Friday 10 July 2015

अब गाय के बहाने साजिशें


बम धमाकों करके मुसलमानों को फंसाने सताने की कोशिशों के बाद लड़कियों को मोहरा बनाकर साजिशें रची गयी उसमें भी कामयाबी न मिलने के बाद अब गाय के बहाने साजिशें शुरू कर दी गयी। हाल ही में मध्य प्रदेश के निम्बाहेड़ा में मुस्लिम लड़को को फंसाने के लिए आरएसएस ने बछड़े का सिर काटकर मन्दिर में डाल दिया और आरएसएस लाबी की पुलिस ने कुछ ही देर बाद इलाके के मुस्लिमों पर आतंक बरपाना शुरू कर दिया। देश भर में बम धमाके कर करके सैकड़ों बेगुनाह मुसलमानों को फंसाने की कोशिशों को कुछ हद तक शहीद हेमन्त करकरे ने फ्लाप कर दिया, उस नेक दिल इंसान ने अपने इमान का सोदा न करके देश में किये जा रहे धमाकों के मामलों में दूध का दूध पानी का पानी कर दिया, यह अलग बात है कि इकलौते इमानदार जांच अधिकारी को उसकी ईमानदारी की सजा भी आरएसएस ने जल्दी ही देदी। महान है अदालतों के नाम से मशहूर देश के फैसला कक्ष और व्यक्ति के धर्म, जाति, हैसियत, पावर, के हिसाब से काम करने वाले धर्म निर्पेक्षता के फर्जी लेबल में छिपा धर्माधारित कानून जिसने शहीद हेमन्त के असल कातिलों को तलाशने की कोशिश नहीं की, जो आरएसएस लाबी ने कहानी तैयार करके देदी उसी पर दौड़ गये देश के फैसला कक्ष (अदालतें)। बम धमाके कर करके मुस्लिमों को आतंकी घोषित करने की कोशिशों के बाद अपनी लड़कियों को मोहरा बनाकर मुसलमानों पर आतंक बरपाना शुरू किया लेकिन इसमें भी मुंह की ही खानी पड़ी, इनकी तमामतर बहन बेटियों ने साफ कर दिया कि उनके साथ कोई फरेब या धोका नही हुआ बल्कि वे खुद पूरे होशो हवास के साथ अपने प्रेमी के साथ आई है इस्लाम कबूल किया है। मामला चाहे मेरठ मदरसे को लेकर उछाला गया हो या बिहार और गोरखपुर में रचा गया हो, यह अलग बात है कि शुरू में लड़कियों को डरा धमकाकर उनसे ब्यान कराये गये हो इन झूठे ब्यानों को कराने और उछालने में पुलिस का बड़ा रोल रहा, पुलिस ने ब्यान लिये ब्यान लेने से पहले लड़कियों को जेल में महीनों सड़ने जैसे खौफ दिलाये फिर मनचाहे ब्यान लिखकर उन्हें उछाल दिया। जबकि ऐसे संवेदनशील मामलों में ब्यानों को पूरी तरह गोपनीय रखा जाता है लेकिन आरएसएस लाबी की पुलिस ने कानून का मुंह काला करते हुए फिजा बिगाड़ने की कोशिशें की। जबकि सच्चाई ये थीं कि सभी लड़कियां अपनी मर्जी से अपने प्रेमियों के साथ रह रही थीं। अपनी लड़कियों को मोहरा बनाकर मुस्लिम दुश्मनी भी फेल हो गयी तो अब नया मोहरा पकड़ा गाय। अब गायों उनके बच्चों को खुद काट काटकर मुस्लिमों को फंसाने की साजिशों की शुरूआत कर दी गयी है। अभी हाल में ही मध्य प्रदेश के निम्बाहेड़ा में एक आतंकी ने गाय के बछड़े का सिर काट कर मन्दिर के दरवाजे पर डाल दिया आरएसएस के इशारे पर इलाकाई पुलिस ने सीधे सीधें पांच मुस्लिम युवको को पकड़कर उनपर जमकर जुल्म ढाने शुरू कर दिये, भला हो उन हिन्दू भाईयों का जिन्होंने आरएसएस के सरकारी व गैरसरकारी गुण्डों की धमकियों को दरकिनार करके खुलेआम सच्चाई जाहिर करदी और ड्रामा रचने वाले आरएसएस कार्यकर्ता जीवन भामी को बेनकाब कर दिया, ऊधर न चाहते हुए भी पुलिस को जीवन भामी को हिरासत में लेना पड़ा। बस फिर क्या था कुछ घझटे पहले तक कुलांचे मारने वाले अपनी साजिश की पोल खुलते ही दुबक गये बिलों में। इसी तरह चार दिन पहले गुजरात के टापी जिले के एक इलाके में एक बरवार जाति के घर गाय का बछड़ा मर गया जिसे उसने करीब में ही सड़क किनार फेंक दिया कुछ ही टाईम बाद कुत्ते उसे खींचकर बाजार तक ले आये, बस मिल गया आतंकियों को मुसलमानों को आतंकित करने का मौका, गौरतलब बात यह है कि टापी का एसपी भी आरएसएस लाबी का ही है उसने इलाके में जाकर ऊपर नीचे का जोर लगाया कि यह मामला मुसलमानों पर लाद दिया जाये लेकिन हिन्दोस्तान में सभी आतंक के साथ नहीं है इसलिए जिसका बछड़ा था उसने ओर उसके आसपास के लोगों के साथ ही बाजार के कुछ दुकानदारों ने गुजरात के सरकारी आतंकी के बहकाने डराने धमकाने के बावजूद मामले को मुस्लिमों पर थोपने की एसपी की चाल को नाकाम कर दिया और सच को ही रहने दिया, इसी बीच दिल्ली से एक आतंकी ने एसपी नायक को फोन किया जिसमें उसने आतंक मचाने का चैलैंज देते हुए एसपी को 24 घण्टे का टाईम दिया इस पर एसपी गिड़गिड़ाने लगा और कहने लगा कि "उन कुत्तों (मुसलमानों) ने किया होता तो मैं उन्हें घर से खींच खींचकर....... करता।", एसपी ने अपनी बातचीत में अपनी सच्चाई कबूलते हुए कहां कि  "सूरत का मामला देखों, कैसे मैंने एके 47 से फायरिंग करके भूना" उसने फोन करने वाले आतंकी से यह भी कहा कि  "सर जी किसी को पता न लगे कि मैं आरएसएस का आदमी हूं।" इससे यह तो साफ हो गया कि गुजरात में अभी भी सरकारी तौर पर भी मुसलमानों के खिलाफ आतंक चल रहा है। हाल ही में उ0 प्र0 के महोबा में गाय के बछड़े को या तो कहीं चोट लगी या फिर गुण्डों ने खुद उसे जख्मी करके उसके बहाने जमकर आतंक फैलाया और मुसलमानों की दर्जनों दुकानों को आग लगादी, यह आतंक पुलिस की मिली भगत से किया गया, सीओ समेत भारी पुलिस बल की मौजूदगी में मुसलमानों पर आतंकी हमला किया गया। गुजरी 30 जून को उ0प्र0 के शामली में एक गुण्डे ने पहले अपने घर वालों से चुराकर गाय का बछड़ा बेच दिया फिर घर वालों से बचने और अपनी पुरानी रंजिश निकालने के लिए एक बछड़ा चोरी का आरोप लगाकर इलाके के गुण्डों के साथ मिलकर मुस्लिम युवक पर हमला कर दिया।
आरएसएस लाबी के साथ साथ आरएसएस के टुकड़ों पर पल रहे सरकारी अमले का आतंक दिन बा दिन बढ़ता ही जा रहा है। और हो भी क्यों नहीं सभी जानते है कि अब कोई दूसरा हेमन्त करकरे नहीं आने वाला और रही बात अदालत नामी इमारतों की तो वे भी आरएसएस को खुश रखने में लगी नजर आ रही है सबूत के लिए अफजल गुरू का मामले में सुप्रीम कोर्ट के वाक्य और उसके बावजूद अफजल गुरू को कत्ल करा दिया जाना ही काफी है। यही वजह है कि मुसलमान के खिलाफ कोई भी आतंकी आसानी से कुछ भी बोल देता है कुछ भी कर देता है। ईवीएम के चमत्कार से मोदी सरकार बनने के साथ ही आतंकियों के अच्छे दिन आने लगे। फेसबुक, व्हाट्सअप जैसी सोशल मीडिया साईटों पर जमकर आतंकी धमकियां और गुण्डई की छूट रहती है
अकबर ओवैसी बोलता है तो जज साहब को यूट्यूब देखने का शौक हो जाता है लेकिन देश में धमाके करने वाले बोलते है तो बेचारे जज साहब इन्टरनेट चलाना भूल जाते है। हम बात कर रहे थे गौ-वंश हत्या की, तो सबसे पहले तो यह जानने जरूरी है कि जो मुसलमान गाय खाते है क्या उनको इस्लाम इसकी इजाजत देता है ? भारत में गाय कानून और हिन्दू समुदाय की नजर से बचाकर काटी जाती है जोकि पूरी तरह से चोरी है। इस्लाम में चोरी की कतई इजाजत नहीं, चोरी किसी की भी हो चाहे किसी इंसान की हो या कानून, समाज की। इस्लाम में चोरी को हराम करार दिया गया है और इस्लामी कानून के मुताबिक हिन्दोस्तान की सरहदों के अन्दर गाय खाना कतई हराम
है, इसलिए गाय काटने खाने वालों को सख्त से सख्त सजा बल्कि सजाये मोत दिया जाना चाहिये। कानूनन गाय का काटा जाना तो हमेशा से जुर्म था लेकिन गौ रक्षा के बहाने सिर्फ मुस्लिम व्यापारियों को लूटने उनपर आतंक बरपाने का फार्मूला गुजरे कुछ साल से शुरू हुआ ओर इसे शुरू किया भाजपा के टिकट पर उ0प्र0 के पीलीभीत से सांसद चुने जाने के बाद मेनका गांधी ने। गाय हिन्दू धर्म में पूजी जाती है इसकी हिफाजत करना जरूरी है अगर लोग इसकी हिफाजत की बात करते तो बहुत ही ठीक करते, लेकिन यहां तो सिर्फ मुस्लिम व्यापारियों को लूटने, मुसलमानों पर आतंक बरपाने के लिए ही गाय का प्यार और सम्मान हो रहा है पूरे देश में देखा जाता है कि गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों पर आतंक बरपाने वाले ही गायों पालते हैं सुबह को दूध निकालकर छोड़ देते हैं दो चार रूपये का दाना घास बेचारी बेजुबान को नहीं खिलाते। बेजुबान जानवर बेचारी क्या करे कैसे जिये कौन भरे उसका पेट। समझ नहीं आता कि ये कैसे गौमाता के पुत्र हैं जो अपनी माता को घर में रखकर नही पालते, कैसे पुजारी है जो पूज्य की सेवा नही करते, उसे गन्दगी खाकर जीने के लिए छोड़ देते हैं, जरा भी शर्म नही आती इन गौ-भक्तों को। क्या दूध निकालने तक का ही प्रेम है। दरअसल कोई सच्चा गौभक्त है ही नही सारी गौभक्ति, सारा गौ प्रेम सिर्फ मुसलमानों पर आतंक बरपाने के लिए ही है। 

