Friday, 8 February 2013

मुल्लाओं की करतूतें-गलती किसकी


इमरान नियाज़ी
हर रोज एक नये मुल्ला द्वारा बलात्कार, अय्याशी, लड़की के साथ भागने, यहां तककि किशोरों तक के साथ अप्राकृतिक कुकर्म किये जाने के मामले सामने आते हैं। दो चार फीसदी ही मामले पुलिस और मीडिया के कानों तक आ पाते हैं बाकी के मामलों को पीडि़तों के परिवार वाले बदनामी के डर से दबा लेते है तो कुछ मामलों को मुल्लाओं की बदनामी न करने की जाहिलाना सोच का दबाव बनाकर आस पड़ोस के लोग दबा देते हैं। क्यों ? क्यों नहीं सजा मिलने देते इन गुण्डों को। सबसे पहला सवाल तो यह है कि आखिर मस्जिदों में इमामत के लिए इन नौजवानों को रखा ही क्यों जाता है, क्या मोहल्लों में इस काबिल कोई नहीं रहा ? क्या मोहल्लों में उम्रदराज़ नमाजी र्कुआन के पढ़ने वाले नहीं रहे जो इन लड़कों को रखा जाने लगा है ? जबकि शरीयत ने तो इमामत के लिए सबसे पहली ओर अफजल सिफत उम्रदराजी (ज्यादा उम्र) बताई है तो फिर नई उम्र के इन लड़कों को इमामत के क्यों रखा जा रहा है। अगर बात आलिमे दीन की है तो ये छोरे तो मुकम्मल र्कुआन भी पढ़े हुए नहीं होते यहां पढ़ने के लिए आते हैं, फिर क्यों इन्हें इमामत पर खड़ा किया जा रहा है। दूसरी बात शरियत ने र्कुआन के तलफ्फुज़ (उच्चारण) का सही होने पर ज़ोर दिया है और बंगाल बिहार से आये इन छोरों को सही से बात करना तक नहीं आता तो र्कुआन का तलफ्फुज़ कैसे सही हो सकता है। क्या जरूरी है कि इन लड़को को ही इमामत के लिए रखा जाये, मोहल्ले बस्ती शहर के उम्रदराज़ लोगों से इमामत कराने में कया दिक्कत है। शरीयत ने भी ज्यादा उम्र वाले को ही सबसे ज्यादा अहमियत देने को कहा है। गुजरे साल ही जगतपुर की एक लड़की मुल्ला के साथ भाग गयी जो आजतक वापिस नहीं हुई, मुल्ला को दोस्त आजतक जेल में सड़ रहा है मामला कई रोज तक मीडिया में छाया रहा। प्रशासन के कई रोज़ तक होश उड़े रहे, दूर दूर तक इसी की चर्चायें थीं। लड़की मुल्ला के साथ भाग गयी उसके परिजनों ने अपहरण का मामला बताकर रिपोर्ट करदी पुलिस ने भी आंख मूंदकर अपहरण का मामला दर्ज कर लिया और इसी सोच में डूबकर चार्जशीट भी लगादी, जांच अधिकारी ने मामले की सच्चाई को खोजने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। अभी हाल ही में फिर एक लड़की मुल्ला के पास अय्याशी करती पकड़ी गयी वह भी मस्जिद जैसी पाक जगह में, उसके घर वालों ने जब बेटी को मस्ती की हालत में देखा तो बलात्कार को आरोप लगा दिया पुलिस ने भी बिना सोचे समझे तर्कविहीन तरीके से धारा 376 ठोंक दी। आईपीसी की धारा 376 जि़ना बिल जब्र यानी बल पूर्वक बलात्कार। अगर लड़की के परिजनों ओर पुलिस की मानें तो सवाल यह पैदा होता है कि लड़की कई घर से गायब होकर कई घण्टों तक मुल्ला के पास में रही और उसने शोर नहीं मचाया चीखी चिल्लाई नहीं ? उसकी मां के मुताबिक उसकी बेटी और बेटी की सहेली साथ में निकली थीं। लड़की के परिजनों की मानें तो सोचने का बिन्दू यह है कि दो लड़कियां साथ थीं तो एक को ही पकड़ा गया, अगर दूसरी बचकर भागने में कामयाब हो गयी तो उसने घर वालों को सूचना क्यों नहीं दी, शोर क्यों नहीं मचाया ? इन बिन्दुओं को पुलिस ने भी खोजने की कोशिश नहीं की सीधे सीधे बलात्कार का मामला दर्ज कर दिया, हालांकि डाक्टरी रिपोर्ट के बाद मामला तरमीम कर दिया गया। हमारे कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि मुल्ला दोषी नहीं है वह तो सबसे बड़ा दोषी है क्योंकि अगर लड़की को उसके परिजनों के कहने पर चलते हुए नासमझ मासूम मान लिया जाये तो दोनों मुल्ला तो पढ़े लिखे, ‘‘आलिमे दीन’’ हैं तो उन्हे मस्जिद की हुर्मत अच्छी तरह मालूम है फिर भी इन दोनों ने वह काम किया जिसके करने वाले को शरीयत सज़ाये मौत का हुक्म देती है मतलब शरीयत में जि़नाकार को मौत की सज़ा देने हुक्म दिया गया गया है जिनाकार (बलात्कारी) चाहे औरत हो या मर्द, मतलब यह कि जि़ना को इस्लाम में बहुत ही गलत माना गया है। एक आलिम अगर मस्जिद की हुरमत को पामाल करे तो उसको किसी भी हालत में बख्शा नहीं जाना चाहिये, चूंकि हिन्दोस्तान में इस्लामी कानून नहीं है तो देश के कानून के हिसाब से कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाने की कोशिश की जानी चाहिये। लेकिन यहां तो लोग उसकी पैरवी करके उसे बचाने के लिए प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं। अब बात करते हैं उन लड़कियों की जो पहले जि़ना करती है फिर रगें हाथों पकड़े जाने या किसी के देख लेने पर या फिर बाद में घर वालों के समझाने पर सारा का सारा आरोप लड़कों पर ही मंढ देती हैं। ऐसी लड़कियों को सज़ा दिये जाने की बजाये उन्हें बचाया जाता है उनकी तरफदारी करने का भी फैशन बना हुआ है तरफदारी में भी वे लोग आगे आगे रहते है जो इस्लाम ओर शरीयत के ठेकेदार बने फिरते है बात बात पर दूसरों को शरीयत बताते फिरते हैं आपको याद होगा कि लगभग पांच साल पहले बरेली के फरीदपुर की एक मुस्लिम लड़की एक गैरमुस्लिम लड़के के साथ भाग गयी और गैरमुस्लिम रीति रिवाज से शादी करके नौ दिन बाद वापिस आयी। ऊधर उसके मां बाप ने अपहरण का मामला दर्ज कराकर पुलिस की नींद उड़ादी मामला दो अलग समुदायों से जुड़ा था तो पुलिस के होश गायब थे। उसके वापिस आने पर पुलिस ने दोनों को घेर लिया बालिग थी पुलिस में उसने बयान दर्ज कराये कि अपनी मर्जी से पूरे होशोहवास में गयी थी और शादी भी करली लड़की बालिग होने की वजह से पुलिस भी हाथ पैर समेटने पर मजबूर हो गयी, बस फिर क्या था शरीयत के ठेकेदार जो शरीयत के तहाफ्फुज के नाम पर हर मामले में टांग अड़ाने के शौकीन हैं इस जि़नाकार लड़की की गैर कानूनी हिमायत में खड़े होकर प्रशासन को सताने लगे। हमनें तभी सवाल उठाया था कि यह किस शरीयत का तहाफ्फुज किया जा रहा है ? इस बार भी कुछ ऐसा ही नज़ारा दिखाई पड़ा।
