे। दोषी साबित होने पर मदद न करने का फैसला तो समझ में आता है लेकिन सिर्फ आरोप लगाने भर पर ही इस तरह की बात वकील के पेशे को ही कलंकित करती है। शायद देश भर के वकील भी शहीद हेमन्त करकरे के हश्र से डरे हुए थे। एक तरह से यह पुलिस के लिए सुनहरा मौका था कि वह जिसे चाहती उसे संसद भवन का आरोपित बना डालती और बनाया भी। इन सबके बावजूद सोनिया रिमोट से चलने वाली और गुजरात में बेगुनाहों के कत्लेआम से खुश होकर मास्टर माइण्ड को सम्मान व पुरूस्कार देने वाली आरएसएस की एजेण्ट केन्द्र की कांग्रेस बाहुल्य मनमोहन सिंह सरकार ने राष्ट्रपति को यही सलाह दी कि वे अफजल माफी याचिका खारिज कर दें, कांग्रेस बाहुल्य सरकार की यह सलाह जब लम्बे समय तक लटकी रही तो कांग्रेस ने इस बार राष्ट्रपति चुनाव में अपनी चाल कामयाब करके अफजल की मौत की नीन्द सुलाने के अपने इरादे को कामयाबी की मंजिल तक पहुंचा दिया। जाहिर है, अफजल को सजा किसी जुर्म की नहीं मिली, बल्कि अुजल को सजा उसकी पहचान की मिली जो उस पर आरएसएस एजेण्टों द्वारा थोप दी गई यानी एक आतंकवादी की पहचान, जिसने देश की संप्रभुता पर हमला किया। यह पहचान उस पर चिपकाना इसलिए भी आसान हो गया कि वह मुसलमान था, कश्मीरी था और ऐसा भटका हुआ नौजवान था जिसने आत्मसमर्पण किया था। अगर बात सिर्फ और सिर्फ आतंकवादी होने की ही होती तो फिर गुजरात आतंक, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस ब्लास्टों के मामलों में भी बहुत पहले ही फांसियां दी जा चुकी होती। लेकिन यहां तो फांसी की जगह सम्मान पुरूस्कार के साथ अभयदान भी जारी है।
अगर बात सिर्फ आतंकियों को सज़ा देने की ही होती तो असीमानन्द, प्रज्ञा ठाकुर, समेत अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस और गुजरात आतंक के कर्ताधर्ताओं को कभी की सी दी जा चुकी होती लेकिन अफजल को फांसी संसद हमले की नहीं दी गयी बल्कि उनको फांसी उनकी पहचान यानी मुसलमान ओर कश्मीरी होने की दी गयी। अब अगर कोई भी यह कहे कि ‘‘अफजल को मौत सिर्फ संसद हमले की ही दी गयी है तो थ्र वह यह भी बताये कि ‘‘अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस और गुजरात आतंक के हीरो को कितने दिन के अन्दर दे दी जायेगी फांसी।

संदर्भ के लिए देखें-

1. संसद के हमले और उसके बाद की अदालती कार्रवाई के लिए देखें, नन्दिता हक्सर, फ्रेमिंग गिलानी, हैंगिंग अफजल-पेट्रिआटिजम इन द नेम आफ टेरर ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2007 )या प्रफुल्ल बिदवई, 13 डिसेम्बर-ए रीडर- द स्ट्रेंज केस आफ दी अटैक आन दी इंडियन पार्लियामेंट (नयी दिल्ली-पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2006 )य सैयद बिस्मिल्लाह गिलानी, मैन्युफैक्चरिंग टेरिज्म- कश्मीरी एनकाउंटर्स विद मीडिया एंड द ला (नई दिल्ली, प्रॉमिला, 2006 ), निर्मलांशु मुखर्जी, डिसेम्बर 13 रू टेरर ओवर डेमोक्रेसी ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2005 )य पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स, बैलेंसिंग एक्ट-हाई कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 डिसेम्बर, 2001 केस (नयी दिल्ली -19 दिसम्बर, 2003, पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स, ट्रायल ऑफ एरर्स-ए क्रिटिक आफ द पोटा कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 दिसम्बर केस (नई दिल्ली, 15 फरवरी, 2003)।