Monday 15 June 2015

मीडिया के दलालीकरण के नतीजे-इमरान नियाजी

मीडीया/पत्रकारिता यानी एक ऐसा स्तम्भ जो इन्साफ, कमजोर, गरीबों की आवाज बुलन्द करता हो, जो सच को सबके सामने लाता हो, सच्चाई और इन्साफ की वकालत करता हो। एक जमाना था जब पत्रकार सच्चाई उजागर करते थे, कमजोर और गरीबों के हक की आवाज उठाते थे, इन्साफ की वकालत करते थे। सच्चे और निस्वार्थ पत्रकार की लड़ाई ही मौजूदा सरकार से रहती थी। हमें अच्छी तरह याद है कि 70 के दशक में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में ‘‘ भ्रष्ट लोगों की दुनिया ’’ नाम से एक साप्ताहिक अखबार प्रकाशित होता था, इसके प्रकाशक व सम्पादक थे श्री राजपाल सिंह राणा। राजपाल सिंह राणा एक ऐसा नाम जिसकी परछाई से भी भ्रष्ट कांप उठते थे। उस समय अगर कोई पत्रकार किसी सरकारी दफ्तर की तरफ से गुजर जाता तो पूरे कार्यालय में सन्नाटा छा जाता था। अफसर हो या कर्मचारी सब राइट टाइम दिखाई पड़ते थे। लेकिन आज पत्रकार महोदय बीच में बैठकर लेनदेन कराते दिखाई पड़ते हैं, ऐसे ही पत्रकार अफसरों कर्मचारियों और नेताओं को असली लगते हैं और जो दलाली नहीं करते वे सब फर्जी। जो दलाली नहीं करते उनसे अफसरान कहते हैं कि हमने तो कभी देखा नहीं। अजीब तमाशा है, दलाली न करो तो फर्जी कहलाओ। बात यह है कि जो पत्रकार दलाली नहीं करते वे बेवजह ही अफसरों की चमचागीरी नहीं करते इसलिए उन्हें दिखाई नहीं पड़ते। आज हर शख्स सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार का रोना रोता है, जबकि सच यह है कि असल भ्रष्टाचार तो मीडिया में है। एक दौर था जब मीडिया भ्रष्टाचार पर निगरानी करती थी लेकिन आज खुद ही भ्रष्टाचार की फैक्ट्री बन चुकी है। खुद को नम्बर वन, बड़ा और वीआईपी कहने वाले अखबार चैनल पत्रकार केवल प्रशासन, नेताओं सरकार को खुश करने की कोशिशों में लगे हैं। 95 फीसद मीडिया आरएसएस की पालतू है, घटनाओं को घुमाओ देकर खबर देने में दिन रात एक किये हुए है। पत्रकारिता में छिछोरों की भीड़ भर गयी। मामला चाहे असल आतंकियों का हो या साजिश का शिकार बनाये गये बेगुनाहों का हो, फर्जी मुठभेढ़ की बात हो या पुलिसिया लूट की, पुलिस द्वारा उगाही का विषय हो या राजमार्गों पर रंगदारी वसूली (टौलटैक्स) का, झूठे मुकदमे लादने का मामला हो या कार्यवाही की गुहार लगाते भटकते फिरने वाले गुलाम हिन्दोस्तानियों का, आजकल मोबाईल एप्स व्हाट्सअप पर पत्रकार नामी लोग ग्रुप बनाने में लगे है इन ग्रुपों में खबरों और जानकारियों का आदान प्रदान करने की बजाये जहर उगलने में लगे है या छिछोरी हरकते करने में। दो दशक से देखा जा रहा है कि मीडिया कर्मियों पर हमलों की तादाद में इजाफा हुआ है। कोई थप्पड़ मार देता है तो कोई गालियां सुना देता है जिसका जब मन चाहा झूठे मुकदमे लाद दिये, यहां तककि अब तो हद हो गयी कि पत्रकारों को कत्ल किया जाने लगा। अब वक्त आ गया यह समझने का कि मीडिया पर हमले क्यों बढ़ते जा रहे हैं, क्यों मीडिया इतनी कमजोर हो गयी कि जो नेता मीडिया से घबराया करते थे वे मीडिया पर हमलावर हो गये? काफी दिमागी कसरत करने के बाद साफ हुआ कि इन सब हालात के लिए खुद मीडिया कर्मी ही पूरी तरह से जिम्मेदार है। मीडिया में दलाली चमचागीरी के चलन के बाद सक ही मीडिया का स्तर गिरता चला गया। आजकल देखा जा रहा है कि पत्रकार का चोला पहनकर दलाली करने वाले की बल्ले बल्ले है, दलाली ओर चमचागीरी करने वालों को ही अफसरान पहचानते हैं। कुछ दिन पहले ही उ0प्र0 के कैबिनेट मंत्री शिवपाल सिंह ने पत्रकारों से अपनी जय जयकार कराने के लिए सिर्फ मौखिक घोषणा करदी कि सूबे में पत्रकारों को सरकारी रंगदारी वसूली यानी टौलटैक्स से छूट रहेगी, बात घोषणा तक ही रह गयी, इसके बाद केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी पत्रकारों को टौल से छूट की बात की हालांकि गडकरी ने बात को अमली जामा पहनाया लेकिन उसमें खेल यह खेला कि यह छूट सिर्फ दलालों और चमचों को ही मिलेगी, सब को नहीं। रेल/जहाज में रिजर्वेशन हों या विदेश यात्रा के लिए पासपोर्ट की बात हो, विधानसभाओं ओर संसद भवन में प्रवेश का मामला हो या सचिवालयों या अन्य स्थानों में घुसने का, हर मोड़ पर खादी वर्दी खिलाडि़यों यहां तक कि फिल्म जगत के लोगों को कोटा छूट सब दिया जाता है लेकिन पत्रकार को चोर उचक्कों की तरह ही रखा जाता है यहां तककि जेल में भी खादी वर्दी पुंजिपतियों को सम्मान दिया जाता है ओर पत्रकार को उसकी औकात बताई जाती है। इन सब की खुली वजह है पत्रकारों में छोटा बड़ा ऊंच नीच हिन्दू मुस्लिम के भेदभाव का चलन और दलाली चमचागीरी का प्रकोप। 
पत्रकारों को अपना खोया हुआ मान सम्मान दुबारा हासिल करने के लिए अपनी सोच बदलनी होगी, दलाली ओर चमचागीरी छोड़नी होगी, बड़े छोटे, असली फर्जी, ऊंच नीच, हिन्दू मुस्लिम का भेदभाव मिटाकर एक जुट होकर नेताओं, अफसरों, की कवरेज, कान्फ्रेंस, आदि बन्द करके हर मामले हकीकत खोजकर हकीकत को ही पेश करना होगा, अपराधिक मामलों में पुलिसिया कहानी को ही  पेश करने की बजाये खुद मामले की जांच करके पेश करनी होगी, कुल मिलाकर पत्रकारों को पत्रकार बनना होगा, पूरी तरह से निगेटिव मुद्रा में आना होगा, तब ही कुछ वजूद बच सकता है सिर्फ संगठन बनाने, ज्ञापन देने धरना प्रदर्शन करने से कुछ नहीं होने वाला। हमारे कुछ साथियों का कहना है कि हम लाला (अखबार/चैनल के मालिक) की नोकरी कर रहे है तो जो वे चाहते हैं वेसा ही लिखते हैं इसपर हमारा कहना है कि लाला की दुकान हमसे चलती है हम लाला की दुकान से नहीं चलते, इसलिए हम सिर्फ सच्चाई ही पेश करें, सोचिये अगर सभी पत्रकार बन्धु एक राय हो जाये तो लाला की दुकान कैसे चलेगी।