आईये अब बात करें कि आखिर ऐसी कौन सी वजह है कि मस्जिद में इमामत करने के काम पर रखे गये शख्स मोहल्ले की एक न एक लड़की को फांस लेते है, कुछेक लेकर फरार हो जाते हैं तो कुछ जबतक रहते हैं तबतक मौजमस्ती, अय्याशियां करते हैं, कैसे मिल जाता है उनको इतने मौके ? क्या ये मुल्ला अपनी मर्जी से जबरदस्ती मोहल्लों की लड़कियों से इतना घुल मिल जाते है कि लड़कियां उनपर अपनी आबरू तक लुटा देती हैं, या फिर हम खुद ही जिम्मेदार हैं इन सब हालात के लिए ? इसका सही जवाब खोजना बहुत ज़रूरी हो गया है अगर अभी भी इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश नहीं की गयी तो वह दिन दूर नहीं जो अमरीका व गुजरात आतंक के एजेण्ट जो अभी तक इस्लाम को आतंकी मज़हब घोषित करने की कोशिशों में हैं वह दिन दूर नहीं रहेगा जो इस्लाम दुश्मन इस्लाम को अय्याश मज़हब कहना शुरू कर देंगे और अगर ऐसा हुआ तो  ठीक उसी तरह इसके जिम्मेदार भी हम ही होंगे जिस तरह इस्लाम पर किये जा रहे आतंकी हमलों के लिए हैं। हमें यह तलाशना होगा कि ऐसी कौनसी वजह है कि मस्जिदों में जमात इमामत की नौकरी करने आये छोरे उसी मोहल्ले की लड़कियों को फांस कर उनकी आबरूओं से खेलते हैं ? आईये हम बताते हैं इसकी वजहें-हमारी पहली कमी हम खुद शरीयत और आका (सल्ल.) के हुक्मों को पढ़ नहीं सकते, इसके लिए मोहताज ही रहना पड़ता है इसी मोहताजी के चलते हम मस्जिद में पेशइमाम अपने मोहल्ले बस्ती गांव में से किसी उम्रदार व्यक्ति को न रखकर मदरसों में आलिफ-बे-ते..... सीखने की शुरूआत कर रहे लड़कों को रखते हैं जवान लड़के हैं तो उत्सुक्ता होना स्वभाविक है अगर इनकी जगह मस्जिदों में जमात की इमामत करने के लिए अपनी गांव बस्ती के ही किसी उम्रदराज़ को लगाया जाये तो अपने मोहल्ले गांव बस्ती का कोई उम्रदार व्यक्ति होगा तो कुछ तो वह अपनी उम्र को देखते हुए भी ऐसी करतूतों से बचा रहेगा और कुछ मोहल्लेदारी गांव बस्ती का भी ख्याल रखने पर मजबूर होगा। 
दूसरी बात यहकि देखा जाता है कि मस्जिदों में नमाज़ पढ़ाने की नौकरी पर लगाये गये इन छोरांे को आसपास के कुछ लोग अपने घरों में खूब बैठाते हैं, जबकि मोहल्ले पड़ोस का कोई लड़का अगर दरवाजे के सामने खड़ा भी हो जाता है तो लोग यह कहकर लड़ने पर आमादा हो जाते हैं कि हमारे घर का सामना हो रहा है लेकिन मुल्ला जी औरतों के लिहाफ में बैठकर घण्टों तक टीवी देखते हैं तो इसपर एतराज नहीं होता क्यों ? और नतीजा यह होता है कि मुल्ला धीरे धीरे लड़कियों को अपने चुंगल में फंसा लेते है। मस्जिद में नमाज पढ़ाने के काम पर लगाये गये शख्स को मस्जिद तक ही सीमित क्यों नहीं रखा जाता, घरों में क्यों बैठाया जाता है। यह भी बहुत ही अहम वजह है मुल्लाओं द्वारा की जा रही हरकतों के पीछे। हमें अपनी इस गल्ती को सुधारते हुए मस्जिद के लिए रखे गये शख्स को मस्जिद तक ही सीमित तक रखना होगा घरों में हर समय बैठाने से बाज़ आना होगा। ज़रा इस्लाम की तारीख उठाकर पढ़ें तो मालूम होगा कि इस्लाम में गैर मर्दों को घरों (खासतौर पर जनानखानों) में आमतौर पर दाखिल होने की इजाजत ही नहीं दी गयी है वह चाहे नमाज पढ़ाने वाला पेशेइमाम हो या कोई मियां या फिर आसपड़ोस का ही कोई आदमी। तो फिर हम मस्जिदों में नमाज़ पढ़ाने वाले को अपनी औरतों लड़कियों के साथ बेतकल्लुफ होकर बैठने की इजाजत क्यों देते हैं और वो भी तब जबकि हर रोज एक नया केस सामने आ रहा है। हमे अपनी इस कमी को सुधारना चाहिये। साथ ही यह नमाज के पेशे इमाम जैसे जि़म्मेदारी वाले काम के लिए गांव बस्ती के ही किसी बुजुर्ग शख़्स को लगाया जाना चाहिये जोकि शरीयत का हुक्म भी है, मदरसों में र्कुआन पढ़ने के लिए अलिफ़-बे-ते सीखने आने वाले लड़कों को इतनी जिम्मेदारी भरा काम न सौंपा जाये वो भी उनको जो खुद अभी र्कुआन पढ़ना सीख रहे हों, जिनका तलफ्फुज़ भी ठीक न हो ऐसे शख्स वो भी 14 से 26 साल उम्र वाले छोरे इनको नमाज पढ़ाने जैसा अहम काम न दिया जाये ये मुसलमानों की इज्जतों की हिफाजत के लिए तो जरूरी है ही साथ ही शरीयत के हुक्म की तामील करने के अलावा इस्लाम को बेवजह की बदनामी से बचाने के लिए भी जरूरी है। हम यह भी जानते हैं कि हमारी यह बात उन लोगों को बहुत ही चुभेगी जो इन छोरों की बदौलत ही मालामाल हो रहे हैं लेकिन एक न एक दिन सच को तो कबूल करना ही होगा। अगर समय रहते सच्चाई को कबूलकर अपनी गल्ती को नहीं सुधारा गया और नमाज पढ़ाने की इमामत के लिए हुक्मे शरीयत के मुताबिक अपने इलाकों से ही किसी उम्रदराज़ शख्स को लगाना शुरू किया गया तो फिर इस्लाम दुश्मनों के हाथों होने वाली दीन की बदनामी के लिए हम ही पूरी तरह से जिम्मेदार होंगे।

