Thursday 8 June 2023

पत्रकार कहलाने या पत्रकार बनकर फिरने और पत्रकार होने में ज़मीन आसमान का फ़र्क होता है - इमरान नियाज़ी





पत्रकार शब्द का अर्थ क्या है ? पत्रकारिता क्या होती है ? किसी पत्रकार कहा या माना जाता है ? क्या कैमरे या माईक आईडी लेकर घूमने वाला हर शख्स पत्रकार होता है ? ऐसे ही कई बड़े सवाल हैं जिनका जवाब शायद कुकुरमुतों की तरह गली गली दिखने वाले मोबाईल मेडेड स्वंयभू पत्रकारों ने सुने तक नहीं होंगे। आईये सबसे पहले बात करते हैं कैमरे और माइक लेकर खबरें कवर करने वालों की। क्या ये पत्रकार हैं ? जी नहीं, ये पत्रकार नहीं बल्कि रिपोर्टर या संवाददाता होते हैं। संवाददाता और पत्रकार में बहुत बड़ा फर्क होता है। आईये एक पत्रकार से आपको मिलवाते हैं। 1973-74 के दौरान उ0प्र0 के मुज़फ्फ़रनगर में ‘‘भ्रष्ट लोगों की दुनिया’’ नाम से एक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित होता था। इसके प्रकाशक ओर सम्पादक थे ‘‘राजपाल सिंह राणा’’, सिर्फ दो पेज का यह अखबार भ्रष्टाचारियों के लिए ही नहीं बल्कि सूबाई और केन्द्र सरकार के सिरों पर मण्डराता एक खतरा था। आदरणीय ‘‘राणा’’ जी मेरे पिता जी के परम मित्र थे। 6 फिट से ज्यादा लम्बी और सुडौल कठकाटी वाले इस शख्स का ऐसा मान सम्मान था कि किसी सांसद मंत्री का नहीं था। राणा जी जिस सरकारी आफिस में क़दम रखते तो उस आफिस में सन्नाटा छा जाता था। क्योंकि वे असल, निष्पक्ष, और ईमानदार पत्रकार थे। हम यह नहीं कह रहे कि आज निष्पक्ष या ईमानदार पत्रकार नहीं हैं। हैं, लेकिन पूरे देश में 10-15 ही होंगे। बाकी तो मेन स्ट्रीम से मोबाइल मेडेड तक पालतू और दलालों की भीड़ ही रह गई है। आज वे पत्रकार बने फिरते मिल रहे हैं जिन्होंने ज़्यादा से ज़्यादा आठवीं या दसवीं तक ही स्कुल देखे, उसके बाद कुछ काम धंधे में लगने की कोशिश की। लेकिन आज के पढ़े लिखे दौर में आठवीं दसवीं तक पढ़ा वह व्यक्ति जिसे हिन्दी तक सही से लिखना या बोलना नहीं आती वह डिजिटल दौर में कुछ कर नही सके, तो सबसे आसान और सस्ते में शुरू हो जाने वाली मीडिया की लाईन पकड़कर घर चलाने में लग जाते हैं। और बड़ी ही दबंगई के साथ खुद को पत्रकार कहने लगते हैं। ऐसा भी नहीं कि ऐसे सब ही महामुनि अपने ही बल पर कूदते हों, बल्कि इनमें बड़ी तादाद पाक्षिक, साप्ताहिक समाचार पत्र चलाने वालों की भी ह,ै जिनके लिए अखबार सिर्फ़ कमाई का ज़रिया भर है, इनके अलावा कुछेक ने दस पन्द्रह हज़ार रूपये खर्च करके वेबसाईटें बनवाकर कमाई शुरू करदी है, और कहलाने लगे ‘‘सम्पादक जी’’, 15 सौ से चार हज़ार रूपये के दामों पर बेचने लगे परिचय पत्र (प्रेस कार्ड)। दरअसल एण्ड्रायड फोन के अविष्कारक ने शायद कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ‘‘वह जो स्मार्ट मोबाइल लोगों को आपस में जुड़े रहने के लिए बना रहा है, वो पत्रकार बनाने की मशीन है। इसी मशीन का कमाल यह हुआ कि जो काम लोग 10-15 साल में पूरी तरह नहीं सीख सके वह काम यह मशीन सिर्फ कुछ ही मिनटों में कर देगी, यानी हम जैसे बेवकूफ लोग 25-30 साल में भी पूरी तरह से पत्रकार नहीं बन सके, और मोबाइल ने चन्द दिनों में ही पत्रकारों की बाढ़ लाकर रख दी। इस बाढ़ ने पत्रकारिता के नाम को ही कलंकित कर दिया। मेन स्ट्रीम का तो पहले ही दलाली करण हो चुका है। पूरी की पूरी फौज आज पालतू बन चुकी है, इसलिए इस पालतू फौज से सच्ची पत्रकारिता की उम्मीद करना ही बेकार है, ये पालतू फौज सिर्फ सरकार की दलाली और इस्लाम, मुसलमान, मस्जिद, मदरसों के खिलाफ़ नफरती माहौल तैयार करने के काम पर लगी है। कम से कम यह तो सकून है कि पालतू मीडिया के गुर्गे हर वक्त गली गली नहीं फिरते मिलते और ना ही सौ सौ रूपये की उगाहियां करते दिखते। 

फिलहाल हम बात करते हैं मोबाइल मेडेड स्वंयभू महामुनियों की। जिनका पूरा मीडिया हाऊस उनकी जेब में रहता है और पूरी टीम खुद उनमें ही निहित है। ना किसी घटना स्थल पर जाने की आवश्यक्ता ना खबरें कवर करने की भागम भाग। आराम से घर में लेट, बैठकर ‘‘सबसे पहले, सटीक और सच्ची खबर’’ पेलते रहते हैं। बैठे यूपी के किसी गांव में होते हैं, और सटीक व सच्ची खबर बताते हैं कश्मीर, पंजाब, बंगलादेश, पाकिस्तान की। यहां यह बतादें कि ये वरिष्ठ, योग्य, अनुभवी और सच्चे स्वंयभू पत्रकार देसी या विदेशी किसी भी न्यूज़ एजेंसी के सदस्य भी नहीं होते, फिर भी देश विदेश की सटीक सच्ची खबरें सबसे पहले इनके पास आती है। जी हां, हम उन्हीं की बात कर रहे हैं जिन्हें  हिन्दी भी सही से लिखना या बोलना नहीं आती। बात करते हैं तो ऐसा लगता है इन्टर नेशनल पत्रकार है। 

खैर, हम कहना यह चाहते हैं कि पत्रकारिता के पेशे पूरी तरह लज्जित और कलंकित किया जा चुका है। आज समाज में पत्रकार की कोई वैल्यू नहीं रह गई आप चाहे कितने ही काबिल अनुभवी या निष्पक्ष पत्रकारिता क्यों ना करते हों। लोग आपको देखते सौ दो सौ रूपये उगाही करने वालों की ही गिनती में।

वैसे तो मोदी सरकार ने सवाल पूछने वाले अखबारों को बन्द करके अपनी जान बचाई लेकिन इन मोबाइल मेडेड को अभयदान इसलिए दिया क्योंकि सरकार जानती है कि इनमें ना सवाल करने की हिम्मत है और ना ही योग्यता। बल्कि मोबाइल मेडेड स्वंयभू पत्रकारों की ये फौज सरकार की ही मक्खन मालिश में लगी है।

इन्हीं महामुनियों की हरकतों के चलते हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी सख्त रूख दिखाते हुए गम्भीर टिप्पणी की है।