अस्पतालों की करतूतों से हिंसक बनते हैं लोग

गुजरे दिनों व्हाट्सअप पर बरेली के एक नामी सर्जन का लेख पढ़ा जोकि डाक्टरों से मारपीट और अस्पतालों में तोड़फोड़ पर आधारित था। बहुत ही अच्छे विचार रखे डाक्टर साहब ने, उनको पढ़कर साफ पता चलता है कि आपने सिर्फ अपने पेशे वालों का एक तरफा बचाव किया, आपने यह नहीं बताया कि इलाज कराने आने वाला कोई व्यक्ति या उसके परिजन क्यों करते है मारपीट तोड़फोड़, क्या सभी पागल है या सभी गुण्डे होते हैं। अजीब बात है अपनी कमी की तरफ नही देख रहे डाक्टर। डाक्टर उन लोगों के खिलाफ लामबन्द होकर कार्यवाही की बात कर रहे है जिनके पैसे से पल रहे हैं। अपनी करतूतों को छिपाने की कोशिश में डाक्टरों ने गुजरी 8 मई को हड़ताल करके लोगों को परेशान किया। डाक्टरों की मांग है कि डाक्टरों अस्पतालों पर तोड़फोड़ करने वालों को सजायें दी जायें डाक्टरों अस्पतालों को सुरक्षा दी जाये। मतलब  "जबर मारे ओर रोने भी न दे" वाली कहावत को सार्थक रूप दिया जाना चाहिये यानी डाक्टर जितनी चाहे मनमानी करें लेकिन भुक्तभोगी चुपचाप हाथ बांधे खड़ा रहे। आईये अब आते है असल मुददे पर, सवाल यह है कि किसी डाक्टर की पिटाई या अस्पताल में तोड़फोड़ की नौबत क्यों आती है? अगर यह सवाल डाक्टरों से पूछा जाये तो उनका जवाब होगा कि पता नही लोग खुद ही करने लगते है। चलिये हम कुछ आप बीती और कुछ आंखों देखी वारदातें बताते हैं फिर हर उस इंसान से पूछेगें कि क्या डाक्टर के साथ मारपीट या तोड़फोड़ गलत हुई ? 
सन् 89 का वाक्या है मेरी सगी बहन के एक वर्षीय बेटे को दिमागी बुखार हुआ उस समय उसके पिता बाहर गये हुए थे मेरी बहिन बच्चे को लेकर तुरन्त जिला अस्पताल पहुंची डाक्टर ने नम्बर आने पर ही देखने का कह दिया और जब उसका नम्बर आया जबतक डाक्टर के घर उसके कुछ मेहमान आने की खबर डाक्टर को मिली जिसे सुनकर वह उठकर चल दिया मेरी बहन गिड़गिड़ती रही लेकिन वह जल्लाद नही पसीजा और चला गया, जबतक हम लोग पहुंचे काफी देर हो चुकी थी हम किसी दूसरे डाक्टर के यहां ले जाने लगे लेकिन कुछ मिनटों बाद ही वह फूल सा बच्चा सदा के लिए खामोश हो गया। अब बताइये कि उस डाक्टर रूपी जल्लाद के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिये। 
6 जनवरी 1999 की बात है बरेली के थाना इज्जत नगर की छावनी अशरफ खां मोहल्ले में एक तीन साल का बच्चा छत से सड़क पर गिर गया, मौजूद लोग तुरन्त नजदीकी अस्पताल लेकर पहुंचे यहां डाक्टर ने कहा पहले पैसा जमा करो फिर देखेगें, बच्चे की हालत लगातार गिरती जा रही थी लोग डाक्टर की खुशामदें कर रहे थे कि कुछ ही देर में पैसा आ जायेगा जबतक इलाज शुरू कीजिये जान बचाईये लेकिन वह जालिम नहीं पसीजा, काफी देर देखने के बाद जब मैंने अपनी भाषा का इस्तेमाल किया तब उसने बच्चे को इलाज देना शुरू किया, साथ ही थोड़ी गुण्डा गर्दी भी दिखाने की कोशिश करता रहा गुण्डागर्दी दिखाने की वजह यह थी कि वह पूर्व व वतमान भाजपाई सांसद संतोष गगंवार का रिश्तेदार कहलाता है।
1 मई 1997 को मेरे पिता को ब्रेन हैमरेज हुआ शहर के नामी न्यूरो फिजीशियन को दिखाया गया डाक्टर ने तुरन्त भर्ती करने को कहा उस समय यह डाक्टर एक पुराने और मशहूर अस्पताल में बैठते थे हमने आनन फानन में भर्ती कर दिया, अस्पताल के स्टाफ ने मोटी रकम जमा कराई दवाईयों की लम्बी चैड़ी लिस्ट थमाकर तुरन्त लाने को कहा परिजनों ने तत्काल दवा लाकर देदी इसके बाद तीन घण्टे तक ना डाक्टर ने आकर देखा और न ही दवा देना शुरू की गयी हमने बार बार स्टाफ से कहा कि दवा शुरू करो तो स्टाफ ने कहा कि डाक्टर साहब के आने के बाद शुरू की जायेगी और डाक्टर तीन घण्टे तक नही आया, हालत लगातार गिरती गयी, डाक्टर को फोन पर बात की तो वह बोला कि अभी कुछ गेस्ट आये हुए है कुछ देर में आऊंगा, मतलब यह कि उसके महमान किसी की जान से ज्यादा अहमियत वाले थे। आखिरकार पांच घण्टे गुजर गये और वह नही आया मजबूर होकर हम पिता को घर ले आये और कुछ घण्टों बाद वे हमें छोड़ गये। अब बताईये उस डाक्टर और अस्पताल स्टाफ को कौन सा राष्ट्रीय सम्मान दिया जाना चाहिये था।
13 जून 1999 को थाना इज्जत नगर के क्षेत्र में सड़क दुर्घटना में एक बाईक सवार बुरी तरह घायल हुआ राहगीर उसे करीब के ही एक निजि अस्पताल ले गये जहां पर पहले तो डाक्टर ने इलाज शुरू करने से पहले पुलिस कार्यवाही रट लगाई, इसी बीच पुलिस पहुंच गयी। इसपर डाक्टर ने पैसा जमा कराने की बात की राहगीरों ने बताया कि अभी इसका कोई परिजन नहीं है खबर दी जा चुकी है आते होंगे तब तक ईलाज शुरू करिये लेकिन वह नही माना और इतना समय बर्बाद कर दिया कि घायल ने दम तोड़ दिया। आईएमए  "होली प्रोफेशन के होली लोग" बताये कि इस लालची डाक्टर को कौनसा सम्मान दिया जाना चाहिये।
सन 2001 में मुरादाबाद में रिक्शा चलाकर अपना व अपने बूढ़े पिता की जीविका चलाने वाले युवक की दिल्ली रोड पर एक एक्सीडेंट में मौके पर ही मौत हो गयी इसकी खबर सुनकर उसके लगभग 70-75 वर्षीय पिता को हार्टअटैक आया जिन्हें मोहल्ले के ही एक झोलाछाप को दिखाया हालत को देखकर उसने तुरन्त किसी बड़े अस्पताल ले जाने की सलाह देते हुए अपनी जेब से 200 रूपये भी दिये, उनके पास पड़ोसियों ने कुछ पैसा चन्दा करके मुरादाबाद के एक नामी अस्पताल ले गये जहां डाक्टर ने देखकर भर्ती करने को कहा और पांच हजार रूपये जमा करने को कहा इसपर लोगों ने उसे वास्विकता बताते हुए और पैसा चन्दा करके देने की बात कही लेकिन उस डाक्टर ने एक न सुनी, मौके पर ही एक दरोगा जोकि स्वंय को दिखाने अस्पताल आये हुए थे ने पांच सौ रूपये दिये, लेकिन डाक्टर नहीं माना और कुछ देर बाद अस्पताल की लाबी में ही बुजुर्ग ने दम तोड़ दिया। क्या आईएमए बतायेगा कि उस जल्लाद के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिये।
बरेली के बहेड़ी तहसील के एक गांव की एक प्रसूता महिला को प्रसव पीड़ा के चलते बहेड़ी आया गया, सीएचसी पर महिला डाक्टर के न मिलने पर बहेड़ी में ही एक निजि डाक्टर को दिखाया जिसने तुरन्त आप्रेशन की बात कहकर 10 हजार रूपये जमा करने को कहा, गरीब खेतीहर मजदूर था सरकारी अस्पताल के भरोसे घर से 3 हजार रूपये लेकर चला था। गिड़गिड़ाने लगा और दो दिन में इन्तेजाम करके देने की बात कहने लगा, लेकिन डाक्टर नहीं पसीजी मजबूर होकर वह पत्नी को जिला अस्पताल ले जाने लगा लेकिन रास्ते में ही प्रसूता ने दम तोड़ दिया, उसके साथ उसके गर्भ में सही सलामत मोजूद बच्चा भी खत्म हो गया। 
2010 के अप्रैल माह की 11 तारीख को मेरी सगी बहन की पुत्री अपने पति के साथ बाईक पर बरेली के प्रभा टाकीज के सामने से गुजरे रही थी कि अचानक बेहोश होकर बाईक से गिर गयी, उसके पति व राहगीरों ने आनन फानन में सामने मौजूद अस्पताल पहुंचाया, यहां अस्पताल ने भर्ती करते समय तो पैसे की अड़ नहीं की, लेकिन न्यूरो सर्जन ने तत्काल आप्रेशन को कहा, हमारा परिवार राजी हो गया, आप्रेशन हुआ और आठ रोज तक वह बेहोश पड़ी रही, लूट की हालत यह थी कि हर रोज रूई के दो बड़े बण्डल, छः इंच की बीस बैण्डीज के अलावा दो से तीन हजार रूपये रोज की दवाई मगांई जाती रही, क्योंकि सभी जानते है कि किसी भी अस्पताल में मेडीकल चलाने के लिए सेल पर 18 से बीस फीसद की दर से अस्पताल कमीशन लेता है अतः धरम के दोगुने रेट पर मिल रही थी दवाईयां, हम भी अच्छी तरह जानते थे कि आप्रेशन के मरीज की रोज ड्रेसिंग नहीं होती मगर मजबूरी के चलते लाकर देते रहे। आठवीं रात लगभग डेढ़ बजे उसकी हालत अचानक खराब हुई आईसीयू में काम कर रहे आठवीं से दसवीं तक पढ़े हुए लड़को ने तुरन्त डाक्टर को फोन पर सूचना दी डाक्टर वार्ड के ऊपर ही छत पर रह रहा था, डाक्टर ऊतर कर नहीं आया हम लोगों ने भी कई बार फोन किया लेकिन वह नहीं आया और कुछ देर बाद घायल ने दम तोड़ दिया।