Saturday, 26 January 2013

गणतन्त्र या खादी और वर्दीतन्त्र-इमरान नियाज़ी


          हिन्दोस्तानी अवाम 1950 से लगातार 26 जनवरी का जश्न मनाते आ रहे हैं, खूब जमकर खुशियां मनाते है हैं नाचते गाते हैं मानों ईद या दीवाली हो। 62 साल के लम्बे अर्से में आजतक शायद ही किसी ने यह सोचा हो कि किस बात की खुशियां मना रहे है। क्या है 26 जनवरी की हकीकत, यह जानने की किसी ने कोशिश नहीं की। बस सियारी हू हू कर रहे हैं। क्या है 26 जनवरी को जश्न का मतलब, गणतन्त्र या खादी और वर्दीतन्त्र। गणतन्त्र के मायने कया हैं। कया 26 जनवरी वास्तविक रूप में गणतन्त्र दिवस है? है तो केसे है? कोई बता सकता है कि 26 जनवरी को जिस संविधान को लागू किया गया था उसमें गण की क्या औकात है या गण के लिए क्या है? जाहिर है कि शायद ही कोई बता सके कि 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान में गण के लिए कुछ है। कुछ है ही नहीं तो कोई बता भी क्या सकेगा। इसलिए हम दावे के साथ कह सकते हैं कि 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस नहीं बल्कि वर्दीतन्त्र और खादीतन्त्र दिवस है।
गण का मतलब हर खास और आम यानी अवाम। और गणतन्त्र का मतलब है अवाम का अपनी व्यवस्था। ऐसी व्यवस्था जिसमें अवाम की कोई इज्जत हो, अवाम को आजादी से जीने का हक हो, जनता को अपना दुख दर्द कहने का हक हो, जनता को बिना किसी धर्म जाति रंग क्षेत्र के भेदभाव किये न्याय मिले आदि आदि। लेकिन क्या गण 26 जनवरी को जिस गणतन्त्र के नाम पर उछल कूद रहे हैं उसमें गण को यह सब चीजें दीं हैं? नाम को भी नहीं, क्योंकि यह गणतन्त्र है ही नहीं। यह तो खादीतन्त्र और वर्दीतन्त्र है। दरअसल 15 अगस्त 1947 की रात जब ब्रिटिश भारत छोड़कर गये तो गांधी ने ऐलान किया कि ‘‘ आज से ‘‘हम’’ आजाद हैं ’’। गांधी के इस हम शब्द को गुलाम जनता ने समझा कि वे (गुलाम जनता) आजाद हो गये। जबकि ऐसा नहीं था गांधी के ‘‘हम’’ शब्द का अर्थ था गांधी की खादी पहनने वाले और खादी के जीवन को चलाने वाली वर्दी। यानी खादी और वर्दी आजाद हुई थी। गण तो बेवजह ही कूदने लगे और आजतक कूद रहे हैं। कम से कम गांधी जी के ‘‘ हम’’ का अर्थ समझ लेते तब ही कूदते। खैर मेरे देशवासी सदियों से सीधे साधे रहे है और इनकी किस्मत में गुलामी ही है लगभग ढाई सरौ साल तक ब्रिटिशों ने गुलाम बनाकर रखा। जैसे तैसे ब्रिटिशों से छूटे तो कुछ ही लम्हों में देसियों ने गुलाम बना लिया, रहे गुलाम ही। कहा जाता है कि 26 जनवरी 1950 को हमारे देश का संविधान लागू किया गया था उसी का जश्न मनाते हैं। अच्छी बात है संविधान लागू होने का जश्न मनाना भी चाहिये। लेकिन सवाल यह है कि किसको मनाना चाहिये जश्न? क्या उन गुलाम गणों को जिनको इस संविधान में ज़रा सी भी इज्जत या हक नहीं दिया गया, जो ज्यों के त्यों गुलाम ही बनाये रखे गये हैं? या उनको जिनको हर तरह की आजादी दी गयी है देश के मालिक की हैसियतें दीं गयीं हैं, जिन्हें खुलेआम हर तरह की हरकतें करने की छूट दी गयी है? जिनके आतंक को सम्मान पुरूस्कार दिये जाते हों या जिनके हाथों होने वाले सरेआम कत्लों को मुठभेढ़ का नाम दिया जाता हो। हमारा मानना है कि गुलाम गणों को कतई भी कूदना फांदना नहीं चाहिये। 15 अगस्त और 26 जनवरी की खुशियां सिर्फ खादी और वर्दीधारियों को ही मनाना चाहिये क्योंकि 26 जनवरी 1950 को जिस संविधान को लागू किया गया वह सिर्फ खादी और वर्दीधारियों को ही आजादी, मनमानी करने का अधिकार देता है। गुलाम जनता (गण) पर तो कानून ब्र्रिटिश शासन का ही है। देखिये खददरधारियों को संविधान से मिली आजादी के कुछ जीते जागते सबूत। केन्द्र की मालिक खादी ने मनमाना फैसला करते हुए पासपोर्ट बनाने का काम निजि कम्पनी को दे दिया, यह कम्पनी गुलाम को जमकर लूटने के साथ साथ खुली गुण्डई भी कर रही है। कम्पनी भी लूटमार करने पर मजबूर है क्यांेकि उसकी कमाई का आधा माल तो खददरधारियों को जा रहा है। केन्द्र व राज्यों की मालिक खादी ने सड़को को बनाने और ठीक करके गुलामों से हफ्ता वसूली का ठेका निजि कम्पनियों को दे दिया। ये कम्पनियां पूरी तरह से गैर कानूनी उगाही कर रही है एक तरफ तो टौलटैक्स की बसूली ही पूरी तरह से गैरकानूनी है ही साथ ही गरीब गुलामों के मुंह से निवाला भी छीनने की कवायद है। अभी हाल ही में रेल मंत्री ने मनमाना किराया बढ़ाकर गुलामों को अच्छी तरह लूटने की कवायद को अनजाम दे दिया और तो और इस कवायद में खादीधारी (रेलमंत्री) रेलमंत्री ने गुलाम गणों की खाल तक खींचने का फार्मूला अपनाते हुए पहले से खरीदे गये टिकटों पर भी हफ्ता वसूली करने का काम शुरू करा दिया। 26 जनवरी 1950 को लागू किये जाने वाले ब्रिटिश संविधान में आजाद हुई खादी और गुलाम गणों के बीच का फर्क का सबूत यह भी है कि हवाई जहाज के किराये में भारी कमी के साथ ही इन्टरनेट प्रयोग भी सस्ता करने की कवायद की जा रही है तो गरीब गुलाम गणों के मुंह का निवाला भी छीनने के लिए महीने में दो तीन बार डीजल के दाम बढ़ा दिये जाते हैं क्योंकि 15 अगस्त 1947 को गांधी जी द्वारा बोले गये शब्द ‘‘ हम’’ यानी खददरधारी अच्छी तरह जानते हैं कि  डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर गरीब गुलाम गणों के निवालों पर पड़ता है जबकि हवाई यात्रा या इन्टरनेट का प्रयोग गरीब गुलाम गण नही कर सकते। देश के किसी भी शहर में जाकर देखिये छावनी क्षेत्र में प्रवेश पर गुलाम गणों से प्रवेश कर तो लिया ही जाता है साथ ही अब तो हाईवे पर भी सेना उगाही