2. न्यायाधीश एस.एन. ढींगरा, विशेष पोटा अदालत का फैसला, मोहम्मद अफजल बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र), 16 दिसम्बर, 2002।
3. गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का बयान, 18 दिसम्बर, 2001 । पाठ भारतीय दूतावास (वाशिंगटन) की बेबसाइट पर उपलब्ध है-http://www-indianembassy-org/new/parliament_doc_12_01-html (29 मार्च, 2009 को देखा गया) (अब यह उपलब्ध नहीं है)।
4. देखें, सूजन मिलिगन, ‘डिस्पाइट डिप्लोमेसी, कश्मीर ट्रूप्स ब्रोस’, बास्टन ग्लोब, 20 जनवरी, 2002,।1-फराह स्टॉकमैन एंड ऐंटनी शदीद, ‘सेक्शन फ्यूएलिंग आयर बिटवीन इंडिया एंड पाकिस्तान’, बास्टन ग्लोब, 28 दिसम्बर, 2001, पृ.। 3-जाहिद हुसैन, ‘टिट फार टैट बैन्स रेज टेन्शन आन कश्मीर’, द टाइम्स (लंदन), 28 दिसम्बर, 2001, और गुलाम हसनैन और निकोलस रफर्ड, ‘पाकिस्तान रेजेज कश्मीर न्यूक्लियर स्टेक्स’, संडे टाइम्स (लंदन), 30 दिसम्बर, 2001।
5. ढींगरा, विशेष पोटा कोर्ट का फैसला।
6. देखें, सोमिनी सेनगुप्ता, ‘इंडियन ओपिनियन स्प्लिट्स आन काल फार एक्सीक्यूशन’, इंटरनेशनल हेरल्ड ट्रिब्यून,     9 अक्टूबर, 2006, और सोमिनी सेनगुप्ता और हरी कुमार, ‘डेथ सेंटेस इन टेरर अटैक पुट्स इंडिया आन ट्रायल’, न्यूयार्क टाइम्स, 10 अक्टूबर, 2006, पृ.-3 ।
7. ‘आडवाणी क्रिटिसाइज्ड डिले इन अफजल एक्जुक्यूशन’, द हिंदू, 13 नवम्बर, 2006।
8. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक संस्थापक मकबूल बट्ट को 11 फरवरी, 1984 को दिल्ली में फांसी दी गयी। देखें, ‘इंडिया हैंग्स कश्मीरी फार स्लेयिंग बैंकर’, न्यूयार्क टाइम्स, 12 फरवरी, 1984, सेक्शन 1, पृ- 7। मकबूल बट्ट के बारे में विवरण इंटरनेट पर उपलब्ध है -http://www-maqboolbutt-com vkSj http://www-geocities-com/jklf&kashmir/maqboolstory-html (29 मार्च, 2009 को देखा गया) ( अब यह साइट बंद हो गई है)।
9. लक्ष्मी बालकृष्णन, ‘रीलिविंग अ नाइटमेयर’, द हिंदू, 12 दिसम्बर, 2002, पृ. 2 । बिदवई तथा अन्य, 13 दिसम्बर ‘ए रीडर’ में शुद्धब्रत सेनगुप्ता, ‘मीडिया ट्रायल एंड कोर्टरूम ट्रिब्युलेशन्स’, इन बिदवई, पृ. 46 भी देखें।
10. प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया, ‘एस सी (सुप्रीम कोर्ट) अलाउज जी (टीवी ) टू एयर फिल्म आन पार्लियामेंट अटैक’, प्दकपंपदवि.बवउ, 13 दिसम्बर, 2002 ।
11. ‘फाइव बुलेट्स हिट गिलानी, सेज फॉरेंसिक रिपोर्ट’, हिंदुस्तान टाइम्स, 25 फरवरी, 2005 ।
12. देखें, ‘पुलिस फोर्स’, इंडियन एक्सप्रेस, 15 जुलाई, 2002य ‘एडिटर्स गिल्ड सीक्स फेयर ट्रायल फार इफतेखार’, इडियन एक्सप्रेस, 20 जून, 2002, ‘कश्मीर टाइम स्टेफर्स डिटेंशन इश्यू रेज्ड इन लोकसभा’, बिजनेस रिकार्डर, 4 अगस्त, 2002 ।