इसके सिर्फ दस महीने बाद ही मृतका की मां को ब्रेन हैमरेज हुआ उनके परिवार वाले घबराये तो किसी दलाल ने उसी जालिम जल्लाद को दिखाने की सलाह दी, इस वक्त  तक उसने अपना अस्पताल खोल लिया था परिवार वहीं ले गये भर्ती करने के समय तो डाक्टर ने काफी टाईम खर्च किया भर्ती कर लिया, बेहिसाब दवाईयां लिख लिखकर दी जाती रही, रात लगभग तीन बजे हालत बिगड़ी आईसीयू में काम कर रहे दसवीं तक पढ़े लड़को ने डाक्टर को सूचना दी, डाक्टर ने आकर देखने की बजाये फोन पर ही निर्देश दे डाले हमारे परिवार वालों ने मोबाइल पर बात की तो डाक्टर ने कहा कि दवा बता दी है हालत ज्यादा बिगड़ी तो फिर फोन किया, डाक्टर ने बात करने की बजाये सीधे फोन बन्द कर दिया, वार्ड में काम कर रहे चमचे इन्दरकाम पर बात नही करा रहे थे, आखिर कार कुछ देर तड़पने के बाद मेरी बहिन ने दम तोड़ दिया। वार्ड के नौकरों ने जल्लाद को बताया इसपर उसने हिसाब करके पैसा जमा करा लेने को कहा, यानी उसको मरीज की जान की नहीं बल्कि पैसे की परवाह थी। कोई बता सकता है कि  "होली प्रोफेशन" के इस होली महारथी को कौन सा सम्मान दिया जाना चाहिये।
बरेली के बिहारपुर सिविल लाईन के एक हरिजन व्यक्ति के 19 दिन आयू के नवजात की हालत खराब हुई उसके परिवार वाले शहर के नामी बच्चा रोग विशेषज्ञ को दिखाने ले गये डाक्टर ने बच्चे को तत्काल मशीन में रखने की सलाह दी, पहला बच्चा होने की वजह से पूरा परिवार बहुत परेशान था, डाक्टर की सलाह मानली और बच्चे को मशीन में रखवा दिया। सारा देश जानता है कि अस्पताल वाले अपनी हठधर्मी के चलते मा0 सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को ठेंगा दिखाते हुए मशीन में रखे हुए बच्चे के परिवार वालों को अन्दर फटकने नहीं देते। बच्चे ने कब दम तोड़ दिया किसी को पता ही नही चला, चैथे दिन मैं भी अस्पताल पहुंचा कुछ देर तक वार्ड के बाहर से ही बच्चे को देखता रहा, शक होने पर वार्ड में जाने लगा तो वहां मौजूद स्टाफ ने अन्दर आने से रोकना चाहा मैंने उन्हें समझाया कि कुछ सैकेण्ड में ही बाहर आ जाऊंगा लेकिन वे नही माने, मजबूर होकर मैने अपनी भाषा का इस्तेमाल किया और अन्दर गया जाकर देखा तो बच्चा पता नही कब को मर चुका था उसका शरीर रंग बदल चुका था। मैंने डाक्टर से बात की तो उसने मान लिया कि बच्चा मर चुका है लेकिन उसकी नीचता की हद यह थी कि उसने पैसा जमा करने की बात कही इसपर मैंने उसे आने वाले तूफान से आगाह किया तब कहीं जाकर उसने बच्चे के शव का परिजनों को दिया। कई रोज तक मरे हुए बच्चे को मशीन में रखकर पैसा ऐंठने वाले इस महान आदमी को क्या ईनाम दिया जाना चाहिये?
बरेली के ही एक अस्पताल में जगह जगह लिखा हुआ है कि  "इस अस्पताल में बाहर के मेडीकलों से लाई गयी दवाईयां इस्तेमाल नहीं की जाती" मतलब अस्पताल के ही मेडीकल से ही खरीदना पड़ती है दवाईयां, जहां मनचाहे दाम वसूलना मेडीकल स्टोर की मजबूरी है क्योंकि बिक्री पर 18 से 20 फीसदी कमीशन अस्पताल को दिया जाता है, और सिर्फ इसी कमीशन की वसूली के लिए रोगी को अस्पताल के मेडीकल से ही दवाईयां खरीदने पर मजबूर किया जाता है।
शहर के ही एक मशहूर अस्पताल के आईसीयू के बाहर नोटिस लगा है कि  "डिस्चार्ज की फाइल डिस्चार्ज होने के 6 घण्टे बाद तैयार की जाती है" साधारण मामलों में किसी भी निजि अस्पताल में मरीज को दोपहर एक बजे के बाद ही डिस्चार्ज किया जाता है। कल्पना कीजिये कि अगर कोई रोगी किसी दूरदराज गांव का है और उसे एक बजे डिस्चार्ज करके उसकी फाईल 6 घण्टे बाद यानी लगभग 7 बजे दी गयी तो वह किस तरह पहुंचेगा अपने घर, लेकिन उसकी परेशानी से अस्पताल को कोई लेना देना नही होता।
इसी तरह के हजारों मामले रोज सामने आते है लेकिन चूंकि देश का कानून और वर्दी पैसे वालों की गुलाम है जब कभी ऐसे मामले में भुक्तभोगी कानून के पास मदद के लिए जाता है तो कानून अपने अन्नदाता डाक्टर को ही बचाता नजर आता है कई मामलों में उपभोक्ता फोरम में भी लोग गये लेकिन यहां तो पैसे वालों की ही बल्ले बल्ले का रिवाज है।
हम डाक्टरों के साथ मारपीट करने या तोड़फोड़ करने को सही नही ठहरा रहे,  लेकिन ऐसा करने वालों को गलत भी नहीं ठहरा सकते क्योंकि साफ सी बात है कि कोई भी व्यक्ति बेवजह ही हिंसक नहीं बनता, उसे मजबूर किया जाता है हिंसक बनने पर, और मजबूर करते है डाक्टर और अस्पताल। एक तरफ जिस व्यक्ति का कोई परिजन मौत जिन्दगी के बीच झूला झूल रहा हो और जिस डाक्टर पर वह भरोसा करके आया हो वह उसकी मजबूरी का नाजायज फायदा उठाये तो ऐसी स्थिति में उसका हिंसक बन जाना स्वभाविक है।
हम यह भी नही कह रहे कि सभी डाक्टर मरीजों की मजबूरी का फायदा उठाते  हैं या गुण्डागर्दी करते है, बल्कि डा0 हिमांशु अग्रवाल और कमल राठौर जैसे डाक्टर भी इसी समाज और पेशे में हैं जो अपने महान व्यक्तित्व की वजह से ही लोगों के मनों पर राज करते है लोग मन ही मन उनकी पूजा करते हैं।
आज तमाम डाक्टर यानी पूरा आईएमए एक जुट होकर अपने ही जुल्म के सताये हुए लोगों को ही गलत बताकर कानून से सुरक्षा मांग रहा है। उसी कानून से सुरक्षा मांग रहे है डाक्टर जिस कानून को नोटों के बल पर अपनी जूती में रखते है। आईये किन किन मामलों में कानून डाक्टरों की गुलामी करता है।
1 कानूनन किसी भी अस्पताल के पंजिकरण के लिए आवेदन के साथ अस्पताल में काम करने वाले सभी डाक्टरों के योग्यता प्रमाण पत्र, पैरा मेडीकल स्टाफ के डिप्लोमों की कापियां भी प्रेषित की जानी चाहिये, क्या आजतक किसी ने की, ना ही किसी ने प्रेषित की और ना ही पंजिकरण करने वाले अधिकारी ने कभी किसी से मांगी, हां अगर कुछ मांगा जाता है तो वह है नोटों की गड्डी। शायद ही कोई अस्पताल हो जिसमें कम्पाउण्डर व नर्से दसवीं से ज्यादा पढ़े हों या प्रशिक्षित हों। यह सच्चाई देश भी के स्वास्थ विभागों के साथ साथ सभी प्रशासनिक अफसरान को मालूम है लेकिन सब अपनी अपनी उगाहियों के लिए गुलाम भारतीयों की जान को खतरें में देखकर गदगद होते रहते है।
2 कानून कहता है कि अस्पताल आबादियों के बीच नहीं बनाया जा सकता, और अस्पतालों के आप्रेशन थियेटर व नरसरी किसी भी हालत में बेसमेन्ट में नहीं बनाये जा सकते, लेकिन भारत में खददरधारियों और पूंजी पतियों का गुलाम कानून सिर्फ किताबों में ही दम तोड़ रहा है इसका वास्तविक रूप है ही नहीं। जितने भी अस्पताल है सब आबादियों के बीच ही हैं। विकास प्राधिकरणों को केवल सुविधा शुल्क की दरकार रहती है, आंखों पर नोटों की पटिटयां बांधकर नक्शें पास किये जा रहा हैं। आपको याद होगा ही लगभग दस साल पहले की बात है बरेली विकास प्राधिकरण ने आबादी के बीचो बीच बनाये गये अस्पताल का नक्शा पास करने से मना कर दिया लेकिन चूंकी कानून को जूटी में रखने वाले खददरधारी (तत्कालीन मुख्यमंत्री) को इस अस्पताल का उद्घाटन करना था तो मुख्यमंत्री ने नियम का मुंह काला करके उदघाटन किया और इशारा करके नक्शा भी उसी समय पास करा दिया, नतीजा आज उस अस्पताल की वजह से पूरी सड़क जाम रहती है कालोनी वासी परेशान हैं लेकिन मामला खददरधारी का है इसलिए सह रहे हैं।
3 लगभग आठ साल पहले मा0 सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि अस्पताल के आप्रेशन थियेटरों में कैमरे लगाकर उनके टीवी बाहर लगाये जाये जिससे कि रोगी के परिवार वाले यह देख सके कि उनके मरीज के साथ अन्दर हो क्या रहा है। क्या पूरे देश में किसी भी अस्पताल ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का पालन किया? क्या प्रशासनों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन कराने की कोशिश की ? साफ है कि आजतक नहीं। कहीं राजनैतिक दबाव में जिम्मेदार अफसरान आंख बन्द रखने पर मजबूर है तो कहीं नोटों के दबाव में, कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय को ठेंगा ही दिखाया जा रहा है।
डाक्टरों को मारपीट करने तोड़फोड़ करने वालों के खिलाफ कार्यवाहियों की मांग करते हुए लामबन्द होने की बजाये अपनी सोच बदलें, अपने अन्दर के लालच को खत्म करें, किसी जमाने में मसीहा कहे जाने पेशे को एक बार फिर जल्लाद का चोला उतार कर मसीहा बनायें, ईलाज कराने आने वाले मरीजों की जेबों की जगह उनकी जानों और सेहतों को अहमियत देना शुरू करें, फिर देखें कि लोग पीटने तोड़फोड़ करने की जगह पैर छूने लगेगे। दूसरी बात मारपीट या तोड़फोड़ करने वालों के खिलाफ कानून को जगाने की बजाये खुद कानून का पालन करें।