की जाती है। वर्दीधारी किसी को सरेआम कत्ल करते हैं तो उसे मुठभेढ़ का नाम देकर कातिलों को ईनाम दिये जाते हैं अगर विरोध की आवाज उठे तो जांच के ड्रामें में मामला उलझाकर कातिलों का बचाव कर लिया जाता है। हजारों ऐसे मामले हैं। कुछ दिन पहले ही सेना ने एक मन्दबुद्धी गरीब गुलाम नौजवान को कत्ल कर दिया ड्रामा तो किया कि आतंकी था लेकिन चन्द घण्टों में ही सच्चाई सामने आ गयी लेकिन आजतक कातिलों के खिलाफ मुकदमा नही लिखा गया, बरेली के पूर्व कोतवाल ने हिरासत में एक लड़के को मार दिया विरोध के बाद जांच का नाटक शुरू हुआ वह भी ठण्डा पड़ गया। यही अगर कोई गुलाम गण करता तो अब तक अदालतें उसे जमानत तक न देती। बरेली के थाना सीबी गंज के पूर्व थानाध्यक्ष वीएस सिरोही फिरौती वसूलता था इस मामले की शिकायतों सबूतों के बावजूद आजतक उसके खिलाफ कार्यवाही की हिम्मत किसी की नही हुई क्योंकि वह वर्दीधारी है उसे 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये ब्रिटिश संविधान ने इन सब कामों की आजादी दी है जो गुलाम गणों के लिए दण्डनीय अपराध माने गये हैं। रेलों में फौजी गुलामों गणों को नीचे उतारकर पूरी पूरी बोगियां खाली कराकर खुद आराम से सोते हुए सफर करते हैं, रेल में खददरधारियों के साथ साथ उनके कई कई चमचों तक को फ्री तफरी करने के अधिकार दिये जाते है जबकि गुलाम गणों को प्लेटफार्म पर जाने तक के लिए गुण्डा टैक्स अदा करना पड़ता है। स्टेशनों, विधानसभा, लोकसभा, सचिवालय समेत किसी भी जगह में प्रवेश करने पर गुलाम गणों को चोर उचक्का मानकर तलाशियां ली जाती हैं प्रवेश के लिए गुलामों को पास बनवाना पड़ता है वह इधर से ऊधर धक्के दुत्कारे सहने के बाद जबकि खददरधारियों और वर्दीधारियों को किसी पास की आवश्यक्ता नही होती, कहीं कफर््यु लग जाये तो गुलाम गणों को धर से बाहर निकलने पर मालिकों (वर्दी) के हाथों पिटाई और अपमानित होना पड़ता है जबकि खददरधारियों और वर्दीधारियों को खुलेआम घूमने, अपने सगे सम्बंधियों को इधर ऊधर लाने ले जाने की छूट रहती है खादी ओर वर्दी को छूट होने के साथ साथ उनके साथ चल रहे सगे सम्बंधियों मित्रों चमचों तक को पास की जरूरत नहीं होती। वर्दी जब चाहे जिससे चाहे जितनी चाहे गुलाम गणों से बेगार कराले पूरी छूट है जैसे लगभग दो माह पहले बरेली में तैनात एक पुलिस अधिकारी का कोई रिश्तेदार मर गया उसकी अरथी के साथ पुलिस अधिकारी के दूसरे रिश्तेदारों को शमशान भूमि तक जाना था, किसी पुलिस अफसर के रिश्तेदार  पैदल अरथी के साथ जावें यह वर्दी के लिए शर्म की बात है बस इसी सोच और परम्परा के चलते कोतवाली के कई सिपाही ओर दरोगा दौड़ गये चैराहा अय्यूब खां टैक्सी स्टैण्ड पर और वहां रोजी रोटी की तलाश में खड़ी दो कारों को आदेश दिया कि साहब के रिश्तेदारों को लेकर जाओ, टैक्सी वाले बेचारे गुलाम गण मजबूर थे मालिकों की बेगार करने को, यहां तककि डीजल के पैसे तक नहीं दिये गये और रात ग्यारह बजे छोड़ा गया, क्योंकि 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान ने वर्दी को गुलाम गणों से बेगार कराने का अधिकार दिया है। 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान में खादी और वर्दी को दी गयी आजादी औेर गण को ज्यों का त्यों गुलाम बनाकर रखने का एक छोटा सा सबूत और बतादें। सभी जानते है कि देश भर में अकसर दुपहिया वाहनों की चैकिंग के नाम पर उगाही करने का प्रावधान है इन चैकिंगों के दौरान गुलाम गणों से बीमा, डीएल, वाहन के कागज और हैल्मेट के नाम पर सरकारी व गैरसरकारी उगाहियां की जाती है लेकिन आजतक कभी किसी वर्दीधरी को चैक नहीं किया गया जबकि हम दावे के साथ कह सकते है कि 65 फीसद वर्दी वाले वे वाहन चलाते हैं जो लावारिस मिला हुई है चोरी में बरामद हुई होती हैं। लगभग एक साल पहले बरेली के थाना किला की चैकी किला पर उगाही की जा रही थी इसी बीच थाना सीबी गंज का एक युवक ऊधर से गुजरा वर्दी वालों ने रोक लिया उसके पेपर्स देखे और सब कुछ सही होने पर उसके पेपर उसे वापिस दे दिये साथ ही उसका चालान भी भर दिया उगाही की ताबड़तोड़ की यह हालत थी कि चालान पत्र पर गाड़ी की आरसी जमा करने का उल्लेख किया जबकि उसकी आरसी, डीएल, बीमा आदि उसको वापिस भी दे दिया। गुजरे साल हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान चुनाव आयोग ने मतदाताओं की खरीद फरोख्त को रोकने के लिए ज्यादा रकम लेकर चलने पर रोक लगा दी इसके तहत चैपहिया वाहनों की तलाशियां कराई गयी इस तलाशी अभियान में भी सिर्फ गुलाम गणों की ही तलाशियां ली गयी। चुनाव आयोग ने खददरधारियों पर रोक लगाने की कोशिश की लेकिन खददरधारियों ने उसका तोड़ तलाश लिया। खददरधारियों ने पैसा लाने ले जाने के लिए अपने वाहनों का प्रयोग नही किया बल्कि ‘‘ पुलिस, यूपीपी, उ0प्र0पुलिस, पुलिस चिन्ह बने वाहनों का इस्तेमाल किया या वर्दीधारी को साथ बैठाकर रकम इधर से ऊधर पहुंचाई, क्योकि खददरधारी जानते है कि वर्दी और वर्दी के वाहन चैक करने की हिम्मत तो किसी में है ही नहीं। चुनाव आयोग के अरमां आसुंओं में बह गये।
इस तरह के लाखों सबूत मौजूद है यह साबित करने के लिए कि 15 अगस्त 1947 को ‘‘गण’’ आजाद नहीं हुए बल्कि सिर्फ मालिकों के चेहरे बदले ओर 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान में ‘‘गण’’ के लिए कुछ नहीं जो कुछ अधिकार ओर आजादी दी गयी है वह सिर्फ वर्दी ओर खादी को दी गयी है। इसलिए हमारा मानना है कि ‘‘गण्तन्त्र’’ नहीं बल्कि खादीतन्त्र और वर्दीतन्त्र है। 