13. इफ्ेतखार गिलानी, ‘माई डेज इन प्रिजन’ ( नयी दिल्ली रू पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2005 )। 2008 में इस किताब के उर्दू अनुवाद को साहित्य अकादमी से भारत का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार मिला।-http://www-indiane-press-com/news/iftikhar&gilani&wins&sahitya&akademi&award/424871  ।
14. दूरदर्शन ( नई दिल्ली ), ‘कोर्ट रीलीजेज कश्मीर टाइम्स जर्नलिस्ट फ्राम डिटेंशन’, बीबीसी मानिटरिंग साउथ एशिया, 13 जनवरी, 2003 ।
15. स्टेटमेंट आफ सैयद अब्दुल रहमान गिलानी, नयी दिल्ली, 4 अगस्त, 2005 । इंटरनेट पर उपलब्ध-http://www-revolutionarydemocracy-org/parl/geelanistate-htm ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया )। बशरत पीर, ‘विक्टिम्स आफ डिसेम्बर 13, द गार्डियन, (लंदन), 5 जुलाई, 2003, पृ. 29 ।
प्रस्तुति-रवि कुमार
(यह आलेख अरुंधति राय के लेखों के संग्रह, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और नीलाभ द्वारा संपादित पुस्तक “कठघरे में लोकतंत्र” से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है. यह अंग्रेजी की मूलकृतिListening of Grasshopper से अनूदित है. यह लेख सबसे पहले ३० अक्तूबर, २००६ को ‘आउटलुक’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. )
16. ‘स्पेशल सेल एसीपी फेसेज चार्जेज आफ एक्सेसेज, टार्चर’, हिंदुस्तान टाइम्स, 31 जुलाई, 2005। सिंह की बाद में (मार्च, 2008 में) - एक विवाद में जो व्यापक रूप से विश्वास किया जाता है कि अपराधियों की दुनिया और जमीन-जायदाद से संबंधित था - हत्या कर दी गयी। देखें, प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया, ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट राजबीर सिंह शाट डेड’, हिंदुस्तान टाइम्स, 25 मार्च, 2008 ।
17. देखें लेख, ‘टेरेरिस्ट्स वर क्लोज-निट रिलिजियस फेनैटिक्स’ और ‘पुलिस इम्प्रेस विद स्पीड बट शो लिटल एविडेंस’, टाइम्स ऑफ इंडिया, 21 दिसम्बर, 2001 । इंटरनेट पर उपलब्ध - ीhttp://timesofindia-indiatimes-com/articleshow/1600576183-cms और  http://timesofindia-indiatimes-com/articleshow/1295243790-cms ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया )।
18. एमिली वैक्स और रमा लक्ष्मी, ‘इंडियन आफिशयल पाइंट्स टू पाकिस्तान’, वाशिंगटन पोस्ट, 6 दिसम्बर, 2008, पृ. ।8 ।
19. मुखर्जी, 13 दिसम्बर, पृ. 43 ।
20. श्री एस.एन. ढींगरा की अदालत में आपराधिक मामलों की धारा 313 के तहत मोहम्मद अफजल का बयान, एएसजे, नयी दिल्ली, राज्य बनाम अफजल गुरू और अन्य, एफआईआर 417ध्01 सितम्बर, 2002 । इंटरनेट पर उपलब्ध-http://www-outlookindia-com/article-aspÛ\232880 vkSj http://www-revolutionarydemocracy-org/afzal/azfal6-htm ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया )।
21. एजाज हुसैन, ‘किलर्स इन खाकी’, इंडिया टुडे, 11 जून, 2007 । ‘पीयूडीआर पिक्स सेवरल होल्स इन पुलिस वर्जन आन प्रगति मैदान एनकाउंटर’, द हिंदू, 3 मई, 2005, और पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स, एन अनफेयर वरडिक्ट - ए क्रिटिक आफ स रेड फोर्ट जजमेंट ( नयी दिल्ली, 22 दिसम्बर, 2006 )  और क्लोज एनकाउंटर रू ए रिपोर्ट आन पुलिस शूट-आउट्स इन डेल्ही ( नयी दिल्ली, 21 अक्टूबर, 2004 ) भी देखें।