Saturday 14 February 2015

दाग धोने की कोशिश में देदी दिल्ली


दिल्ली विधान सभा चुनावों में बीजेपी पर फिरी झाड़ू और गुजरे लोकसभा चुनावों को बारीकी से देखने की जरूरत है। दुनिया भर इसे एक नजर से देखकर ओर आसानी से बीजेपी की शिकस्त मान रही है। शायद किसी की भी नजर गुजरे लोकसभा चुनावों की तरफ नही जा रही हो, आखिर है तो चैंकाने वाली बात कि एक तरफ से झाड़ू ही फेर दी गयी। अगर एक लम्हे के लिए भी गुजरे लोकसभा चुनाव सामने रखकर गौर किया जाये तब बात आसानी से हजम नही हो रही, कि आखिर इतना बड़ा इन्कलाब कैसे आ गया। कया हो गया इवीएम को क्यों नही उगले एक तरफा बीजेपी के वोट, क्यों नहीं नाची इवीएम लोकसभा की तरह बीजेपी के इशारे पर। तआज्जुब की बात है कि केन्द्र में बीजेपी की सरकार होते हुए भी एक मामूली (बीजेपी और कांग्रेस के कथनानुसार) सा  इंसान महारथियों पर भारी पड़ गया। कौनसा चमत्कार था या जादू था जो लोकसभा में उम्मीद से कहीं ज्यादा कामयाबी बेजेपी को देता है जबकि उस वक्त बीजेपी पैदल थी और अब जबकि केन्द्र की सत्ता मुटठी में है तो बीजेपी इतनी बुरी तरह हारी, क्या चन्द दिनों में ही बीजेपी को सभी सात सांसद देने वाली दिल्ली ने इस बार विधायकी को ठेंगा दिखा दिया। आखिर क्या बात है कि लोकसभा चुनावों में किसी भी निशान का बटन दबाने से वोट बीजेपी के खाते में पहुंचाने वाली ईवीएम दिल्ली विधानसभा चुनावों में इतनी ईमानदार क्यों बन गयी। क्या दिल्ली की तरह ही दूसरे राज्यों में भी इवीएम इतनी ही ईमानदारी से काम करेगी ? हालात का जकाजा है कि ये सच्चाईयों को समझना जरूरी है। कहां गये 3838850 वोट जिन्होंने दिल्ली से 7 सांसद भाजपा को दिये आज विधायक क्यों नहीं दिये। क्या वास्तव में लोकसभा में इसी गिनती में वोट मिले जिस हिसाब से भाजपा की जीत दिखाई गयी, और अगर हकीकत में ही लोकसभा चुनावों में अपेक्षा से कहीं ज्यादा वोट मिले तो फिर आज इतना बड़ा अन्तर कैसे आ गया वह भी सिर्फ एक साल के अर्से में ही ? ऐसे ही अगिनत सवाल पैदा हो रहे है दिल्ली में भाजपा की प्रचण्ड हार से। आईये तलाशते हैं इन सारे सवालों के जवाब.......। दरअसल लोकसभा चुनावों की ही तरह से दिल्ली चुनावों में बीजेपी के वोट उगलने का सबक ईवीएम को नहीं रटाया गया, यहां ईवीएम अपनी आंखों पर काली पटटी बांधे रही और जो मिला वो बताया ईवीएम ने, जबकि लोकसभा चुनावों में ईवीएम के कान पहले ही मरोड़ दिये गये थे और ईवीएम को मजबूर कर दिया गया था कि मिले कुछ भी लेकिन बताना एक सबक। अब सवाल यह होता है कि जब लोकसभा में ईवीएम को गुलाम बना लिया गया था तो दिल्ली में भी बनाया जा सकता था। जी हां बनाया जा सकता था और इस बार तो सारा का सारा सिस्टम हाथ में है, लेकिन लोकसभा चुनावों के बाद मीडिया, सोशल मीडिया बड़े पैमाने पर ईवीएम की करतूतों की छीछालेदर हुई और लगातार हो ही रही है और इसी कलंक को धोने की कोशिश की गयी है ईवीएम को सीधी राह चलने की आजादी देकर। दरअसल दिल्ली की सरकार या दिल्ली का मुख्यमंत्री सिर्फ नाम का मुख्यमंत्री होता है कदम कदम पर केन्द्र सरकार का मोहताज रहता है किसी भी सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है कानून व्यवस्था, दिल्ली सरकार कानून के मामले में पूरी तरह से केन्द्र की मोहताज होती है, इसी तरह से और भी कई मामले है जिनमें दिल्ली सरकार स्वंय कुछ कर नहीं सकती, कदम कदम पर केन्द्र की मोहताजी भुगतनी पड़ती है। यानी लाचार और बेबस। मतलब सिर्फ नाम का मुख्यमंत्री। बस यही वजह है दिल्ली चुनाव में ईवीएम को आजादी से काम करने दिया गया। दिल्ली चुनाव नतीजों ने कम से कम यह तो साफ कर ही दिया कि गुजरे लोकसभा चुनावों में दिल्ली से सातों संासद भाजपा के निर्वाचित घोषित किया जाना अपने आप में एक बड़ा खेल था। किसी भी सूरत में हजम न होने वाली बात है कि जिन क्षेत्रों से सात सांसद दिये हो उनमें से सिर्फ नौ महीने के अन्दर ही एक भी विधायक भाजपा को नहीं मिल सका और जो हारे वे भी इतने लम्बे फासले से। ये फासले खुद ही बता रहे है कि लोकसभा चुनावों में इवीएम ने नतीजे दिये नहीं थे बल्कि लिये गये थे क्योंकि एक साथ 3838850 वोटरों की पसन्द बदल जाना समझ में आने से परे है। अगर मान भी लिया जाये कि दिल्ली का मतदाता मोदी सरकार से नाखुश है तब भी एक साथ इतना बड़ा इन्कलाब तो आना पूरी तरह से समझ से बाहर है, कुछ फीसद या ज्यादा से ज्यादा पचास फीसद वोटरों में बदलाव आ सकता है लेकिन सौ फीसदी वोटरों की पसन्द सिर्फ नौ महीने में ही बदल जाना मुश्किल नहीं बल्कि नामुम्किन सी बात है। हरेक बिन्दू को बारीकी से समझने के बाद साफ हो जाता है कि कि 2014 में हुए लोकसभा चुनावों के नतीजे इवीएम से दिलवाये गये थे यानी भाजपा को पूर्ण बहुमत मतदाताओं से नही मिला बल्कि सिर्फ ईवीएम से मिला। इस बाबत न्यूज मीडिया और सोशल मीडिया में अच्छी खासी छीछालेदर भी हुई यह और बात है कि ईवीएम से छेड़छाड़, किसी भी बटन को दबाने पर वोट भाजपा के खाते में डालने की ईवीएम की करतूत की तमाम तस्वीरों वीडियो, खबरों को देखने पढ़ने सुनने के बावजूद चुनाव आयोग के कान तले जूं नहीं रेंगी। इस हकीकत को कबूल कर लेने में शायद कोई बुराई नहीं है कि मोजूदा केन्द्र की भाजपा सरकार वोट से नहीं बल्कि ईवीएम को गुलाम बनाकर बनी है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों को निष्पक्षता के साथ बताने की ईवीएम को आजादी देने के पीछे भी लोकसभा चुनाव में ईवीएम की करतूत के मामले को दबाने का प्रयास भी लगता है जिससे कि अब भाजपा लाबी कह सकेगी कि  "अगर लोकसभा चुनाव में गड़बड़ की होती तो अब भी कर सकते थे", बस यही कहने के लिए दिल्ली की कुर्सी पर दिल्ली की जनता की पसन्द का व्यक्ति बैठाने की जनता की कोशिश को ज्यों का त्यों रखा गया। खैर वजह कोई भी हो कम से कम भारत पहली बार किसी ईमानदार, शरीफ और सादगी से जीने वाला शासक तो मिला, धन्य है दिल्ली के वोटर।

Monday 9 February 2015