छिटपुट छेड़छाड़ के बावजूद अमन से निबटा जुलूसे मोहम्मदी



बरेली-पैगम्बरे इस्लाम हुजूर मोहम्मद मुस्तफा (सल्ला0) यौमे ज़हूर के मौके पर बरेली और आसपास के जिलों आशिकाने नबीये करीम (सल्ल0) पूरी शानो शौकत से जुलूस मुहम्मदी निकालते हैं। आजका जुलूस छिटपुट छेड़छाड़ के बावजूद पूरी तरह अमन से गुजर गया। बरेली के थाना किला के कुछ गांवों में जुलूस के दौरान छेड़छाड़ की गयी, पत्थराव व फायरिंग हुई, लेकिन प्रशासन की मुस्तैदी ने खुराफातियों के हौसलों को कुचल दिया। कुछ लोग जख्मी हुए।
1980 से बरेली शहर में और 1979 से बरेली के कस्बा सिरौली में जुलूस उठ रहा है।

जुलूस का इतिहासः-
दुनिया का सबसे पहला जुलूसे मोहम्मदी हुजूर (सल्ल0) की आमद (पैदाइश) से एक हजार साल पहले मदीने में उठाया गया। एक यहूदी बादशाह तमाम देशों को लूटकर गुलाम बनाता हुआ मदीने पहुंचा। क्योंकि उस जमाने में फौजे किसी देश पर हमला करने से पहले अपनी मांग सामने रखती थीं अगर लोग बात मान लेते तो जंग नहीं होती वरन्ा जगंे होती थीं। इसी उसूल के तहत उस बादशाह ने मदीने वालों को संदेश भेजा कि ‘‘ मदीने वाले गुलामी कबूल करें या फिर जंग करें ’’, मदीने के लोगों ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और रात के अंधेरे में लुटेरे बादशाह की फौजों के शिविरों के बाहर खजूरों से भरे बोरे रखवा दिये, सुबह फौजियों ने खजूरे देखी तो बहुत खुश होकर खाईं, अगले रात मदीने वालों ने फिर खजूरे रखवा दीं सुबह फिर फोजियों ने खाई इसी तरह तीसरी रात भी मदीने वालों ने लुटेरी फौज के शिविरों के बाहर खजूरें रखवा दीं। चैथे दिन यहूदी राजा बहुत चैंका और अपने कुछ सिपाहियों को साथ लेकर मदीने शहर में गया और वहां लोगों से पूछा कि ‘‘ हम आपको  लूटने आये हैं और आप हमें खजूरे खिला रहे हैं क्या मामला है? इसपर मदीने वालों ने उससे कहा कि ‘‘ यह वह शहर है जहां एक ऐसा नबी आयेगा जो अपने घर आये दुश्मन को भी मोहब्बत करेगा और खातिरदारी करेगा, इसलिए हम उस प्यारे नबी की ही सुन्नत पर चल रहे है ’’। यह सुनकर यहूदी बादशाह नबीये करीम पर ईमान ले आया और अपनी फौज व मदीने के लोगों के साथ मदीने में आमद रसूल (सल्ल0) की खुशी में जुलूस निकाला। यानी आमद रसूल से एक हजार साल पहले ही खुशी का जुलूस निकाला गया।

हिन्दोस्ता में जुलूसे मुहम्मदीः-
हिन्दोस्तान में सबसे पहला जुलूस बरेली की आवंला तहसील के कस्बा सिरौली के मोहल्ला प्यास में मदरसा ‘‘ गुलिस्ताने शाहजी ’’ से उठा। हिन्दोस्तान का सबसे पहला जुलूस 10 फरवरी 1979 को उठा। मदरसे के संस्थापक हाफि़ज़ कारी अल्लामा नज़ीर अहमद शेरी साहब और उत्तर प्रदेश के स्वास्थ विभाग के प्रान्तीय स्तर के कर्मचारी नेता स्व0 एम.ए.सिद्दीकी (सिद्दीकी डाक्टर साहब) ने काफी कोशिश से ईद मीलादुन्नबी का जुलूस निकाला। हालांकि इस जुलूस को रोकने के लिए सिरौली के कुछ खुराफातियों ने जोर लगाये लेकिन सिरौली थानाध्यक्ष श्री ईश्वर सिंह की संस्तुति पर तत्कालीन जिलाधिकारी ने स्व0 सिद्दीकी की जिम्मेदारी पर स्व0 डाक्टर साहब ओर हाफिज नजीर अहमद शेरी साहब के नेतृत्व के साथ जुलूस उठाने की परमीशन देदी। तब से सिरौली में दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की के साथ जुलूस निकलता आ रहा है। सिरौली में जुलूस निकलने के अगली साल यानी 1980 में बरेली, मुरादाबाद में जुलूस निकलना शुरू हुआ उसके बाद देश के काफी जिलों में जुलूस निकलना शुरू हुआ। यानी हिन्दोस्तान का सबसे पहला जुलूस सिरौली में उठा। हिन्दोस्तान में जुलूस के बानी (संस्थापक) स्व0 एम.ए.सिद्दीकी साहब और हाफिज़ नज़ीर अहमद शेरी साहब है।
सिरौली में आज भी पूरी शानो शौकत के साथ सुबह नौ बजे मदरसा ‘‘ गुलिस्ताने शाहजी ’’ से निकला इस साल जुलूस स्व0 सिद्दीकी के पुत्र और अन्याय विवेचक के प्रकाशक/सम्पादक इमरान नियाजी की कयादत में उठाया गया।