22. देखें, ‘ए न्यू काइंड आफ वार’, एशिया वीक, 7 अप्रेल, 2000, और रणजीत देव राज, ‘टफ टाक कंटीन्यूज डिस्पाइट पीस डिमांड्स’, इंटर प्रेस सर्विस, 19 अप्रेल, 2000 ।
23. देखें, ‘फाइव किल्ड आफ्टर छत्तीसिंहपुरा मैसेकर वर सिवियन्स’, प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया, 16 जुलाई, 2002 और ‘ज्यूडिशियल प्रोब आर्डर्ड इनटू छत्तीसिंहपुरा सिख मैसेकर’, 23 अक्टूबर, 2000 ।
24. पब्लिक कमिशन आन हयूमन राइट्स, श्रीनगर, 2006, ‘स्टेट आफ ह्यूमन राइट्स इन जम्मू एंड कश्मीर 1990-2005श्, पृ. 21 ।
25. ‘प्रोब इनटू अलेज्ड फेक किलिंग आर्डर्ड’, डेली एक्सेल्सियर ( जनिपुरा ), 14 दिसम्बर, 2006 ।
26. एम.एल.काक, ‘आर्मी क्वायट आन फेक सरेंडर बाई अल्ट्राज’, द ट्रिब्यून ( चंडीगढ़ ), 14 दिसम्बर, 2006 ।
प्रस्तुति - रवि कुमार
27. ‘स्टार्म ओवर अ सेंटेस’, द स्टेट्समेन ( इंडिया ), 12 फरवरी, 2003 ।
28. जो विश्लेषण आगे दिया जा रहा है वह भारत के सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली उच्च न्यायालय और पोटा विशेष अदालत के फैसलों पर आधारित है।
29. मुखर्जी, डिसेम्बर 13 । पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स, ट्रायल आफ एरर्स एंड बेलेंसिंग एक्ट।
30. ‘ऐज मर्सी पेटिशन लाइज विद कलाम, तिहार बाइज रोप फार अफजल हैंगिंग’, इंडियन एक्सप्रेस, 16 अक्टूबर, 2006 ।
( यह आलेख अरुंधति रॉय के लेखों के संग्रह, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और नीलाभ द्वारा संपादित पुस्तक “कठघरे में लोकतंत्र” से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है. यह अंग्रेजी की मूलकृति Listening of Grasshopper से अनूदित है. यह लेख सबसे पहले ३० अक्घ्तूबर, २००६ को ‘आउटलुक’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. ) 

Friday 8 February 2013

मुल्लाओं की करतूतें-गलती किसकी


इमरान नियाज़ी
हर रोज एक नये मुल्ला द्वारा बलात्कार, अय्याशी, लड़की के साथ भागने, यहां तककि किशोरों तक के साथ अप्राकृतिक कुकर्म किये जाने के मामले सामने आते हैं। दो चार फीसदी ही मामले पुलिस और मीडिया के कानों तक आ पाते हैं बाकी के मामलों को पीडि़तों के परिवार वाले बदनामी के डर से दबा लेते है तो कुछ मामलों को मुल्लाओं की बदनामी न करने की जाहिलाना सोच का दबाव बनाकर आस पड़ोस के लोग दबा देते हैं। क्यों ? क्यों नहीं सजा मिलने देते इन गुण्डों को। सबसे पहला सवाल तो यह है कि आखिर मस्जिदों में इमामत के लिए इन नौजवानों को रखा ही क्यों जाता है, क्या मोहल्लों में इस काबिल कोई नहीं रहा ? क्या मोहल्लों में उम्रदराज़ नमाजी र्कुआन के पढ़ने वाले नहीं रहे जो इन लड़कों को रखा जाने लगा है ? जबकि शरीयत ने तो इमामत के लिए सबसे पहली ओर अफजल सिफत उम्रदराजी (ज्यादा उम्र) बताई है तो फिर नई उम्र के इन लड़कों को इमामत के क्यों रखा जा रहा है। अगर बात आलिमे