धोबी का कुत्ता, घर का रहा न घाट का
गुजरे दस साल के अर्से में कांग्रेस की हालत को देखकर कहावत "धोबी का कुत्ता घर का रहा न घाट का" याद आ रही है। कांग्रेस को इस हाल पर पहुंचाने की जिम्मेदार खुद कांग्रेस है। कांग्रेस जो जन्म से ही गददारी करती रही। सबसे पहले जवाहर लाल नेहरू ने देश का बटवारा कराया। अगर जवाहर लाल ने महात्मा गांधी की बात मानी होती तो शायद देश के टुकड़े न होते लेकिन जवाहर लाल मुसलमान को मजबूत होता नहीं देखना चाहते थे इसलिए जवाहर लाल ने कांग्रेस कमेटी में मुस्लिम विरोधी प्रस्ताव पास कराकर प्रधान मंत्री की कुर्सी पर कब्जा जमाने का रास्ता साफ कर लिया। जवाहर लाल का मन इतने से भी नहीं भरा तो जवाहरलाल ने निजाम हैदराबाद पर सेना से आक्रमण कराकर हजारों बेगुनाह मुस्लिमों की लाशें बिछवादीं। 1965 में पाकिस्तान से हुए युद्व के दौरान भी देश के मुसलमान को जमकर सताया गया यह अलग बात है कि 1965 में कुर्सी पर जवाहरलाल न होकर लाल बहादुर शास्त्री थे लेकिन थे तो कांग्रेसी ही। इसके बाद इन्दिरा गांधी ने अपनी सरकार के दौरान बम्बई दंगे में मुस्लिमों का कत्लेआम कराया गया। इन्दिरा गांधी ने एक बड़ी ही साजिशी योजना के तहत नसबन्दी का हथियार इस्तेमाल किया यह भी मुस्लिम के खिलाफ एक सोची समझी साजिश ही थी। इस्लाम में नस्बन्दी की मनाही होने के बावजूद इन्दिरा गांधी ने जबरन मुस्लिमों की नसबन्दियां कराई जिससे नाराज हुए मुस्लिम ने 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस को उसकी औकात पर पहुंचा दिया। जनता पार्टी की सरकार लूट खसोट की बन्दर बाट के चलते ढाई साल में ही चल बसी। इन्दिरा गांधी ने मुस्लिमों को अपने घडि़याली आसुओं के झांसे में लिया और एक बार फिर कांग्रेस बरसरे रोजगार हो गयी, लेकिन अपनी दगाबाज फितरत नहीं बदल सकी और मुरादाबाद दंगे में इन्दिरा गांधी और कांग्रेस की ही उ0प्र0 सरकार ने पीएसी के हाथों जमकर मुस्लिमों पर जुल्म कराकर 1977 के चुनावों में हुई हार का बदला लिया। राजीव गांधी ने बैठते ही नया गुल खिलाया और बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाकर उसमें नमाज की जगह पूजा कराना शुरू करदी। हालांकि राजीव गांधी ने इराक पर आतंकी हमले के दौरान आतंकियों के जहाजों को ईंधन देने पर चन्द्र शेखर के कान मरोड़े जिससे एक बार भी मुस्लिम कांग्रेस के झांसे में आ गये और दे दिया कांग्रेस को लूट खसोट का मौका, लेकिन इस बार कांग्रेसी प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव ने मुस्लिमों से गददारी की सारी हदें ही पार करते हुए बाबरी मस्जिद को आतंक के हवाले करने में पूरी साजिश रची, कांग्रेसी प्रधान मंत्री की इस करतूत से एक बार फिर मुस्लिम ने कांग्रेस को सही जगह पर पहुंचा दिया।इस बीच केन्द्र में बीजेपी का कब्जा हो गया और बीजेपी की राज्य व केन्द्र सरकारों ने गुजरात में बेगुनाह मुसलमानों पर आतंकी मला कराकर हजारों बेकसूरों का कत्लेआम कराया क्योंकि इस समय कांग्रेस औकात पर थी तो गुजरात आतंक पर मन ही मन खुश होती रही कोई जश्न नहीं मना सकी और केन्द्र में अटल बिहारी सरकार भी मन ही मन गदगद होती रही लेकिन खुलकर गुजरात आतंक का जश्न नहीं मनाया। गुजरात आतंक से झल्लाये मुस्लिमों को लगा कि कांग्रेस ही बेहतर है और कांग्रेस में नौटंकीबाजों की कमी नहीं रही इस बार सोनिया गांधी ने ड्रामा करके मुस्लिमों को झांसे में ले लिया और बेचारा सीधा शरीफ मुस्लिम वोट फिर फंस गया कांग्रेसी जाल में। सत्ता में आते ही कांग्रेस ने गुजरात आतंक में शहीद बेगुनाहों की लाशों पर अपनी खुशी का इजहार करते हुए गुजरात आतंक के मास्टर माइण्ड को सम्मान व पुरूस्कार दिया, अगर यही जश्न बाजपेई सरकार मनाती तो शायद कुछ हद तक ठीक होता, यही नहीं कांग्रेस सरकार के पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने गोधरा साजिश को बेनकाब करने के लिए नानावटी आयोग गठित करके जांच कराई जांच ने सारा सच सामने लाकर रख दिया जिसपर कानूनी कार्यवाही करने की बजाये सोनिया नामक रिमोट से चलने वाली कांग्रेस की मनमोहन सिंह
सरकार उस रिपोट्र को ही दफ्ना दिया। इसके साथ ही असम में आतंकियों के हाथों किये गये मुस्लिम कत्लेआम को रोकने की बजाये उलटे उसपर करराहने वालों की आवाज बन्द करने की कोशिश यानी असम आतंक की खबरें आरएसएस पोषित न्यूज मीडिया तो दे नहीं रहा था इसलिए लोग सोशल मीडिया के सहारे ही खबर दे रहे थे इसलिए सोशल को बन्द करने के लिए कांग्रेसी सरकार ने हाथ पैर मारे। अफजल गुरू को ठिकाने लगाने के लिए बड़े बड़े हथकण्डे अपनाये कांग्रेस की सरकार ने और लगा दिया ठिकाने, पाकिस्तान से आये सैकड़ों आतंकियों को सरकारी खर्च पर पाला गया और आज तक बादस्तूर पाला जा रहा है जबकि बीसों साल पहले पाकिस्तानी महिलाओं को जो कि यहां शादियां करके रह रही थी कई कई बच्चे थे, उनको उनके मासूम बच्चों तक को छोड़कर देश से निकाला गया। मुजफ्फर नगर में मुस्लिमों पर साजिश के तहत आतंक बरपाया गया कांग्रेस और कांग्रेस की केन्द्र सरकार मौज मस्ती में रही। रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट भी दीमक के हवाले करदी। कांग्रेस की असलियत धीरे धीरे जाहिर होती गयी ओर कांग्रेस जगह जगह से बाहर की जाती रही। जीता जागता प्रमाण है दिल्ली विधान सभा के लिए कुछ ही महीनों के अन्तराल से हुए दोनों चुनावों में कांग्रेस की हालत। कांग्रेस की इस हालत को देखते हुए ये कहावतें साकार नजर आ रही है कि "धोबी का कुत्ता, घर का रहा ना घाट का।", दूसरी कि "ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम", दरअसल कांग्रेस हमेशा से ही आरएसएस के एजेण्ट के रूप में रही और आरएसएस के इशारे पर ही थिरकती रही। कांग्रेस के इस हाल को देखकर कम से कम इतना तो समझ आ ही गया कि "देर आयद दुरूस्त आयद" देरी से ही सही पर कम से कम देश के मुस्लिमों की आंखे खुली तो, शुक्र है कि मुसलमानों ने कांग्रेस के असल रूप को पहचाना तो।

