Monday 7 January 2013

फ्लाप होता "लक्ष्य 2014"



समाजवादी पार्टी का आगामी लोकसभा चुनावों में उ0प्र0 के गुजरे विधानसभा चुनावों जैसा प्रदर्शन करने के सपनों को लेकर "लक्ष्य 2014" अभी से पूरी तरह फ्लाप होता नजर आ रहा है। उ0प्र0 के गुजरे विधानसभा चुनावों में सपा ने उम्मीद से कहीं ज्यादा सीटें जीतकर अपने बलबते पर सूबे की सरकार बनाली। दरअसल सूबे की गुलाम जनता ने सपा की अपेक्षा अखिलेश यादव में ज्यादा सपने देखे थे लेकिन विडम्बना यह रही कि गुलामों के सपने एक एक करके टूटकर बिखरने लगे। दरअसल अखिलेश यादव अपने पिता सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के किये कार्यों को ही दोहराने में समय गुजार रहे हैं यानी वहीं पुराने फार्मूले 'बेरोजगारी भत्ता, कन्या विद्याधन, वगैरा के साथ ही मायावती के किये कार्यो को पलटने में समय जाया किया जा रहा है। साथ हाल ही अखिलेश यादव ने बरेली से आबिद खां नामक व्यक्ति को "राज्य एकीकरण परिषद का उपाध्यक्ष" बना दिया यानी आंख मूंदकर लाल बत्ती थमा दी। इसी तरह फार्मूला पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी आजमाकर देखा था, क्या हुआ ? माया ने लालबत्ती थमाने के बाद गोपनीय समीक्षा कराई तो पता चला कि 50 वोट भी नहीं बढ़े साथ ही कुर्सी का किराया भी नहीं मिल रहा था आखिरकार वापिस करली गयी। अब अखिलेश यादव ने भी माया के नक्शे कदम पर ही पैर रख दिया। खैर फिलहाल तो सूबे की गुलाम जनता से वसूला गया पैसा मुख्यमंत्री की ही सम्पत्ति है जैसे चाहें जहां चाहें इस्तेमाल करें या जिसे चाहें मोटा रोजगार देदें इसमें गुलाम जनता की औकात नहीं कि एतराज का मुंह खोल सके। बात है किसी को लालबत्ती देने का उद्देश्य कया है ? मुख्यमंत्री का क्या उद्देश्य है या वे उनके सपने कितने साकार होंगे। सूबे की गुलाम जनता को तो आजतक किसी से कोई फायदा हुआ ही नहीं इसलिए गुलामों के भले की उम्मीद करना ही बेकार की बात है। लेकिन मुख्यमंत्री के इस कदम से खुद मुख्यमंत्री या उनकी पार्टी को क्या फायदा होगा या किस फायदे की उम्मीद पर यह फैसला किया है यह विचार का विषय है। अगर अखिलेश यादव को लगता है कि सपा को मिलने वाले मुस्लिम वोटों में भारी इजाफा होगा तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल कही जायेगी या फिर ‘ मुगंरी लाल के सुन्हरे सपने कहे जा सकते हैं ’, क्योंकि वोट दर में हजार पांच सौ से ज्यादा इजाफा नहीं होने वाला साथ यह भी ध्यान में रखने वाली बात है कि अगर मुख्यमंत्री के इस कदम से सपा के खाते में हजार-पांच सौ वोट बढ़ेंगे तो दो-चार हजार वोट कम होना भी तय है, क्योंकि इस मामले को बारीकी से देखना होगा। अखिलेश यादव ने सिर्फ दरगाह की वजह से ही यह कदम उठाया है यानी मायावती की तरह ही अखिलेश यादव का भी मानना है कि दरगाह से जुड़े किसी व्याक्ति को कुर्सी दे देने से सारा मुस्लिम वोट सपा के खाते में चला जायेगा तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल होगी। मुख्यमंत्री या सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को यह नही भूलना चाहिये कि ये मुसलमान हैं इनमें आपसी ( धार्मिक मान्यता ) मतभेद सबसे ऊपरी सतह पर रहता है और इसे कोई मिटा नहीं सकता। मुसलमान के आपसी मतभेद इस तरह हैं जैसे कि बहती