Friday 8 February 2013

मुल्लाओं की करतूतें-गलती किसकी


इमरान नियाज़ी
हर रोज एक नये मुल्ला द्वारा बलात्कार, अय्याशी, लड़की के साथ भागने, यहां तककि किशोरों तक के साथ अप्राकृतिक कुकर्म किये जाने के मामले सामने आते हैं। दो चार फीसदी ही मामले पुलिस और मीडिया के कानों तक आ पाते हैं बाकी के मामलों को पीडि़तों के परिवार वाले बदनामी के डर से दबा लेते है तो कुछ मामलों को मुल्लाओं की बदनामी न करने की जाहिलाना सोच का दबाव बनाकर आस पड़ोस के लोग दबा देते हैं। क्यों ? क्यों नहीं सजा मिलने देते इन गुण्डों को। सबसे पहला सवाल तो यह है कि आखिर मस्जिदों में इमामत के लिए इन नौजवानों को रखा ही क्यों जाता है, क्या मोहल्लों में इस काबिल कोई नहीं रहा ? क्या मोहल्लों में उम्रदराज़ नमाजी र्कुआन के पढ़ने वाले नहीं रहे जो इन लड़कों को रखा जाने लगा है ? जबकि शरीयत ने तो इमामत के लिए सबसे पहली ओर अफजल सिफत उम्रदराजी (ज्यादा उम्र) बताई है तो फिर नई उम्र के इन लड़कों को इमामत के क्यों रखा जा रहा है। अगर बात आलिमे दीन की है तो ये छोरे तो मुकम्मल र्कुआन भी पढ़े हुए नहीं होते यहां पढ़ने के लिए आते हैं, फिर क्यों इन्हें इमामत पर खड़ा किया जा रहा है। दूसरी बात शरियत ने र्कुआन के तलफ्फुज़ (उच्चारण) का सही होने पर ज़ोर दिया है और बंगाल बिहार से आये इन छोरों को सही से बात करना तक नहीं आता तो र्कुआन का तलफ्फुज़ कैसे सही हो सकता है। क्या जरूरी है कि इन लड़को को ही इमामत के लिए रखा जाये, मोहल्ले बस्ती शहर के उम्रदराज़ लोगों से इमामत कराने में कया दिक्कत है। शरीयत ने भी ज्यादा उम्र वाले को ही सबसे ज्यादा अहमियत देने को कहा है। गुजरे साल ही जगतपुर की एक लड़की मुल्ला के साथ भाग गयी जो आजतक वापिस नहीं हुई, मुल्ला को दोस्त आजतक जेल में सड़ रहा है मामला कई रोज तक मीडिया में छाया रहा। प्रशासन के कई रोज़ तक होश उड़े रहे, दूर दूर तक इसी की चर्चायें थीं। लड़की मुल्ला के साथ भाग गयी उसके परिजनों ने अपहरण का मामला बताकर रिपोर्ट करदी पुलिस ने भी आंख मूंदकर अपहरण का मामला दर्ज कर लिया और इसी सोच में डूबकर चार्जशीट भी लगादी, जांच अधिकारी ने मामले की सच्चाई को खोजने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। अभी हाल ही में फिर एक लड़की मुल्ला के पास अय्याशी करती पकड़ी गयी वह भी मस्जिद जैसी पाक जगह में, उसके घर वालों ने जब बेटी को मस्ती की हालत में देखा तो बलात्कार को आरोप लगा दिया पुलिस ने भी बिना सोचे समझे तर्कविहीन तरीके से धारा 376 ठोंक दी। आईपीसी की धारा 376 जि़ना बिल जब्र यानी बल पूर्वक बलात्कार। अगर लड़की के परिजनों ओर पुलिस की मानें तो सवाल यह पैदा होता है कि लड़की कई घर से गायब होकर कई घण्टों तक मुल्ला के पास में रही और उसने शोर नहीं मचाया चीखी चिल्लाई नहीं ? उसकी मां के मुताबिक उसकी बेटी और बेटी की सहेली साथ में निकली थीं। लड़की के परिजनों की मानें तो सोचने का बिन्दू यह है कि दो लड़कियां साथ थीं तो एक को ही पकड़ा गया, अगर दूसरी बचकर भागने में कामयाब हो गयी तो उसने घर वालों को सूचना क्यों नहीं दी, शोर क्यों नहीं मचाया ? इन बिन्दुओं को पुलिस ने भी खोजने की कोशिश नहीं की सीधे सीधे बलात्कार का मामला दर्ज कर दिया, हालांकि डाक्टरी रिपोर्ट के बाद मामला तरमीम कर दिया गया। हमारे कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि मुल्ला दोषी नहीं है वह तो सबसे बड़ा दोषी है क्योंकि अगर लड़की को उसके परिजनों के कहने