Monday 26 January 2015

ब्रिटिश संविधान के रूपान्तर दिवस की खुशियां मनाते गुलाम

लो, 64वीं बार, एक बार फिर मनाने लगे जश्न ब्रिटिश कानून के हिन्दी रूपान्तर  (गणतंत्र) दिवस का। बड़ी ही धूम मची है ऐसा लगता है मानों कोई धार्मिक त्योहार हो या घर घर में शादी हो। सबसे ज्यादा चैकाने वाली बात यह है कि गणतंत्र के इस जश्न को सबसे ज्यादा धूम से मनाने वाले वे लोग है जिनके लिए कानून में 15 अगस्त 1947 से पहले और आज में कोई फर्क नही आया। जो हाल ब्रिटिश की गुलामी में था हिन्दोस्तानियों का वही हाल देसियों की गुलामी में आकर है। 15 अगस्त 1947 से पहले और बाद में फर्क सिर्फ इतना हुआ कि पहले विदेशियों की गुलामी में थे और अब 64 साल से देसियों की गुलामी में जीना पड़ रहा है। किसी भी तरह का जश्न मनाने से पहले यह जानना जरूरी है कि जिस बात का हम जश्न मना रहे हैं आखिर वह है क्या, हमसे उसका क्या ताआल्लूक (सम्बन्ध) है उसने हमे कया दिया है, या हमें क्यों मनाना चाहिये उसका जश्न?...... तो आईये सबसे पहले यह जाने कि आजादी और गुलामी कया है? गुलामी का मतलब है कि हम अपनी मर्जी से जीने का कोई हक (अधिकार) नहीं, हम अपनी मर्जी से खा नहीं सकते पहन नही सकते, पढ़ नहीं सकते रहने के लिए घर नहीं बना सकते, अपने ही वतन में घूम फिर नहीं सकते। अगर कहीं जाते हैं तो उसका टैक्स देना पड़ता है। तलाशियां देनी पड़ती हैं। कुछ खरीदते या बेचते हैं तो उसका टैक्स देना पड़ता है। इसी तरह की सैकड़ों बाते हैं जो यह बताती है कि हम किसी की गुलामी में है। आजादी उसे कहते हैं जिसमें लोग अपनी मर्जी के मालिक होते हैं। जैसा चाहें खायें पहने जैसे चाहें जियें, कहीं घूमें फिरें वगैरा वगैरा। 