दरिया के दोनों किनारे, जो कभी एक नहीं हो सकते। इस कारण यह साफ है कि अगर मुस्लिम वोटों में इजाफे की उम्मीद पर यह फैसला लिया है तो फिर मुख्यमंत्री को हजारों की तादाद में मुस्लिम वोट खोने के लिए तैयार रहना होगा, हम तो यहां तक कह सकते हैं कि सीटों का नुकसान बर्दाश्त करने को तैयार रहना होगा। मुख्यमंत्री को यह अच्छी तरह याद रखना होगा कि तमाम मुसलमान एक साथ ही उनके साथ नहीं आ सकते, इसलिए किसी एक ग्रुप को साध लेने से ही काम नहीं चलता, दूसरी सच्चाई यह भी जान लेना जरूरी है कि व्यक्तिगत रूप से भी उस व्यक्ति को अच्छे पैमाने पर लोकप्रिय होना भी जरूरी है। अगर मुख्यमंत्री यह समझते हैं कि दरगाह से जुड़े किसी शख्स को कुर्सी थमा देने से ही सारा मुस्लिम वोट एक प्लेटफार्म पर आ जायेगा तो यह सिर्फ सुन्हरा सपना ही है, सबूत के तौर पर देंखें कि दरगाह के ही मन्नान रजा ने खुद भी लोकसभा चुनाव लड़ा और जमानत जब्त करा दी। दरगाह के ही तौकीर रजा ने अपनी पार्टी को लोकसभा चुनावों में उतारा दूसरी सीटें तो बड़ी बात बरेली लोकसभा सीट पर भी जमानत जब्त हो गयी। मन्नान रजा ने इसी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को समर्थन का एलान किया इसका नतीजा सबके सामने है, मतलब यह कि अगर दरगाह से जुड़े लोगों को भी दरगाह के सम्मान के बराबर माना जाने लगे तो यह सिर्फ नासमझी ही कहलायेगी क्योंकि दरगाह के सम्मान के बराबरी किसी को नहीं दी जा सकती। हां अगर दरगाह वालों की बात हो तो इसमें कोई शक नहीं कि तमाम मुसलमान आंख मूंदकर उनके इशारे पर चलने को तैयार को तैयार हो जाता। लेकिन दरगाह से जुड़े किसी भी शख्स को वैसा सम्मान या मान्यता हासिल नहीं है। 
आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा के मजबूत होकर उभरने की मजबूत उम्मीद पाई जा रही है। इसका सीधा और इकलौता कारण हैं कांग्रेस की करतूतों से गुलाम जनता की ऊब जाना। कांग्रेस से ऊब जाने के बाद मुस्लिम वोटों के सामने सपा और बसपा ही विकल्प बचते हैं बसपा को कई बार मुसलमानों ने सरकार तक पहुंचाया लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने सरकार में आने के बाद मुसलमानों को कुछ देने की बजाये सिर्फ अपने अपनों को ही रेवडि़यां बांटी, आखिरकार मुसलमान ने मायावती से मुंह मोड़ लिया ओर नतीजा मायावती सड़क पर आ गयी। एक दो बार ऐसा ही कुछ मुलायम सिंह यादव ने भी किया था तो मुस्लिमों ने उन्हें भी सत्ता से बाहर कर दिया था लेकिन इसबार अखिलेश यादव से कुछ उम्मीद की थी लेकिन मुसमानों की बदकिस्मती यह रही कि उनकी यह उम्मीद भी चकनाचूर होती नज़र आ रही है। अब इन हालात में आगामी लोकसभा 2014 चुनावों में मुसलमानों के सामने कांग्रेस, सपा, बसपा का विकल्प ही नही बचता दिख रहा है। जाहिर है मुस्लिम वोट मतदान से दूरी बनाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिख रहा, और अगर ऐसा हुआ तो इसका सीधा फायदा बीजेपी को ही होना है।
इन हालात को सामने रखकर ही कोई फैसला लें तब ही आगामी चुनावों में कुछ हासिल कर सकते हैं मुख्यमंत्री या सपा मुखिया को ना चाहकर भी कुछ कड़े फैसले करने होंगे। कुछ ऐसे भी कदम उठाने होंगे जो उन्हें पसन्द नही हों या फिर ऐसे फैसले जिनकी उनकी नजर में कोई वैल्यू न हो।

No comments:

Post a Comment