Sunday, 20 January 2013

हेमन्त करकरे जिन्दाबाद


हेमन्त करकरे जिन्दाबाद
मजहब की ठेकेदारी से, नफरत की पैरोकारी से।
जो दूर रहें मजहब और धर्मों की हर रिश्तेदारी से।।
‘कामते’ ‘सालसकर’ से कुछ नए सरफिरे पैदा कर।
अल्लाह दुआ हम सबकी है एक और ‘करकरे’ पैदा कर।।
जो समझ सके कि दहशत का एक और चेहरा होता है।
अफसोस मगर एक ‘ खास कौम ’ के सर पर सेहरा होता है।
जिसकी खातिर दहशतगर्दी का मतलब दहशतगर्दी हो।
जिसे किसी न जात न किसी कौम से कोई भी हमदर्दी हो।
नफरत की परिभाषा बदले, कुछ नए दायरे पैदा कर।।
अल्लाह दुआ हम सबकी है एक और करकरे.............।
जिसकी कुरबानी भारत में हम सदियों सदियों याद करे।
जिसकी इंसाफ परस्ती को हम गलियों गलियों याद करे।
मौला हम सब होंठो पर मासूम दुआएं बची रहे।
कविता (करकरे) जैसी हिंदुस्तान में लाखों माएं बची रहें।
मोदी, कसाब, न तोगडि़या, न कोई ठाकरे पैदा कर।।
अल्लाह दुआ हम सबकी है बस एक करकरे पैदा कर।।
हिंदुस्तान जिंदाबाद ! हेमन्त करकरे जिन्दाबाद

Monday, 7 January 2013

फ्लाप होता "लक्ष्य 2014"



समाजवादी पार्टी का आगामी लोकसभा चुनावों में उ0प्र0 के गुजरे विधानसभा चुनावों जैसा प्रदर्शन करने के सपनों को लेकर "लक्ष्य 2014" अभी से पूरी तरह फ्लाप होता नजर आ रहा है। उ0प्र0 के गुजरे विधानसभा चुनावों में सपा ने उम्मीद से कहीं ज्यादा सीटें जीतकर अपने बलबते पर सूबे की सरकार बनाली। दरअसल सूबे की गुलाम जनता ने सपा की अपेक्षा अखिलेश यादव में ज्यादा सपने देखे थे लेकिन विडम्बना यह रही कि गुलामों के सपने एक एक करके टूटकर बिखरने लगे। दरअसल अखिलेश यादव अपने पिता सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के किये कार्यों को ही दोहराने में समय गुजार रहे हैं यानी वहीं पुराने फार्मूले 'बेरोजगारी भत्ता, कन्या विद्याधन, वगैरा के साथ ही मायावती के किये कार्यो को पलटने में समय जाया किया जा रहा है। साथ हाल ही अखिलेश यादव ने बरेली से आबिद खां नामक व्यक्ति को "राज्य एकीकरण परिषद का उपाध्यक्ष" बना दिया यानी आंख मूंदकर लाल बत्ती थमा दी। इसी तरह फार्मूला पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी आजमाकर देखा था, क्या हुआ ? माया ने लालबत्ती थमाने के बाद गोपनीय समीक्षा कराई तो पता चला कि 50 वोट भी नहीं बढ़े साथ ही कुर्सी का किराया भी नहीं मिल रहा था आखिरकार वापिस करली गयी। अब अखिलेश यादव ने भी माया के नक्शे कदम पर ही पैर रख दिया। खैर फिलहाल तो सूबे की गुलाम जनता से वसूला गया पैसा मुख्यमंत्री की ही सम्पत्ति है जैसे चाहें जहां चाहें इस्तेमाल करें या जिसे चाहें मोटा रोजगार देदें इसमें गुलाम जनता की औकात नहीं कि एतराज का मुंह खोल सके। बात है किसी को लालबत्ती देने का उद्देश्य कया है ? मुख्यमंत्री का क्या उद्देश्य है या वे उनके सपने कितने साकार होंगे। सूबे की गुलाम जनता को तो आजतक किसी से कोई फायदा हुआ ही नहीं इसलिए गुलामों के भले की उम्मीद करना ही बेकार की बात है। लेकिन मुख्यमंत्री के इस कदम से खुद मुख्यमंत्री या उनकी पार्टी को क्या फायदा होगा या किस फायदे की उम्मीद पर यह फैसला किया है यह विचार का विषय है। अगर अखिलेश यादव को लगता है कि सपा को मिलने वाले मुस्लिम वोटों में भारी इजाफा होगा तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल कही जायेगी या फिर ‘ मुगंरी लाल के सुन्हरे सपने कहे जा सकते हैं ’, क्योंकि वोट दर में हजार पांच सौ से ज्यादा इजाफा नहीं होने वाला साथ यह भी ध्यान में रखने वाली बात है कि अगर मुख्यमंत्री के इस कदम से सपा के खाते में हजार-पांच सौ वोट बढ़ेंगे तो दो-चार हजार वोट कम होना भी तय है, क्योंकि इस मामले को बारीकी से देखना होगा। अखिलेश यादव ने सिर्फ दरगाह की वजह से ही यह कदम उठाया है यानी मायावती की तरह ही अखिलेश यादव का भी मानना है कि दरगाह से जुड़े किसी व्याक्ति को कुर्सी दे देने से सारा मुस्लिम वोट सपा के खाते में चला जायेगा तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल होगी। मुख्यमंत्री या सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को यह नही भूलना चाहिये कि ये मुसलमान हैं इनमें आपसी ( धार्मिक मान्यता ) मतभेद सबसे ऊपरी सतह पर रहता है और इसे कोई मिटा नहीं सकता। मुसलमान के आपसी मतभेद इस तरह हैं जैसे कि बहती दरिया के दोनों किनारे, जो कभी एक नहीं हो सकते। इस कारण यह साफ है कि अगर मुस्लिम वोटों में इजाफे की उम्मीद पर यह फैसला लिया है तो फिर मुख्यमंत्री को हजारों की तादाद में मुस्लिम वोट खोने के लिए तैयार रहना होगा, हम तो यहां तक कह सकते हैं कि सीटों का नुकसान बर्दाश्त करने को तैयार रहना होगा। मुख्यमंत्री को यह अच्छी तरह याद रखना होगा कि तमाम मुसलमान एक साथ ही उनके साथ नहीं आ सकते, इसलिए किसी एक ग्रुप को साध लेने से ही काम नहीं चलता, दूसरी सच्चाई यह भी जान लेना जरूरी है कि व्यक्तिगत रूप से भी उस व्यक्ति को अच्छे पैमाने पर लोकप्रिय होना भी जरूरी है। अगर मुख्यमंत्री यह समझते हैं कि दरगाह से जुड़े किसी शख्स को कुर्सी थमा देने से ही सारा मुस्लिम वोट एक प्लेटफार्म पर आ जायेगा तो यह सिर्फ सुन्हरा सपना ही है, सबूत के तौर पर देंखें कि दरगाह के ही मन्नान रजा ने खुद भी लोकसभा चुनाव लड़ा और जमानत जब्त करा दी। दरगाह के ही तौकीर रजा ने अपनी पार्टी को लोकसभा चुनावों में उतारा दूसरी सीटें तो बड़ी बात बरेली लोकसभा सीट पर भी जमानत जब्त हो गयी। मन्नान रजा ने इसी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को समर्थन का एलान किया इसका नतीजा सबके सामने है, मतलब यह कि अगर दरगाह से जुड़े लोगों को भी दरगाह के सम्मान के बराबर माना जाने लगे तो यह सिर्फ नासमझी ही कहलायेगी क्योंकि दरगाह के सम्मान के बराबरी किसी को नहीं दी जा सकती। हां अगर दरगाह वालों की बात हो तो इसमें कोई शक नहीं कि तमाम मुसलमान आंख मूंदकर उनके इशारे पर चलने को तैयार को तैयार हो जाता। लेकिन दरगाह से जुड़े किसी भी शख्स को वैसा सम्मान या मान्यता हासिल नहीं है। 
आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा के मजबूत होकर उभरने की मजबूत उम्मीद पाई जा रही है। इसका सीधा और इकलौता कारण हैं कांग्रेस की करतूतों से गुलाम जनता की ऊब जाना। कांग्रेस से ऊब जाने के बाद मुस्लिम वोटों के सामने सपा और बसपा ही विकल्प बचते हैं बसपा को कई बार मुसलमानों ने सरकार तक पहुंचाया लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने सरकार में आने के बाद मुसलमानों को कुछ देने की बजाये सिर्फ अपने अपनों को ही रेवडि़यां बांटी, आखिरकार मुसलमान ने मायावती से मुंह मोड़ लिया ओर नतीजा मायावती सड़क पर आ गयी। एक दो बार ऐसा ही कुछ मुलायम सिंह यादव ने भी किया था तो मुस्लिमों ने उन्हें भी सत्ता से बाहर कर दिया था लेकिन इसबार अखिलेश यादव से कुछ उम्मीद की थी लेकिन मुसमानों की बदकिस्मती यह रही कि उनकी यह उम्मीद भी चकनाचूर होती नज़र आ रही है। अब इन हालात में आगामी लोकसभा 2014 चुनावों में मुसलमानों के सामने कांग्रेस, सपा, बसपा का विकल्प ही नही बचता दिख रहा है। जाहिर है मुस्लिम वोट मतदान से दूरी बनाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिख रहा, और अगर ऐसा हुआ तो इसका सीधा फायदा बीजेपी को ही होना है।
इन हालात को सामने रखकर ही कोई फैसला लें तब ही आगामी चुनावों में कुछ हासिल कर सकते हैं मुख्यमंत्री या सपा मुखिया को ना चाहकर भी कुछ कड़े फैसले करने होंगे। कुछ ऐसे भी कदम उठाने होंगे जो उन्हें पसन्द नही हों या फिर ऐसे फैसले जिनकी उनकी नजर में कोई वैल्यू न हो।