आईये अब देखें कि जिस  "गणतन्त्र "  के नाम पर हम जश्न मना रहे हैं उसमें हमारे लिए कुछ है  या नही.......? 64 साल के लम्बे अर्से में देखा यह गया है कि हिन्दोस्तान का आम आदमी ज्यों का त्यों गुलाम ही है ठीक वैसे ही हालात हैं जैसे 15 अगस्त 1947 से पहले थे। 15 अगस्त 1947 के बाद से फर्क सिर्फ इतना हुआ है कि 1947 से पहले हम विदेशियों के गुलाम थे और इसके बाद से देसियों के गुलाम बना दिये गये हैं। हिन्दोस्तानियों पर बेशुमार कानून लादे गये और लगातार लादे जा रहे हैं आजतक कोई भी ऐसा कानून नहीं बना जिसमें आम आदमी को आजादी के साथ जीने का अधिकार दिया गया हो, खादी और वर्दी को आजादी देने के लिए हर रोज नये से नया कानून बनाया जाता रहा है, ऐसे कानूनों की तादाद इतनी हो गयी कि गिनती करना मुश्किल है। किसी भी विषय को उठाकर देखिये, आम आदमी को कदम कदम पर उसके गुलाम होने का एहसास कराने वाले ही नियम मिलेंगे, वे चाहे आय का विषय हो या व्यय का, खरीदारी का मामला हो या बिक्री का, वतन के अन्दर घूमने फिरने की बात हो या फिर रहने बसने की, इबादतों का मामला हो या रोजी रोजगार का, सफर करने की बात हो या ठहरने की। कोई भी मामला ऐसा नहीं जिसमें आम जनता को उसके गुलाम होने का एहसास नहीं कराया जाता। किसी भी नजरिये से देख लीजिये। आप अपने घर से निकलये आपको हर पन्द्रह बीस किलोमीटर की दूरी पर टौल टैक्स देना होता है, जबकि ये टैक्स वर्दी और खादी से नहीं लिये जा सकते, रेल रिजर्वेशन कराये तो वहां भी खादी और वर्दी के लिए किराये में बड़ी रियायत के साथ कोटा मौजूद रहता है। आम हिन्दोस्तानी को उसके गुलाम होने का एहसास कराये जाने का एक सबूत यह भी है कि खददरधारी जब पैदल होते हैं और दर बदर वोट की भीख मांगते हैं तब ये खददरधारी जिन गुलामों के बिना किसी खौफ, और वर्दी वालों की लम्बी चैड़ी फौज को साथ लिये बिना ही उस ही गुलाम जनता के बीच फिरते दिखाई पड़ते हैं जो गुलाम जनता इन्हें कुर्सी मिलते ही दुश्मन लगने लगती है, गुलाम वोटरों से इन्हें बड़ा खतरा होता है। यानी कुर्सी मिलते ही गुलाम जनता को उसकी औकात ओर गुलाम होने का एहसास कराया जाता है। ट्रेनों में सुरक्षा बलों के जवान और सिविल पुलिस वर्दीधारी, गुलाम भारतीयों को बोगी से उतारकर पुरी बोगी पर कब्जा करके कुछ सीटों पर आराम से खुद लेटते हैं बाकी सीटें पैसे लेले कर सवारियों को बैठने की इजाजत देते है यह कारसाजी लखनऊ के स्टेशनों पर अकसर रात में देखी जाती है। अगर बात की जाये विदेश यात्रा के लिए पासपोर्ट बनवाने की तो यहां भी खददर धारियों को पासपोर्ट पहले दिया जाता है और आवेदनों की जांच बाद में जबकि गुलामों को पुलिस, एलआईयू का पेट भरना जरूरी होता है तब कहीं जाकर पासपोर्ट मिल पाता है, साल भर पहले तक तो पासपोर्ट बनाने का काम सरकारी दफ्तरों में किया जाता था गुलामों को सरकारी बाबुओं की झिड़कियां खानी पड़ती थी, लेकिन लगभग साल भर पहले यह काम भी कमीशन खाने के चक्कर में निजि हाथों में दे दिया गया। बिजली उपभोग का मामला देखिये गुलाम जनता का कोई उपभोक्ता बिल जमा करने में देरी करदे तो तुरन्त उसे सलाई से वंचित करते हैं जबकि खददरधारियों और वर्दीधारियों के यहां बिजली सप्लाई निःशुल्क है, गुलाम जनता के लोग पड़ोस के घर से सप्लाई लेले तो दोनों के खिलाफ बिजली चोरी का मुकदमा ओर वर्दीधारियों के यहां खुलेआम कटिया पड़ी रहती है बरेली की ही पुरानी पुलिस लाईन में सैकड़ों की तादाद में कटिया डाली हुई हैं सारे ही थानों में ऐसे ही उपभोग की जाती है बिजली कभी कहीं की लाईन नहीं काटी जाती। किसी विधायक सांसद, मंत्री आदि के यहां आजतक चैकिंग ही नहीं की गयी क्योंकि वे गुलाम नहीं रहे। गुलाम जनता के मासूम बच्चे भूखे पेट सो सो कर कुपोषण की गिरफ्त में आ जाते हैं जबकि खददरधारियों, और वर्दीधारियों के घरों पर पाले जा रहे कुत्ते भी दूध, देसी घी, के साथ खाते हैं फिर भी सोच यहकि हम आजाद हैं। बात गणतंत्र की है जी कानून की किताबे उठाकर देखिये सारा का सारा संविधान ज्यों का त्यों ब्रिटिशों का ही बनाया हुआ है कोई भी अन्तर नहीं किया गया केवल उसका हिन्दी रूपान्तर समझा जा सकता है, मिसाल के तौर पर किसी गुलाम के खिलाफ अगर मामूली कहा सुनी की भी रिपोर्ट दर्ज हो तो उसे पासपोर्ट नहीं दिया जाता जबकि ब्रिटिशों के एजेण्टों (खददरधारियों) के खिलाफ कितने ही कत्लेआम के मुकदमें हों बलात्कार लूट अपहरण के मामले चल रहे हों उसे विदेशी तफरी कराने में देर नही की जाती, गुलाम जेल में रहते हुए वोट नहीं दे सकता लेकिन खददरधारी जेल में रहते हुए चुनाव लड़ सकता है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेन्दर मोदी तक ऐसे हजारों सबूत मौजूद है कि इन लोगों पर हत्या बलात्कार अपहरण लूट यहां तक कि कत्लेआम तक के मुकदमें रहे ओर हैं भी लेकिन इनपर कोई कानूनी रोक नही रही। जी हां ठीक  वैसे ही जिस तरह ब्रिटिश शासन में सारी पाबन्दियां और सजायें गुलाम भारतीयों के लिए ही थी ब्रिटिशों पर कोई पाबन्दी नहीं थी अदालतों में ब्रिटिशों के खिलाफ कभी कोई सजा नही होती थी वैसे ही आज भी नही हो रही। देखिये हैदराबाद कत्लेआम से गुजरात आतंकवाद तक के मामले, बम्बई व संसद हमले के ड्रामें को देखिये ओर मालेगांव,समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद, अजमेर दरगाह धमाकों के मामलों में फर्क देखिये। आप किसी हाईवे पर किसी भी रंगदारी वसूली केन्द्र (टौल प्लाजा) पर लगे बड़े बड़े बोर्डों को पढि़ये जिनपर साफ साफ लिखा होता है कि खादी ओर खाकी को छूट है। किसी भी नजरिये से देखा जाये आम आदमी गुलाम और खादी, वर्दी मालिक दिखाई पड़ती है। एक छोटा सा उदाहरण देखें शहरों में जगह जगह वाहन चैकिंग के नाम पर उगाही किये जाने का नियम है, गुलाम जनता का कोई भी शख्स किसी भी मजबूरी के तहत अगर दुपहिया पर तीन सवारी बैठाकर जा रहा है तो उसका तुरन्त चालान या गुलामी टैक्स की मोटी वसूली जबकि वर्दी वाले खुलेआम तीन सवारी लेकर घूमते रहते है किसी की हिम्मत नहीं जो उन्हें रोक सके। सबसे बड़ी बात तो यह कि वर्दी वालों को अपने निजि वाहनों पर भी हूटर घन घनाने का कानून, जबकि गुलाम जनता को तेज आवाज के हार्न की भी इजाजत नहीं, हम दावे के साथ कह रहे हैं कि वर्दीधारियों द्वारा इस्तेमाल की जा रहे पुराने वाहन या तो चोरी के होते हैं या लावारिस बरामद हुए होते हैं और इन वाहनों के कागजात तो होने का सवाल ही पेदा नही होता सबूत के तोर पर गुजरे महीनें पंजाब में पकड़ी गयी कई दर्जन कारें जो यूपी ओर दिल्ली से चुराई जाती थी और इन्हें पंजाब लेकर जाते थे वर्दी धारी। गौरतलब पहलू यह है कि कई सालों से चल रहे इस धंधे में एक भी गाड़ी रास्तों कदम कदम पर रोज की जानी वाली चैंकिगों के दोरान नहीं पकड़ी गयी, कयोंकि किसी भी चैकिंग के दौरान चोरी करके ले जायी जा रही इन कारों को चैकिंग से आजाद रखा जाता है क्योंकि। राजमार्गो पर हर पन्द्र-बीस किमी की दूरी पर सरकारी हफ्ता वसूली बूथ लगाये गये हैं इनपर बड़े बड़े होर्डिंग लगाये गये हैं जिनपर साफ साफ लिखा गया है कि किस किस के वाहन को छूट है इनमें खादी व वर्दी धारी मुख्य हैं। किसी भी पर्यटन स्थल पर देख लीजिये वहां प्रवेश के नाम पर उगाही, यहां पर भी गांधी की खादीधारियों एंव पुलिस को छूट होने का संदेश लिखा रहता है। लेखिन फिर भी गुलाम जनता खुश हैं। खददरधारी कत्लेआम करे, और वर्दीधारी सरेआम कत्ल करें तो सजा तो दूर गिरफ्तारी तक करने का प्रावधान नहीं जबकि गुलाम जनता के किसी शख्स एक दो कत्ल कर दे तो उसको आनन फांनन में फांसी के बहाने कत्ल कर दिया जाता है। अदालतें भी खादी, वर्दी वालों के सामने बेबस ओर लाचार दिखाई पड़ती है जबकि गुलाम जनता के लिए पूरी शक्ति व सख्ती दिखाती देखी गयी हैं। लेकिन हमारा नारा वही कि आजाद हैं। 15 अगस्त की रात ब्रिटिशों के जाने के बाद गांधी जी ने घोषणा की थी कि 'आज से हम आजाद हें', गांधी के इस  "हम" से बेचारे सीधे साधे हिन्दोस्तानी समझ बैठे कि सब भारतीय। लेकिन गांधी के "हम"  मतलब था कि गांधी की खादी पहनने वाले और उनको लूट, मनमानी करने में ताकत देने वाली वर्दी। आम हिन्दोस्तानी ज्यों का त्यों गुलाम ही रखा गया, फर्क सिर्फ इतना हुआ कि 15 अगस्त 1947 से पहले विदेशी मालिक थे और अब देसी मालिक हैं देश के। यह हिन्दोस्तानियों का कितना बड़ापन है कि गुलाम रहकर भी आजादी का जश्न मनाते हैं कितने महान हैं और कितनी महान है इनकी सोच। लेकिन हर बात की एक हद होती है 200 साल तक ब्रिटिशों की मनमानी गुण्डागर्दी, लूटमार को बर्दाश्त करते रहे और जब बर्दाश्त से बाहर हुआ तो  चन्द दिनों में ही हकाल दिया ब्रिटिशों को।