पर चलते हुए नासमझ मासूम मान लिया जाये तो दोनों मुल्ला तो पढ़े लिखे, ‘‘आलिमे दीन’’ हैं तो उन्हे मस्जिद की हुर्मत अच्छी तरह मालूम है फिर भी इन दोनों ने वह काम किया जिसके करने वाले को शरीयत सज़ाये मौत का हुक्म देती है मतलब शरीयत में जि़नाकार को मौत की सज़ा देने हुक्म दिया गया गया है जिनाकार (बलात्कारी) चाहे औरत हो या मर्द, मतलब यह कि जि़ना को इस्लाम में बहुत ही गलत माना गया है। एक आलिम अगर मस्जिद की हुरमत को पामाल करे तो उसको किसी भी हालत में बख्शा नहीं जाना चाहिये, चूंकि हिन्दोस्तान में इस्लामी कानून नहीं है तो देश के कानून के हिसाब से कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाने की कोशिश की जानी चाहिये। लेकिन यहां तो लोग उसकी पैरवी करके उसे बचाने के लिए प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं। अब बात करते हैं उन लड़कियों की जो पहले जि़ना करती है फिर रगें हाथों पकड़े जाने या किसी के देख लेने पर या फिर बाद में घर वालों के समझाने पर सारा का सारा आरोप लड़कों पर ही मंढ देती हैं। ऐसी लड़कियों को सज़ा दिये जाने की बजाये उन्हें बचाया जाता है उनकी तरफदारी करने का भी फैशन बना हुआ है तरफदारी में भी वे लोग आगे आगे रहते है जो इस्लाम ओर शरीयत के ठेकेदार बने फिरते है बात बात पर दूसरों को शरीयत बताते फिरते हैं आपको याद होगा कि लगभग पांच साल पहले बरेली के फरीदपुर की एक मुस्लिम लड़की एक गैरमुस्लिम लड़के के साथ भाग गयी और गैरमुस्लिम रीति रिवाज से शादी करके नौ दिन बाद वापिस आयी। ऊधर उसके मां बाप ने अपहरण का मामला दर्ज कराकर पुलिस की नींद उड़ादी मामला दो अलग समुदायों से जुड़ा था तो पुलिस के होश गायब थे। उसके वापिस आने पर पुलिस ने दोनों को घेर लिया बालिग थी पुलिस में उसने बयान दर्ज कराये कि अपनी मर्जी से पूरे होशोहवास में गयी थी और शादी भी करली लड़की बालिग होने की वजह से पुलिस भी हाथ पैर समेटने पर मजबूर हो गयी, बस फिर क्या था शरीयत के ठेकेदार जो शरीयत के तहाफ्फुज के नाम पर हर मामले में टांग अड़ाने के शौकीन हैं इस जि़नाकार लड़की की गैर कानूनी हिमायत में खड़े होकर प्रशासन को सताने लगे। हमनें तभी सवाल उठाया था कि यह किस शरीयत का तहाफ्फुज किया जा रहा है ? इस बार भी कुछ ऐसा ही नज़ारा दिखाई पड़ा।
आईये अब बात करें कि आखिर ऐसी कौन सी वजह है कि मस्जिद में इमामत करने के काम पर रखे गये शख्स मोहल्ले की एक न एक लड़की को फांस लेते है, कुछेक लेकर फरार हो जाते हैं तो कुछ जबतक रहते हैं तबतक मौजमस्ती, अय्याशियां करते हैं, कैसे मिल जाता है उनको इतने मौके ? क्या ये मुल्ला अपनी मर्जी से जबरदस्ती मोहल्लों की लड़कियों से इतना घुल मिल जाते है कि लड़कियां उनपर अपनी आबरू तक लुटा देती हैं, या फिर हम खुद ही जिम्मेदार हैं इन सब हालात के लिए ? इसका सही जवाब खोजना बहुत ज़रूरी हो गया है अगर अभी भी इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश नहीं की गयी तो वह दिन दूर नहीं जो अमरीका व गुजरात आतंक के एजेण्ट जो अभी तक इस्लाम को आतंकी मज़हब घोषित करने की कोशिशों में हैं वह दिन दूर नहीं रहेगा जो इस्लाम दुश्मन इस्लाम को अय्याश मज़हब कहना शुरू कर देंगे और अगर ऐसा हुआ तो  ठीक उसी तरह इसके जिम्मेदार भी हम ही होंगे जिस तरह इस्लाम पर किये जा रहे आतंकी हमलों के लिए हैं। हमें यह तलाशना होगा कि ऐसी कौनसी वजह है कि मस्जिदों में जमात इमामत की नौकरी करने आये छोरे उसी मोहल्ले की लड़कियों को फांस कर उनकी