Saturday, 5 January 2013

भड़काकर कत्लेआम कराने वाले से डरता कानून


इन दिनों अमरीका व गुजरात आतंक के एजेण्टों के निशाने पर आंन्ध्र प्रदेश मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लेमीन के विधायक श्री अकबर उद्दीन ओवैसी हैं। अभी तक सोनिया गांधी नामक रिमोट से चलने वाली केन्द्र की आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस बाहुल्य मनमोहन सिंह सरकार ने मुंह नहीं खोला है अभी सिर्फ आतंक एजेण्ट ही बन्दर कूदी भर रहे है लेकिन क्योंकि ये कूदिया मनमोहन सिंह सरकार को गदगद करने वाली है तो जल्दी ही सरकार भी मुस्लिम दुश्मनी की इस कूदियां में शामिल होगी। दरअसल अकबर उददीन ओवैसी को साफ और सच बात करने की बीमारी है और अगर यह बीमारी किसी मुसलमान को हो तो यह हमारे महान देश के धर्मनिर्पेक्षता के लेबल में छिपे धार्मिक कानून को बर्दाश्त नहीं होता। हजारों की तादाद में मुसलमान आतंकियों का शिकार बने और इसकी निन्दा हो यह भी धर्मनिर्पेक्षता के लबादे में लिपटा धार्मिक कानून केसे बर्दाश्त करे। 2002 में गोधरा में मुसलमानों के खिलाफ बड़ी साजिश रचकर और फिर हिन्दुओं की भावनाओं को भड़काकर सूबे भी में सरकार व गैरसरकारी आतंकियों के हाथो हजारों बेकसूर मासूम मुसलमानों का कत्लेआम कराया गया इसपर कानून गदगद होता रहा। और तो और मुसलमानों के कत्लेआम कराने वाले को सम्मान व पुरूस्कार देने के साथ साथ सिंहासन पर बने रहने का अभयदान भी दिया गया। इस मामले में राष्ट्रीय या अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार भी दुम दबाये नजर आये और न ही किसी भी सम्बन्धित न्यायालय ने इस मामले को स्वतः ही संज्ञान में लेने का कष्ट किया। साथ ही मीडिया के वे धड़े जो अमरीका व गुजरात पोषित हैं आतंकियों के हाथों किये जा रहे कत्लेआम को दबाने की कोशिश में लगे रहे और अगर कोई छोटी मोटी खबर लिखी भी तो उसे दंगे का नाम दिया और आजतक दंगा ही लिखा जा रहा है। कुछ दिन पहले की ही बात है कि  बरमा व आसाम में आतंकी मुसलमानों का कत्लेआम कर रहे थे तब भी मीडिया के आतंक परस्त धड़े दुम दबाने में लगे रहे। विदेशी मीडिया के जरिये बरमा व आसाम में हो रहे आतंकी हमलों की खबरें गुलाम जनता तक पहुंची तो इसपर निन्दा और टिप्पणियां होना स्वभाविक था। बेकसूर मुसलमानों का कत्लेआम हो और उसकी कोई निन्दा करे यह आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस की केन्द्र सरकार को कैसे गवारा होता। बरमा और आसाम में आतंकियों की करतूतों को कथित मीडिया धड़ों ने दबाये रखने के साथ साथ इसकी निन्दाओं को भी दबाने का प्रयास किया इस हालात में सोशल नेटवर्किंग साईटें ही एक इकलौता जरिया थी अपनी बात को समाज दुनिया तक पहुंचाने का। लोगों ने फेसबुक समेत कई सोशल नेटवर्किंग साईटों पर अपनी निन्दा व अफसोस दुनिया तक पहुंचाया, मुसलमानों के कत्लेआम पर निन्दायें कांग्रेस की सरकार कैसे बर्दाश्त करती। सबसे पहले प्रधानमंत्री को ही मुस्लिम पक्ष में हो रही निन्दाओं से तकलीफ पहुंची, प्रधानमंत्री ने फेसबुक समेत उन सभी सोशल मीडिया साईटों को बन्द करने की बात कहने के साथ कोशिश भी की। एक कहावत है कि ‘‘ बड़ें मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुबान अल्लाह ’’ यह कहावत सार्थक करी केन्द्रीय गृह सचिव ने। गृह सचिव ने तो आवेश में आकर बड़ा ही अजीब और गैर जिम्मेदाराना बयान देते हुए कह दिया था कि ‘‘ यह पाकिस्तानी साजिश है ’’ यानी गृहसचिव ने बरमा ओर आसाम के कत्लेआम को ही झुठलाने की कोशिश की लेकिन उनकी बदकिस्मती से उसी दिन ‘‘ बीबीसी ’’ आसाम आतंकियों की एक और दिल दहला देने वाली करतूत उजागर कर दी। (देखें-anyayvivechaknews.blogspot.in पर 25 अगस्त 2012 का ‘‘ क्या यह भी पाकिस्तानी साजिश है गृहसचिव जी ’’ हमारा लेख) मुस्लिम कत्लेआम की खबरों को सोशल नेटवर्किंग साईटों पर दौड़ना आरएसएस एजेण्ट कांग्रेस की केन्द सरकार को इतना चुभा कि इन साईटों को बन्द करने के लिए भी हाथ पैर फेंके लेकिन गुजरे तीन