दीन की है तो ये छोरे तो मुकम्मल र्कुआन भी पढ़े हुए नहीं होते यहां पढ़ने के लिए आते हैं, फिर क्यों इन्हें इमामत पर खड़ा किया जा रहा है। दूसरी बात शरियत ने र्कुआन के तलफ्फुज़ (उच्चारण) का सही होने पर ज़ोर दिया है और बंगाल बिहार से आये इन छोरों को सही से बात करना तक नहीं आता तो र्कुआन का तलफ्फुज़ कैसे सही हो सकता है। क्या जरूरी है कि इन लड़को को ही इमामत के लिए रखा जाये, मोहल्ले बस्ती शहर के उम्रदराज़ लोगों से इमामत कराने में कया दिक्कत है। शरीयत ने भी ज्यादा उम्र वाले को ही सबसे ज्यादा अहमियत देने को कहा है। गुजरे साल ही जगतपुर की एक लड़की मुल्ला के साथ भाग गयी जो आजतक वापिस नहीं हुई, मुल्ला को दोस्त आजतक जेल में सड़ रहा है मामला कई रोज तक मीडिया में छाया रहा। प्रशासन के कई रोज़ तक होश उड़े रहे, दूर दूर तक इसी की चर्चायें थीं। लड़की मुल्ला के साथ भाग गयी उसके परिजनों ने अपहरण का मामला बताकर रिपोर्ट करदी पुलिस ने भी आंख मूंदकर अपहरण का मामला दर्ज कर लिया और इसी सोच में डूबकर चार्जशीट भी लगादी, जांच अधिकारी ने मामले की सच्चाई को खोजने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। अभी हाल ही में फिर एक लड़की मुल्ला के पास अय्याशी करती पकड़ी गयी वह भी मस्जिद जैसी पाक जगह में, उसके घर वालों ने जब बेटी को मस्ती की हालत में देखा तो बलात्कार को आरोप लगा दिया पुलिस ने भी बिना सोचे समझे तर्कविहीन तरीके से धारा 376 ठोंक दी। आईपीसी की धारा 376 जि़ना बिल जब्र यानी बल पूर्वक बलात्कार। अगर लड़की के परिजनों ओर पुलिस की मानें तो सवाल यह पैदा होता है कि लड़की कई घर से गायब होकर कई घण्टों तक मुल्ला के पास में रही और उसने शोर नहीं मचाया चीखी चिल्लाई नहीं ? उसकी मां के मुताबिक उसकी बेटी और बेटी की सहेली साथ में निकली थीं। लड़की के परिजनों की मानें तो सोचने का बिन्दू यह है कि दो लड़कियां साथ थीं तो एक को ही पकड़ा गया, अगर दूसरी बचकर भागने में कामयाब हो गयी तो उसने घर वालों को सूचना क्यों नहीं दी, शोर क्यों नहीं मचाया ? इन बिन्दुओं को पुलिस ने भी खोजने की कोशिश नहीं की सीधे सीधे बलात्कार का मामला दर्ज कर दिया, हालांकि डाक्टरी रिपोर्ट के बाद मामला तरमीम कर दिया गया। हमारे कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि मुल्ला दोषी नहीं है वह तो सबसे बड़ा दोषी है क्योंकि अगर लड़की को उसके परिजनों के कहने पर चलते हुए नासमझ मासूम मान लिया जाये तो दोनों मुल्ला तो पढ़े लिखे, ‘‘आलिमे दीन’’ हैं तो उन्हे मस्जिद की हुर्मत अच्छी तरह मालूम है फिर भी इन दोनों ने वह काम किया जिसके करने वाले को शरीयत सज़ाये मौत का हुक्म देती है मतलब शरीयत में जि़नाकार को मौत की सज़ा देने हुक्म दिया गया गया है जिनाकार (बलात्कारी) चाहे औरत हो या मर्द, मतलब यह कि जि़ना को इस्लाम में बहुत ही गलत माना गया है। एक आलिम अगर मस्जिद की हुरमत को पामाल करे तो उसको किसी भी हालत में बख्शा नहीं जाना चाहिये, चूंकि हिन्दोस्तान में इस्लामी कानून नहीं है तो देश के कानून के हिसाब से कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाने की कोशिश की जानी चाहिये। लेकिन यहां तो लोग उसकी पैरवी करके उसे बचाने के लिए प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं। अब बात करते हैं उन लड़कियों की जो पहले जि़ना करती है फिर रगें हाथों पकड़े जाने या किसी के देख लेने पर या फिर बाद में घर वालों के समझाने पर सारा का सारा आरोप लड़कों पर ही मंढ देती हैं। ऐसी लड़कियों को सज़ा दिये जाने की बजाये उन्हें बचाया जाता है उनकी तरफदारी करने का भी फैशन बना हुआ है तरफदारी में भी वे लोग आगे आगे रहते है जो इस्लाम ओर शरीयत के ठेकेदार बने फिरते है बात बात पर दूसरों को शरीयत बताते फिरते हैं आपको याद होगा कि लगभग पांच साल पहले बरेली के फरीदपुर की एक मुस्लिम लड़की एक गैरमुस्लिम लड़के के साथ भाग गयी और गैरमुस्लिम रीति रिवाज से शादी करके नौ दिन बाद वापिस आयी। ऊधर उसके मां बाप ने अपहरण का मामला दर्ज कराकर पुलिस की नींद उड़ादी मामला दो अलग समुदायों से जुड़ा था तो पुलिस के होश गायब थे। उसके वापिस आने पर पुलिस ने दोनों को घेर लिया बालिग थी पुलिस में उसने बयान दर्ज कराये कि अपनी मर्जी से पूरे होशोहवास में गयी थी और शादी भी करली लड़की बालिग होने की वजह से पुलिस भी हाथ पैर समेटने पर मजबूर हो गयी, बस फिर क्या था शरीयत के ठेकेदार जो शरीयत के तहाफ्फुज के नाम पर हर मामले में टांग अड़ाने के शौकीन हैं इस जि़नाकार लड़की की गैर कानूनी हिमायत में खड़े होकर प्रशासन को सताने लगे। हमनें तभी सवाल उठाया था कि यह किस शरीयत का तहाफ्फुज किया जा रहा है ? इस बार भी कुछ ऐसा ही नज़ारा दिखाई पड़ा।
आईये अब बात करें कि आखिर ऐसी कौन सी वजह है कि मस्जिद में इमामत करने के काम पर रखे गये शख्स मोहल्ले की एक न एक लड़की को फांस लेते है, कुछेक लेकर फरार हो जाते हैं तो कुछ जबतक रहते हैं तबतक मौजमस्ती, अय्याशियां करते हैं, कैसे मिल जाता है उनको इतने मौके ? क्या ये मुल्ला अपनी मर्जी से जबरदस्ती मोहल्लों की लड़कियों से इतना घुल मिल जाते है कि लड़कियां उनपर अपनी आबरू तक लुटा देती हैं, या फिर हम खुद ही जिम्मेदार हैं इन सब हालात के लिए ? इसका सही जवाब खोजना बहुत ज़रूरी हो गया है अगर अभी भी इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश नहीं की गयी तो वह दिन दूर नहीं जो अमरीका व गुजरात आतंक के एजेण्ट जो अभी तक इस्लाम को आतंकी मज़हब घोषित करने की कोशिशों में हैं वह दिन दूर नहीं रहेगा जो इस्लाम दुश्मन इस्लाम को अय्याश मज़हब कहना शुरू कर देंगे और अगर ऐसा हुआ तो  ठीक उसी तरह इसके जिम्मेदार भी हम ही होंगे जिस तरह इस्लाम पर किये जा रहे आतंकी हमलों के लिए हैं। हमें यह तलाशना होगा कि ऐसी कौनसी वजह है कि मस्जिदों में जमात इमामत की नौकरी करने आये छोरे उसी मोहल्ले की लड़कियों को फांस कर उनकी आबरूओं से खेलते हैं ? आईये हम बताते हैं इसकी वजहें-हमारी पहली कमी हम खुद शरीयत और आका (सल्ल.) के हुक्मों को पढ़ नहीं सकते, इसके लिए मोहताज ही रहना पड़ता है इसी मोहताजी के चलते हम मस्जिद में पेशइमाम अपने मोहल्ले बस्ती गांव में से किसी उम्रदार व्यक्ति को न रखकर मदरसों