आबरूओं से खेलते हैं ? आईये हम बताते हैं इसकी वजहें-हमारी पहली कमी हम खुद शरीयत और आका (सल्ल.) के हुक्मों को पढ़ नहीं सकते, इसके लिए मोहताज ही रहना पड़ता है इसी मोहताजी के चलते हम मस्जिद में पेशइमाम अपने मोहल्ले बस्ती गांव में से किसी उम्रदार व्यक्ति को न रखकर मदरसों में आलिफ-बे-ते..... सीखने की शुरूआत कर रहे लड़कों को रखते हैं जवान लड़के हैं तो उत्सुक्ता होना स्वभाविक है अगर इनकी जगह मस्जिदों में जमात की इमामत करने के लिए अपनी गांव बस्ती के ही किसी उम्रदराज़ को लगाया जाये तो अपने मोहल्ले गांव बस्ती का कोई उम्रदार व्यक्ति होगा तो कुछ तो वह अपनी उम्र को देखते हुए भी ऐसी करतूतों से बचा रहेगा और कुछ मोहल्लेदारी गांव बस्ती का भी ख्याल रखने पर मजबूर होगा। 
दूसरी बात यहकि देखा जाता है कि मस्जिदों में नमाज़ पढ़ाने की नौकरी पर लगाये गये इन छोरांे को आसपास के कुछ लोग अपने घरों में खूब बैठाते हैं, जबकि मोहल्ले पड़ोस का कोई लड़का अगर दरवाजे के सामने खड़ा भी हो जाता है तो लोग यह कहकर लड़ने पर आमादा हो जाते हैं कि हमारे घर का सामना हो रहा है लेकिन मुल्ला जी औरतों के लिहाफ में बैठकर घण्टों तक टीवी देखते हैं तो इसपर एतराज नहीं होता क्यों ? और नतीजा यह होता है कि मुल्ला धीरे धीरे लड़कियों को अपने चुंगल में फंसा लेते है। मस्जिद में नमाज पढ़ाने के काम पर लगाये गये शख्स को मस्जिद तक ही सीमित क्यों नहीं रखा जाता, घरों में क्यों बैठाया जाता है। यह भी बहुत ही अहम वजह है मुल्लाओं द्वारा की जा रही हरकतों के पीछे। हमें अपनी इस गल्ती को सुधारते हुए मस्जिद के लिए रखे गये शख्स को मस्जिद तक ही सीमित तक रखना होगा घरों में हर समय बैठाने से बाज़ आना होगा। ज़रा इस्लाम की तारीख उठाकर पढ़ें तो मालूम होगा कि इस्लाम में गैर मर्दों को घरों (खासतौर पर जनानखानों) में आमतौर पर दाखिल होने की इजाजत ही नहीं दी गयी है वह चाहे नमाज पढ़ाने वाला पेशेइमाम हो या कोई मियां या फिर आसपड़ोस का ही कोई आदमी। तो फिर हम मस्जिदों में नमाज़ पढ़ाने वाले को अपनी औरतों लड़कियों के साथ बेतकल्लुफ होकर बैठने की इजाजत क्यों देते हैं और वो भी तब जबकि हर रोज एक नया केस सामने आ रहा है। हमे अपनी इस कमी को सुधारना चाहिये। साथ ही यह नमाज के पेशे इमाम जैसे जि़म्मेदारी वाले काम के लिए गांव बस्ती के ही किसी बुजुर्ग शख़्स को लगाया जाना चाहिये जोकि शरीयत का हुक्म भी है, मदरसों में र्कुआन पढ़ने के लिए अलिफ़-बे-ते सीखने आने वाले लड़कों को इतनी जिम्मेदारी भरा काम न सौंपा जाये वो भी उनको जो खुद अभी र्कुआन पढ़ना सीख रहे हों, जिनका तलफ्फुज़ भी ठीक न हो ऐसे शख्स वो भी 14 से 26 साल उम्र वाले छोरे इनको नमाज पढ़ाने जैसा अहम काम न दिया जाये ये मुसलमानों की इज्जतों की हिफाजत के लिए तो जरूरी है ही साथ ही शरीयत के हुक्म की तामील करने के अलावा इस्लाम को बेवजह की बदनामी से बचाने के लिए भी जरूरी है। हम यह भी जानते हैं कि हमारी यह बात उन लोगों को बहुत ही चुभेगी जो इन छोरों की बदौलत ही मालामाल हो रहे हैं लेकिन एक न एक दिन सच को तो कबूल करना ही होगा। अगर समय रहते सच्चाई को कबूलकर अपनी गल्ती को नहीं सुधारा गया और नमाज पढ़ाने की इमामत के लिए हुक्मे शरीयत के मुताबिक अपने इलाकों से ही किसी उम्रदराज़ शख्स को लगाना शुरू किया गया तो फिर इस्लाम दुश्मनों के हाथों होने वाली दीन की बदनामी के लिए हम ही पूरी तरह से जिम्मेदार होंगे।

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