महीने से उसी फेसबुक पर अमरीका व गुजरात आतंकी एजेण्टों ने मीडिया से जुड़े नामों से अकाउण्ट बनाकर रोज मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ अपने गन्दे खून की पहचान कराने के साथ साथ मुसलमानों के खिलाफ हिन्दू समाज को बड़े ही घृणित शब्दों में भड़काने में लगें है लेकिन यह बात  तीन महीने से भी ज्यादा अर्सा गुजर जाने के बावजूद न तो हमारे प्रधानमंत्री को चुभी और न ही इसमें गृहसचिव को कोई साजिश दिख रही। आज आन्ध्र प्रदेश के विधायक श्री अकबर उददीन ओवेसी ने जरा सी बात कहदी वह भी सही बात उसमें कोई भड़काऊ बात नहीं थी तो उसपर सब ही कूदियां मारने लगे, बेवजह की खुराफात पैदा की जा रही है कोई अदालत जा रहा है तो कोई पुलिस थाने। समझ में नहीं आ रहा कि ऐसा कया तूफान आ गया ओवैसी के बयान से ? भड़काने का काम तो देश में लगभग सभी करते है गुजरात में तो भड़काकर मुसलमानों का कत्लेआम तक कराया गया उस समय किसी को तकलीफ नही हुई क्योंकि मोदी, ठाकरे, उमाभारती, अशोक सिंघल समेत सभी विहिप, संघ, आरएसएस केलोग हैं और उससे भी बड़ी बात यह है कि ये सारे ही मुसलमान नहीं हैं और इन्होंने मुसलमानों के खिलाफ भड़काया और गुजरात में तो मुसलमानों पर आतंकी हमले तक करा दिये गये। इनके खिलाफ किसी की जुर्रत नहीं हुई कि अदालत जाये या पुलिस में जाता। कयोंकि ओवैसी मुसलमान हैं तो उनकी बात को ही भड़काऊ भाषण के नाम से बदनाम किया जा रहा है। ऊधर मीडिया के अमरीका व गुजरात पोषित धड़े ओवैसी के खिलाफ माहोल तैयार करने में जुट गये हैं।
जहां तक ओवैसी के भाषण को भड़काऊ कहे जाने की बात तो उन्होंने न तो अपने भाषण में मुसलमानों को दूसरों को कत्लेआम करने के लिए भड़काया जैसे कि मोदी ने किया था और न ही देश को बर्बाद करने की धमकियां दी जैसे कि बाल ठाकरे ने हमेशा दीं। ओवैसी ने तो सिर्फ एक बात कही वह भी देश के कानून और सरकारों की कारगुजारियों को खोला, ओवैसी ने किसी को भड़काने की बात नहीं की न ही ‘‘ देश बर्बाद हो जायेगा ’’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जैसे कि दूसरे हमेशा करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। ओवैसी ने किसी धर्म के लिए अपमानित शब्दों का प्रयोग भी नहीं किया जैसा कि फेसबुक पर कुछ आतंकी मुसलमान ओर इस्लाम के लिए कर रहे हैं। चलिये मान लेते हैं कि ओवैसी ने भड़काने की कोशिश की तो ठीक है ओवैसी के खिलाफ कार्यवाही की जानी चाहिये लेकिन उससे पहले उन सभी के खिलाफ भी ऐसी ही कार्यवाही करनी होगी जो हमेशा से ही लोगों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काते रहे हैं और मोदी के खिलाफ तो भड़काकर तीन हजार से ज्यादा बेकसूर अमन पसन्द शरीफ लोगों की हत्या का भी मामला चलाना होगा। हम अच्छी तरह जानते है कि इतनी दम किसी भी माई के लाल में नहीं। इनकी सारी ताकत और नेतागीरी और कानून सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ ही बोलने और साजिशें करने तक सीमित है। और कम से कम केन्द्र में सोनिया रिमोट से चलने वाली आरएसएस के दूसरे रूप कांग्रेस की सरकार है। याद दिलादें कि हम उसी मनमोहन सिंह सरकार की बात कर रहे हैं जिसने तीन हजार से ज्यादा बेकसूर मुसलमानों के कत्लेआम पर खुश होकर गुजरात आतंक के मास्टर माइण्ड को सम्मान व पुरूस्कार दिया था, और आजतक अभयदान बादस्तूर जारी है।

Thursday, 3 January 2013

पूरी अकीदत से मनाया चेहेल्लुमे हुसैन (अलै0)


नवासाये रसूले कौनैन आका इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों की शहादत के 40वें दिन अकीदत मन्द शहीदाने करबला का चेहेल्लुम करते है। आज चेहेल्लुम था। अहलेबैत से सच्ची मोहब्बत ओर उनपर इमान रखने वाले मुसलमानों ने पूरी अकीदत और अहतराम के साथ इमाम का चेहेल्लुम किया। इस मौके पर शिया और सुन्नी अपने अपने रिवायती तरीके से रस्में अदा करके नियाज नजर करते हैं।
बरेली में भी आज चेहेल्लुम किया गया। इस मौके पर शियाओं का एक परम्परागत मातमी जुलूस स्वालेनगर स्थित छोटी करबला तक गया।