में आलिफ-बे-ते..... सीखने की शुरूआत कर रहे लड़कों को रखते हैं जवान लड़के हैं तो उत्सुक्ता होना स्वभाविक है अगर इनकी जगह मस्जिदों में जमात की इमामत करने के लिए अपनी गांव बस्ती के ही किसी उम्रदराज़ को लगाया जाये तो अपने मोहल्ले गांव बस्ती का कोई उम्रदार व्यक्ति होगा तो कुछ तो वह अपनी उम्र को देखते हुए भी ऐसी करतूतों से बचा रहेगा और कुछ मोहल्लेदारी गांव बस्ती का भी ख्याल रखने पर मजबूर होगा। 
दूसरी बात यहकि देखा जाता है कि मस्जिदों में नमाज़ पढ़ाने की नौकरी पर लगाये गये इन छोरांे को आसपास के कुछ लोग अपने घरों में खूब बैठाते हैं, जबकि मोहल्ले पड़ोस का कोई लड़का अगर दरवाजे के सामने खड़ा भी हो जाता है तो लोग यह कहकर लड़ने पर आमादा हो जाते हैं कि हमारे घर का सामना हो रहा है लेकिन मुल्ला जी औरतों के लिहाफ में बैठकर घण्टों तक टीवी देखते हैं तो इसपर एतराज नहीं होता क्यों ? और नतीजा यह होता है कि मुल्ला धीरे धीरे लड़कियों को अपने चुंगल में फंसा लेते है। मस्जिद में नमाज पढ़ाने के काम पर लगाये गये शख्स को मस्जिद तक ही सीमित क्यों नहीं रखा जाता, घरों में क्यों बैठाया जाता है। यह भी बहुत ही अहम वजह है मुल्लाओं द्वारा की जा रही हरकतों के पीछे। हमें अपनी इस गल्ती को सुधारते हुए मस्जिद के लिए रखे गये शख्स को मस्जिद तक ही सीमित तक रखना होगा घरों में हर समय बैठाने से बाज़ आना होगा। ज़रा इस्लाम की तारीख उठाकर पढ़ें तो मालूम होगा कि इस्लाम में गैर मर्दों को घरों (खासतौर पर जनानखानों) में आमतौर पर दाखिल होने की इजाजत ही नहीं दी गयी है वह चाहे नमाज पढ़ाने वाला पेशेइमाम हो या कोई मियां या फिर आसपड़ोस का ही कोई आदमी। तो फिर हम मस्जिदों में नमाज़ पढ़ाने वाले को अपनी औरतों लड़कियों के साथ बेतकल्लुफ होकर बैठने की इजाजत क्यों देते हैं और वो भी तब जबकि हर रोज एक नया केस सामने आ रहा है। हमे अपनी इस कमी को सुधारना चाहिये। साथ ही यह नमाज के पेशे इमाम जैसे जि़म्मेदारी वाले काम के लिए गांव बस्ती के ही किसी बुजुर्ग शख़्स को लगाया जाना चाहिये जोकि शरीयत का हुक्म भी है, मदरसों में र्कुआन पढ़ने के लिए अलिफ़-बे-ते सीखने आने वाले लड़कों को इतनी जिम्मेदारी भरा काम न सौंपा जाये वो भी उनको जो खुद अभी र्कुआन पढ़ना सीख रहे हों, जिनका तलफ्फुज़ भी ठीक न हो ऐसे शख्स वो भी 14 से 26 साल उम्र वाले छोरे इनको नमाज पढ़ाने जैसा अहम काम न दिया जाये ये मुसलमानों की इज्जतों की हिफाजत के लिए तो जरूरी है ही साथ ही शरीयत के हुक्म की तामील करने के अलावा इस्लाम को बेवजह की बदनामी से बचाने के लिए भी जरूरी है। हम यह भी जानते हैं कि हमारी यह बात उन लोगों को बहुत ही चुभेगी जो इन छोरों की बदौलत ही मालामाल हो रहे हैं लेकिन एक न एक दिन सच को तो कबूल करना ही होगा। अगर समय रहते सच्चाई को कबूलकर अपनी गल्ती को नहीं सुधारा गया और नमाज पढ़ाने की इमामत के लिए हुक्मे शरीयत के मुताबिक अपने इलाकों से ही किसी उम्रदराज़ शख्स को लगाना शुरू किया गया तो फिर इस्लाम दुश्मनों के हाथों होने वाली दीन की बदनामी के लिए हम ही पूरी तरह से जिम्मेदार होंगे।